जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड की सत्ता में वापसी के लिये जीतोड़ कोशिशें कर रही भारतीय जनता पार्टी के सामने विधानसभा के चुनावी समर में कुछ ऐसे यक्ष प्रश्न खड़े हैं जिनका सही जवाब न मिलने पर धर्मराज युद्धिष्ठर के चार भाइयों का जैसा अंजाम हो सकता है। इन यक्ष प्रश्नों में से एक राजनीतिक अस्थिरता का भी है। विपक्षी दलों के साथ ही आम मतदाता भी जानना चाहेगा कि अगर पार्टी राज्य में 12 सालों के शासनकाल में पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाली एक भी सरकार क्यों नहीं दे पायी? आगे भी क्या गारण्टी है कि उसका कोई मुख्यमंत्री स्थिर और सुशासन वाली सरकार दे पायेगा? कौन गारण्टी देगा कि सत्ता के लिये जोड़तोड़ और खरीद फरोख्त के बजाय प्रदेश के विकास पर ही ध्यान दिया जायेगा? भाजपा ने अपनी सरकारों को गिराने के साथ ही कांग्रेस की सरकारों को भी असिथर किया।
उत्तराखण्ड को पांच राजनीतिक अस्थिर राज्यों में शामिल किया
उत्तराखण्ड की 21 सालों के जीवन काल पर गौर करें तो राज्य की राजनीति कुर्सी के लिये जोतोड़, सरकार बनाने और गिराने तक ही समित नजर आती है। राजनीतिक उठापटक के बाद जो थोड़ा बहुत समय मिलता है वह घोटालों और सत्ता की बंदरबांट में ही निकल जाता है। राजनीतिक में पदलोलुपता, अवसरवादिता और सिद्धान्तहीनता के कारण उत्तराखण्ड देश के पांच सर्वाधिक राजनीतिक असिथरता वाले राज्यों में शामिल हो गया है। इस राज्य में मुख्यमंत्रियों का औसत कार्यकाल 2 साल है लेकिन भाजपा के मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल डेढ साल से भी कम है। इन पांच राज्यों में भी उत्तराखण्ड के अलावा उत्तर प्रदेश और कर्नाटक भाजपा शासित हैं जबकि बिहार में वह नीतीश कुमार के साथ साझीदार है। इनके अलावा झारखण्ड में भी मुख्यमंत्रियों का औसत कार्यकाल 1.4 साल है। मजेदार बात तो यह है कि राजनीतिक अस्थिरता के लिये चर्चित रहे गोवा और अरुणाचल भी अब स्थिरता के दौर में आ चुके हैं।
चार विधान सभाओं ने कार्यकाल पूरा नहीं किया
अगर राजनीतिक अस्थिरता से गुजर रहे राज्यों विधानसभाओं का कार्यकाल पर गौर करें तो उत्तर प्रदेश विधानसभा का औसत कार्यकाल 4.1 वर्ष, झारखण्ड का 4.5 वर्ष, बिहार का 4.3 वर्ष और कर्नाटक का 4.7 वर्ष रहा। उत्तराखण्ड विधानसभा अपना कार्यकाल तो पूरा करती रही मगर नारायण दत्त तिवारी के अलावा कोई भी मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका।
हिमाचल में 50 सालों में केवल 6 नेता रहे मुख्यमंत्री
भौगोलिक और सांस्कृतिक दृष्टि से उत्तराखण्ड के सहोदर हिमाचल प्रदेश का जन्म 1948 में केन्द्र शासित प्रदेश के रूप में हुआ था और सन् 1971 में उसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। पूर्ण राज्य बनने से लेकर अब तक के 50 सालों में हिमाचल प्रदेश में डा0 यशवन्त सिंह परमार, ठाकुर राम लाल, शान्ता कुमार, वीरभद्र सिंह, प्रेम कुमार धूमल और जयराम ठाकुर समेत कुल 6 नेता मुख्यमंत्री बने हैं। इनमें कांग्रेस के वीरभद्र सिंह ऐसे मुख्यमंत्री रहे जिन्होंने 25 सालों तक पूरे पांच बार प्रदेश की सत्ता संभाली। देखा जाय तो इन 50 सालों में वहां 6 नेताओं की कुल 13 सरकारें रहीं। जहां तक पार्टियों का सवाल है तो वहां भी भाजपा की सरकारें ज्यादातर अस्थिर ही रहीं। अब तक प्रो0 प्रेम कुमार धूमल ही दो बार अपना कार्यकाल पूरा कर सके। उम्मीद की जा सकती है कि जयराम ठाकुर भी पांच साल का कार्यकाल पूरा कर सकेंगे।
भाजपा ने 12 सालों में 8 मुख्यमंत्री दिये
हिमाचल प्रदेश के विपरीत उत्तराखण्ड में 21 सालों में 11सरकारें आ चुकी हैं। इनमें भुवनचन्द्र खण्डूड़ी को पांच सालों में दो बार सरकार बनाने का मौका मिला, मगर वह दो कार्यकालों में भी 2 साल 295 दिन से ज्यादा शासन नहीं कर पाये। उत्तराखण्ड में सबसे अधिक मुख्यमंत्री देने का रिकार्ड बनाने वाली भाजपा ही है। जिसने साढ़े 11 सालों में 8 मुख्यमंत्री राज्य को दिये। इन भाजपाई मुख्यमंत्रियों का औसत कार्यकाल 1 साल 45 दिन का रहा। राज्य में भाजपा ने तीरथ सिंह रावत को 116 दिन से अधिक नहीं टिकने दिया।
उत्तराखण्ड के जन्म के साथ ही शुरू की भाजपा ने राजनीतिक अस्थिरता
उत्तराखण्ड में राजनीतिक अस्थिरता की शुरुआत इसके जन्म के साथ ही हो गयी थी और ऐसी शुरुआत का अपयश भी भाजपा को ही मिलता है। भाजपा के अंदरूनी सत्ता संघर्ष के चलते पहले मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी को पार्टी के नेताओं ने 1 साल भी पूरा काम करने नहीं दिया और वह कुल 354 दिन के अन्दर ही पद्च्युत कर दिये गये। उनके स्थान पर भगत सिंह कोश्यारी मुख्यमंत्री बने तो चुनाव आ जाने के कारण उनकी हुकूमत मात्र 122 दिन चली। राज्य के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला तो देश के वरिष्ठतम् राजनेता नारायण दत्त तिवारी को प्रदेश की कमान सौंपी गयी। तिवारी राज्य के अकेले मुख्यमंत्री रहे जो पांच साल का कार्यकाल पूरा कर सके।
तिवारी के अलावा कोई नहीं चला पाया 5 साल तक सरकार
तिवारी के बाद उत्तराखण्ड की राजसत्ता पर ऐसा ग्रहण लगा कि कोई भी मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। विधानसभा के दूसरे चुनाव में भाजपा सत्ता में आयी तो फौज के रिटायर्ड मेजर जनरल भुवन चन्द्र खण्डूड़ी को राज्य की कमान सौंपी गयी मगर पार्टी के अंदर की गुटबाजी और सत्ता संघर्ष के चलते उनकी सरकार 2 साल 111 दिन ही चल पायी और सत्ता के इस खेल में बाजी रमेश पोखरियाल निशंक के हाथ लगी मगर उनकी सत्ता 2 साल 75 दिन ही चल पायी और एक बार फिर भुवन चन्द्र खण्डूड़ी के हाथ में राज्य की कमान आ गयी। लेकिन उनको दूसरी बार 184 दिन का ही कार्यकाल मिला।
कांग्रेस सरकार की अस्थिरता में भी भाजपा का हाथ रहा
सन् 2012 के चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आयी तो विजय बहुगुणा की ताजपोशी हो गयी। लेकिन कांग्रेस के सत्ता संघर्ष में 1 साल 324 दिन के अंदर बहुगुणा का तख्तापलट हो गया और हरीश रावत के हाथ हुकूमत आ गयी। उनके खिलाफ मार्च 2016 में ऐसी बगावत हुयी जिसने कई मायनों में इतिहास रच दिया। 27 मार्च 2016 को हरीश सरकार की बर्खास्तगी के बाद राष्ट्रपति शासन लगा जिसे पहले हाइ कोर्ट ने और फिर सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दे दिया। देश के संसदीय इतिहास में पहली बार 10 मई को सप्रीम कोर्ट की देखरेख में हरीश सरकार ने विधानसभा में बहुमत का परीक्षण पास किया। पहली बार 2 घंटे के लिये विधानसभा के इर्दगिर्द राष्ट्रपति शासन हटाया गया। राज्य में एक साल का सालाना बजट दो बार पास कराना पड़ा। इस अस्थिरता में भी भाजपा का ही हाथ रहा। हरीश रावत अन्ततः कानूनी और राजनीतिक लड़ाई जीत तो गये मगर 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस भी हारी और हरीश रावत भी चुनाव हारे।
भाजपा ने तीन महीने में ही मुख्यमंत्री बदल दिया
उसके बाद 2017 में भाजपा को बहुमत मिला तो त्रिवेन्द्र रावत को विधायक दल पर थोप दिया गया। उनके खिलाफ शुरू के दिन से पार्टी में असन्तोष चल रहा था। अन्ततः 10 मार्च 2021 को उनके स्थान पर सांसद तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बना दिया गया। लेकिन उनकी चुनाव जीतने की संभावना तो रही दूर चुनाव लड़ने की संभावना भी क्षीण हो गयी तो मात्र 116 दिन के अंदर भाजपा ने उन्हें हटा कर खटीमा के विधायक पुष्कर सिंह धामी की मुख्यमंत्री के तौर पर ताजपोशी कर दी। अब चुनाव से पहले धामी केवल अपने पांच माह के कार्यकाल का हिसाब दे रहे हैं। लेकिन शेष साढ़े चार साल का हिसाब किसी के पास नहीं है।
One Comment
Dr मृगेश पांडे
सही विश्लेषण