कमलेश जोशी
नए साल की पहली पुस्तक के रूप में शुरुआत कवि, लेखक व नवाचारी शिक्षक महेश पुनेठा के नए कविता संग्रह “अब पहुँची हो तुम” से कर रहा हूँ. समय साक्ष्य प्रकाशन से प्रकाशित यह संग्रह उन तमाम कविताओं को खुद में समेटे हुए हैं जो हमारे रोज़मर्रा के जीवन से जुड़े होने के बावजूद हमारी कल्पनाओं में अपना घर नहीं कर पाती. कवि महेश पुनेठा ने पहाड़ों में आम जन से जुड़ी समस्याओं जैसे सड़क, पलायन, रोजगार, बाँधों के निर्माण से उपजी समस्याएँ, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि आम मुद्दों को कविता के रूप में पिरोकर इस तरह प्रस्तुत किया है कि पाठक पहाड़ की कठिनाइयों के साथ ही पहाड़ के जनमानस की जीवटता से भी रूबरू हो सके. पहाड़ों में पलायन का बहुत बड़ा कारण सड़क का न होना रहा है और कवि ने इस मर्म को अपनी कविता में कुछ यूँ पिरोया हैः
“सड़क! अब पहुँची हो तुम गाँव
जब पूरा गाँव शहर जा चुका है”
स्वास्थ्य सुविधाओं की मार झेलते पहाड़ के बासिंदे जब तक हो सकता झाड़-फूँक और स्थानीय उपचारों से खुद को ठीक करने की तमाम कोशिशें करते हैं और जब रोग असाध्य हो जाता है तो बड़े अस्पतालों की खोज में शहर का रुख़ करने लगते हैं. इस भाग दौड़ में इतनी ऊर्जा और संसाधन खपाने होते हैं कि इंसान मर के तरना अधिक पसंद करता है. कवि इस दर्द को अपने शब्दों में कुछ इस तरह बाँध लेता हैः
“वह आज अचानक नहीं मरी
हाँ आज अंतिम बार मरी
उसको जानने वाले कहते हैं
मरी क्या बेचारी तक गई”
पंचेश्वर बाँध के निर्माण से पहले ही उस क्षेत्र के लोगों को विस्थापन और अपनी पुस्तैनी ज़मीनें छोड़ने का डर सताने लगा है. टिहरी बाँध का उदाहरण उनके समक्ष है जहाँ कई लोगों को विस्थापन के बावजूद न तो मुआवज़ा ही पूरा मिला न मनचाही जगह पर विस्थापन. पंचेश्वर घाटी से जुड़ी स्थानीय लोगों की आत्मीयता किसी मुआवज़े से तो नहीं ख़रीदी जा सकती. घाटी के लोगों का दर्द यह है किः
“सुख-दुख की साथिन है ये
हर सुबह
सबसे पहले हम इसका मुँह देखते हैं
हर शाम लौटते हैं इससे मिलकर
हमारे बच्चे माँ की गोद से उतरकर
इसकी गोद में ही खेलते हैं
प्यास लगे या भूख
हम इसी के पास जाते हैं
उदास हो जब कोई
यही तो सुनती है धैर्य के साथ
कोई भी संस्कार हो हमारा
इसकी उपस्थिति के बिना पूरा नहीं होता है
है क्या तुम्हारे पास इस सब का मुआवज़ा?”
शहर इलाज के लिए गई एक आमा यदि यह जान जाए कि जिस घाटी में उसने अपने पूरी ज़िंदगी बिता दी आज वह घाटी डूबने की कगार पर खड़ी है तो शायद ही वह इस सदमे को झेल पाएगी. शहर में घुटन सी महसूस कर रही, ठीक होकर घर लौटने की ख्वाहिश लिए उस आमा के लिए कवि लोगों से प्रार्थना करता है किः
“एक प्रार्थना है दोस्तो
उस आमा को मत बताना
कि उसका गाँव भी
आ रहा है डूब क्षेत्र में
जो पिछले दिनों
अपनी बिमारी के चलते
इलाज करवाने
शहर आई थी अपने बेटे के पास
जितने दिन रही वहाँ
माँ-बाप से बिछुड़ी किसी बच्ची की तरह
कलपती रही
गाँव को लौटते वक्त
जिसकी चाल में
बहुत दिनों बाद गोठ से खोले गये
बछिया की सी गति देखी गयी
मत कहना उस से
आमा! तुम्हारा गाँव भी
पंचेश्वर बाँध में डूबने वाला है”
जिस रसोई को हम सिर्फ़ खाना बनाने का स्थान समझते हैं उसी रसोई से कवि महेश पुनेठा ने ऐसी-ऐसी रचनाएँ रची हैं कि वह रसोई जींवत होकर हमारे सामने खड़ी हो जाती है. रसोई को देश और बर्तनों को देश का नागरिक समझें तो बात-बात पर देश छोड़कर चले जाने को कहने वाले लोग भी रसोई में आपस में टकराकर खनकते इन बर्तनों से सीख सकते हैं किः
“कोई अनोखी बात नहीं
रसोई में टकराते ही रहते हैं
आपस में बर्तन
लेकिन कभी नहीं सुना
कहा हो किसी ने
किसी दूसरे से
रसोई छोड़कर चले जाने को”
आज किसी को भी किसी बात पर शिकायत या असहमत होने पर देशद्रोही या राजद्रोही कह देने का चलन बहुत आम हो गया है. क्या वास्तव में इन शब्दों के मायने इतने हल्के हो गये हैं कि हर छोटी-मोटी असहमति के लिए देशद्रोही का टैग चस्पा दिया जाए. कवि ने शायद इसी बात को समझाने के लिए रसोई से एक उदाहरण लिया है और शानदार कविता में पिरो दिया हैः
“कभी चावल कम पके होने की
या कभी रोटी जली होने की
या फिर कभी नमक तेज होने की
शिकायत करना
क्या रसोईद्रोही होना
माना जा सकता है?”
देश को रसोई और असामाजिक तत्वों को रसोई में उपस्थित ज्वलनशील पदार्थ के रूप में देखते हुए कवि रसोइये यानि कि देश की बागडोर सँभाले व्यक्ति को संबोधित करता हुआ कहता हैः
“रसोई में मौजूद रहते हैं
तमाम तरह के ज्वलनशील पदार्थ
थोड़ी सी लापरवाही से
कभी भी भड़क सकती है आग
रसोइये की कोशिश होनी चाहिये
कि आग में क़ाबू पाया जाए
न कि उसमें घी डाल दिया जाए”
लॉकडाउन के समय पलायित हुए मज़दूरों से लेकर, किसान आंदोलन, धर्म के नाम पर हो रही तमाम तरह की हिंसाओं व बढ़ती संकीर्णओं को कवि ने अपने कविता संग्रह में मुखर आवाज़ दी है. जेरूसलम में बढ़ती धार्मिक हिंसा व नफ़रत को ध्यान में रखते हुए कवि लिखता हैः
“तुम एक नहीं
दो नहीं
तीन-तीन धर्मों की
पवित्र भूमि हो
फिर भी
इतनी नफ़रत!
इतनी अशांति!
इतना खून!
हे! दुनिया के प्राचीन शहर
क्या कभी तुम्हें लगता है
कि पवित्र भूमि की जगह तुम
काश! एक निर्जन भूमि होते”
“अब पहुँची हो तुम” न सिर्फ़ कवि के व्यक्तिगत अनुभवों का संग्रह है बल्कि रोज़मर्रा के उन तमाम अनुभवों का भी संग्रह है जो समाचार पत्रों या सोशल मीडिया के माध्यम से हम तक पहुँचता है. लोगों की ही दबी आवाज़ को कवि ने कविताओं के माध्यम से उन तक पहुँचाने की कोशिश भी अपने संग्रह में की है. सबसे कठिन होता है सरल शब्दों में कठिन मुद्दों पर कविता लिखना. कवि महेश पुनेठा ने लोगों के इर्द-गिर्द से ही बिंब उठाकर उन्हें कविता का रूप देकर लोगों तक पहुँचाया है. कुल मिलाकर “अब पहुँची हो तुम” पहाड़ से लेकर पलायित हो चुके लाखों लोगों का अपना कविता संग्रह है जिसे कवि महेश पुनेठा ने अपनी कलम से संजोया है.