राजीव लोचन साह
उत्तराखंड की 70 विधानसभा सीटों के नतीजे ई.वी.एम. मशीनों में बन्द हो गये हैं। चार सप्ताह बाद ही इनके परिणाम आयेंगे। मतदाता अब प्रतीक्षा में है। मतदाता कई कारणों से वोट देता है। एक प्रकार के मतदाता प्रत्याशी की योग्यता को सबसे ज्यादा तरजीह देते हैं। ऐसे मतदाता प्रायः निराश ही होते हैं, क्योंकि योग्यता चुनाव नहीं जिताती। दूसरे प्रकार के मतदाता किसी पार्टी से प्रतिबद्ध होते हैं। उन्हें भी निराशा ही हाथ लगती है, क्योंकि उनकी पार्टी जीत भी गई तो भी उनकी आशा दुराशा ही सिद्ध होती है। सरकार बनते समय भले ही शुरू में लगे कि कुछ होगा, लेकिन अन्ततः सरकारों का चरित्र एक सा ही होता है। उत्तराखंड में यह बात विशेष रूप से सच साबित हुई है। मतदाताओं का सबसे बड़ा वर्ग क्षीण तात्कालिक लाभ, जैसे शराब या नकदी के लिये वोट देता है। यह वर्ग काफी हद तक निर्णायक होता है। इसे सरकार से कोई अपेक्षा भी नहीं होती, हालाँकि यह सम्भव है कि चुनाव सम्पन्न हो जाने के बाद इसे अपने किये पर पछतावा होता हो। उत्तराखंड में फरवरी के बचे दिनों और मार्च की शुरूआत यों ही होनी है। यह सही वक्त है कि हम चुनावों की विफलता और लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप के बारे में गम्भीरता से सोंचें। प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र, जिसमें हम सिर्फ मतदान करते हैं और जीतने के बाद हमारा प्रतिनिधि हमारा नहीं रहता, को बदल कर सहभागितामूलक लोकतंत्र, जिसमें हम स्वयं तय करते हैं कि हमें अपना विकास क्या और कैसे करना है, ही अब वक्त की जरूरत है। संविधान के 73वें और 74वें संशोधन कानूनों के रूप में यह विकल्प, जो ग्राम पंचायतों और नगर निकायों के जरिये हमें मिलता है, मौजूद है। चिन्ताजनक बात यह है कि जनता को अपने भाग्य का मालिक स्वयं बनाने वाले इन कानूनों के बारे में जन सामान्य कुछ जानता ही नहीं। उससे भी कठिन चुनौती यह है कि यह रास्ता अख्तियार करने के लिये भी हमें प्रदेश सरकारों की जरूरत है और अपने स्वार्थ के कारण प्रदेश सरकारें इन्हें लागू करना नहीं चाहतीं।