राजीव लोचन साह
यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब पड़ौस के उत्तर प्रदेश, जिसके 24 साल पहले तक हम अभिन्न अंग थे, से हमारे चुनाव परिणाम इतने अलग क्यों हो गये ? जहाँ उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी और अखिलेश यादव की जुगलबंदी में इंडिया गठबंधन ने भारतीय जनता पार्टी की लुटिया डुबो दी, यहाँ तक कि राम मन्दिर बनने के बावजूद अयोध्या में भाजपा का प्रत्याशी पिट गया, वही उत्तराखंड की जनता ने एक बार फिर से उदारतापूर्वक प्रदेश की पाँचों सीटें भाजपा की झोली में डाल दीं।
एक कारण तो यह लगता है कि उत्तराखंड में आम चुनाव पहले ही चरण में हो गये। उस वक्त तक कांग्रेस या इंडिया गठबंधन के पक्ष में कोई माहौल बन ही नहीं पाया था। वह तो अन्तिम चरण तक धीरे-धीरे बढ़ता रहा। राहुल गांधी की शांति न्याय यात्रा उत्तराखंड से कभी गुजरी नहीं। उसका असर यहाँ था नहीं। कांग्रेस का चुनाव घोषणापत्र ‘न्याय पत्र’ कुछ ही दिन पहले जारी हुआ था और कांग्रेस का निचले स्तर का कार्यकर्ता ही उसे नहीं समझ पाया था, जनता को क्या समझाता। वह तो फौज में भर्ती होने वाले असंख्य आकांक्षियों को ‘अग्निवीर’ की सच्चाई ही नहीं बता सका। कार्यकर्ताओं की उत्तराखंड कांग्रेस में काफी किल्लत है। कुछ दशक पहले तक कांग्रेस में ऐसे दर्जनों छोटे कार्यकर्ता होते थे, जो बगैर किसी लालच के दरी बिछाने जैसे छोटे-मोटे काम खुशी-खुशी कर देते थे। प्रदेश का दलित समाज आँख बन्द कर कांग्रेस को वोट देता था। वह स्थिति अब पूरी तरह बदल गई है। पार्टी कार्यकर्ता बनने वाला व्यक्ति पहले इस बात को लेकर आश्वस्त होना चाहता है कि उसे ठेकेदारी के रूप में या अन्य किसी रूप में कुछ मिलता रहे। राजनीति के मिशन होने की बात अब बहुत पुरानी पड़ गई है। अपने कार्यकर्ताओं को अब सभी पार्टियाँ कुछ न कुछ देती ही हैं। बल्कि उत्तराखंड में गाँव स्तर तक पहुँचा हुआ जो ठेकेदारी का तंत्र है, वही प्रकारान्तर में पार्टी का भी संगठन होता है। इस बात को लेकर भाजपा बहुत सजग है। पन्ना प्रमुख और बूथ स्तर तक कार्यकर्ता तैयार करने का उसका काम तो पूरे देश स्तर पर चलता ही है। इसके लिये उसके पास अन्य पार्टियों के मुकाबले कई गुना अधिक पैसा है। उत्तराखंड में उसका ठेकेदारी का तंत्र भी कांग्रेस से कहीं बेहतर है। पिछले दस साल से केन्द्र में भाजपा की सरकार है और सात साल से उत्तराखंड में। इस अवसर का लाभ उसने अपने ठेकेदारों को मजबूत करने के लिये किया है। चुनाव होने तक भी उसने येन केन प्रकारेण दूसरी पार्टी के ठेकेदारों को भाजपा में लाने का क्रम जारी रखा। कांग्रेस में वही रह गये, जो अपेक्षाकृत ईमानदार थे और जिनकी आर्थिक महत्वाकांक्षायें ज्यादा बड़ी नहीं थीं। दिक्कत यह थी कि ये लोग ज्यादा भागदौड़ करने की उम्र से कहीं आगे निकल चुके थे। कांग्रेस का चुनाव प्रचार अब बेहद थका-थका और औपचारिकता निभाने वाला होता है।
कांग्रेस का परम्परागत दलित वोट बैंक भी अब कांग्रेस के हाथ से फिसल चुका है। महिलाओं की तरह वह भी राममय हो गया है और पाँच किलो राशन से बेहद उत्फुल्लित है। बजरंग दल में सबसे अधिक संख्या दलित युवाओं की ही है। वे अम्बेडकर को नहीं जानते। भाजपा का दलित विरोधी चेहरा दिखलाने वाला उनके बीच में कोई नहीं है। सबसे बड़ी बात कि उत्तराखंड कांग्रेस में अन्दरूनी कलह बहुत अधिक है। उसके प्रदेश स्तर के नेताओं में कोई तालमेल ही नहीं है। इसके उलट वे एक दूसरे की टाँग खींचने में लगे रहते हैं। इसमें सबसे अधिक दोषी तो उनके सबसे वरिष्ठ नेता हरीश रावत हैं। यदि कांग्रेस में जम कर लड़ने की इच्छाशक्ति होती तो वह वर्ष 2022 का विधानसभा चुनाव ही नहीं हारती। वह चुनाव भी कांग्रेस ने एक तरह से तश्तरी पर सजा कर भाजपा को दिया था।
ये सारे कारण कांग्रेस का बंटाधार करने के लिये पर्याप्त थे। फिर भी गढ़वाल सीट पर कांग्रेस के गणेश गोदियाल के जीतने की उम्मीद की जा रही थी। उनके और उनके कार्यकर्ताओं ने संगठन की और धनबल की कमी के और रीढ़विहीन नेतृत्व के बावजूद डट कर चुनाव लड़ा। इसके बावजूद वे भाजपा के अनिल बलूनी से 1,63,503 मतों से हार गये। बलूनी भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व के बहुत प्यारे हैं और अपने नेतृत्व से उन्हें हर तरह की मदद मिली। हरिद्वार सीट के जन सांख्यकीय समीकरण कांग्रेस के पक्ष में हो सकते थे। मगर हरीश रावत के पुत्रमोह के कारण वहाँ से पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत 1,49,056 मतों से सीट निकाल ले गये। हरीश रावत ने पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को मजबूर कर यहाँ से अपने पुत्र वीरेन्द्र रावत को यहाँ से टिकट दिलवाया था। नैनीताल सीट पर भाजपा प्रत्याशी और मौजूदा सांसद अजय भट्ट की निष्क्रियता से मतदाता बहुत नाराज थे। मगर कांग्रेस के युवा प्रत्याशी प्रकाश जोशी मतदाताओं को एकदम अपरिचित लगे। लिहाजा उन्होंने नरेन्द्र मोदी के आकर्षण को अपनी नाराजी से ऊपर रखा और अजय भट्ट को 3,34,548 मतों के भारी भरकम अन्तर से जिता कर दुबारा संसद भेज दिया। अल्मोड़ा में संघर्ष और जनान्दोलनों से चुनाव की राजनीति में आये प्रदीप टम्टा प्रदेश के शायद सबसे अनुभवी और विद्वान प्रत्याशी थे। मगर उनके पास कार्यकर्ताओं की तो कमी थी ही, पैसों की इतनी अधिक किल्लत थी कि उन्हें आर्थिक मदद के लिये एक भावुक अपील तक करनी पड़ी। उन्हें भाजपा के अजय टम्टा ने आराम से 2,34,097 मतों से पराजित कर दिया।
टिहरी गढ़वाल में पिछले कुछ समय में बेराजगार युवाओं के नेता के रूप में उभर कर आये निर्दलीय उम्मीदवार बॉबी सिंह पँवार के चुनाव को विशेष रूप से याद किया जाना चाहिये। उनके पास न पैसा था, न पार्टी संगठन और न चुनाव लड़ने का कोई पुराना अनुभव। मगर उनके युवा समर्थकों ने दिल जीत लिया। हालाँकि वे 1,68,011 वोट पाकर तीसरे नम्बर पर रहे। यहाँ भाजपा की माला राज लक्ष्मी शाह ने कांग्रेस के जोत सिंह गुनसोला को 2,72,493 मतों से हराया। बताया जा रहा है कि बॉबी पँवार टिकट के लिये कांग्रेस के पास भी गये थे। मगर राहुल गांधी के बहाने अब थोड़ी-थोड़ी स्वीकार्यता पाने लगी कांग्रेस के पास ऐसी सद्बुद्धि और दूरदृष्टि होती तो पिछले पचास सालों में वह इतनी अधिक सिमट न गई होती।
पूरे चुनाव के दौरान मतदाता बेहद बेपरवाह, चुप्पा और ऊबा हुआ सा था। इसका उदाहरण ‘नोटा’ को मिले अच्छे-खासे मतों के रूप में भी देखने को मिला। जहाँ कुल 55 प्रत्याशियों में हारने वाले 38 उम्मीदवार पाँच अंकों तक नहीं पहुँच पाये, बल्कि 31 उम्मीदवार तो 5,000 तक भी नहीं पहुँच सके, वहीं ‘नोटा’ को अल्मोड़ा में 17,019, गढ़वाल में 11,375 और नैनीताल में 10,423 मत मिले। भारत का मतदाता धीरे-धीरे ‘नोटा’ का महत्व समझने लगा है। इन्दौर लोक सभा क्षेत्र में, जहाँ भाजपा ने चुनाव जीतने के लिये कांग्रेस प्रत्याशी को बैठा देने की तिकड़म बिठायी थी, लगभग दो लाख मतदाताओं ने ‘नोटा’ को वोट देकर अपना प्रतिरोध दर्ज किया। यह लोकतंत्र के भविष्य के लिये आशा की एक किरण है।