विनोद जीना
उत्तराखंड के पहाड़ में एक सामान्य परंपरा है, जब किसी व्यक्ति के घर में गाय या भैंस ब्याती है (मतलब बछड़े को जन्म देती है) तो बछड़े की उम्र 22 दिन होने पर या उसके बाद किसी दिन पशु का दूध स्थानीय देवता को चढ़ाया जाता है। इस देवता को बधाण कहा जाता है। दूध चढ़ाने को बधाण पूजना कहा जाता है। 22 दिन का समय किसी इलाके में कम या ज्यादा भी है लेकिन बधाण पूजने की परंपरा लगभग पूरे उत्तराखंड में है। जिस जगह बधाण पूजा होती है उसे बधाणथान या बधाणथली या बधाण भी कहते हैं। यह देवता पशुपालकों की परंपरा का ही एक लोकदेवता है। गाय या भैंस के दूध की प्रकृति में जब अंतर हो जाता है या पशु बीमार होता है तो भी लोग बधाण पूज कर संकट दूर करने की कोशिश करते हैं। बधाणथान हर गांव में नहीं होता है बल्कि कई गांवों के पूरे इलाके में एक ही होता है, और खासकर खत्ते- खरीक वाली जगहों के नजदीक बना होता है।
नैनीताल के कोश्यां और कोटाभाभर के बीच में ( लगभग दोनों के बीच की सीमा पर) एक ऊंची चोटी पर ऐसी ही बधाणथली है। कालान्तर में एक बाबा जी आये और वहीं रहने लगे। सामान्यतः लोग जोगी और बाबाओं को सम्मान और श्रद्धा से देखते हैं। बाबाजी गुरु बन गये और श्रद्धालु भक्त बन गये। श्रद्धालु गृहस्थ ही होते हैं तो उनका सामाजिक दायरा भी बड़ा होता है। गुरू-सेवक संबन्धों ने धीरे-धीरे असर दिखाया । आज की बात करें तो जो बधाण देवता हुआ करता था, वह ब्रह्मा बन चुका है। इतना ही नहीं, बधाणथली अब ब्रह्मस्थली है। यानी नये भगवान ने पारंपरिक भगवान को विस्थापित कर दिया है। हालांकि गिने-चुने लोग अभी भी वहाँ बधाण चढ़ाते हैं लेकिन एक या दो पीढ़ी में बधाण का ब्रह्मा में बदल जाना तय है।
कुछ लोग कहते हैं कि भगवान तो भगवान होता है, कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप उसे किस नाम से जानते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है, फर्क पड़ता है। अगर फर्क नहीं पड़ता तो नाम बदलने की जरूरत ही नहीं होती। फर्क यह पड़ता है कि पारंपरिक भगवान, नये भगवान के सामने छोटा और दोयम होता जाता है। पारंपरिक भगवान के साथ चलने वाली परंपरा और मान्यतायें, नये भगवान के सामने हीन होती चली जाती हैं और इसी के साथ पारंपरिक संस्कृति को जीने वाले लोग , नयी संस्कृति के सामने हीन होते चले जाते हैं।
एक अलग तरह का उदाहरण और है। बिल्कुल राजा रवि वर्मा के कैलेंडर वाले भगवानों जैसा।
बेतालघाट के स्थानीय देवता को नकुवा ( जिसे लोग नकुवाबुबू भी ) कहते हैं। नकुआथान में इनकी मूर्ति के रूप में एक बेडौल-सा पत्थर हुआ करता था ( जैसा कि सभी लोक देवताओं के साथ होता है) दो-तीन साल पहले इस देवता की संगमरमर की मूर्ति बनाकर किसी मुखिया (जाट कल्चर में चौथरी) जैसा लुक दे दिया गया है।
लगभग इसी तरह के और भी उदाहरण पूरे पहाड़ में सभी रूपों में देखने को मिल जाते हैं। पूरे पहाड़ में जागरों की जगह अब सिर्फ और सिर्फ फिल्मी पैरोडी वाले कीर्तन हैं, 22-22 दिन तक चलने वाली बैसी की जगह तरह-तरह के पुराण और व्यासों की कथायें हैं, चैत में होने वाले झोड़ों की जगह फूहड़ भजन हैं ।
ऐसा भी नहीं है कि यह मामला सिर्फ देवताओं और परंपराओं तक सीमित है। चुल्याण से लेकर थान तक, गोठ से लेकर खलिहान तक, हर जगह इस संस्कृतिकरण ने पहाड़ में नयी संस्कृति को जन्म दिया है।
इस नयी उपजी हुई संस्कृति में पारंपरिक त्यौहार, पारंपरिक मनोरंजन, पारंपरिक खान-पान, पारंपरिक बोली, पारंपरिक तरीके , पारंपरिक देवता, पारंपरिक कर्मकांड, जीवनयापन के पारंपरिक तरीके सब कुछ नयी उपजी हुई संस्कृति के सामने हीन है। पूरा पहाड़ी समाज हीनता के भाव से ग्रस्त है। हीनता का यह भाव उसके बात-व्यवहार में छलकता भी है। यह समाज, खुद को हीनता के बोध से उबारने के लिये कभी बाॅलीवुड की नकल करता है, कभी काॅर्पोरेट की नकल करता है।
कुल मिलाकर निचोड़ यह है कि पहाड़ के लोग चाहे पहाड़ में ही क्यों न रह रहे हों, सब अपनी जड़ों से कट चुके हैं और पहाड़ की पारंपरिक संस्कृति परकटे जटायु की तरह आखिरी सांसें गिन रही है।