शंकर सिंह भाटिया
भाजपा अप्रत्याशित घोषणाएं करने के लिए जानी जाती है। सन् 2000 में वाजपेयी सरकार द्वारा उत्तराखंड समेत तीन राज्यों की घोषणा हो या फिर वर्तमान मोदी सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर से धारा 370 और 35ए समाप्त करने का मामला हो, यह इसी तरह की अप्रत्याशित घोषणाएं हैं। हालांकि ये दोनों मुद्दे भाजपा के घोषणा पत्र में शामिल थे। अब मीडिया के एक वर्ग में यह सूचना प्रसारित की जा रही है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाया जाएगा, पूर्वांचल और बुंदेलखंड भी अलग राज्य बनेंगे। दूसरी तरफ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर, सहारनपुर और पीलीभीत जिलों को उत्तराखंड में शामिल किया जाएगा। यूपी के इन तीन जिलों को उत्तराखंड में शामिल करने की मांग करते हुए कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.केएस राना ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा है।
बिजनौर और सहारनपुर में तो उत्तराखंड में शामिल होने के लिए एक लंबे समय तक आंदोलन भी होता रहा है। बिजनौर के 66 गांवों को उत्तराखंड में शामिल करने का एक संकल्प उत्तराखंड की विधानसभा में लंबित भी है। यह संकल्प तब कांग्रेसी और अब भाजपा में मंत्री हरक सिंह रावत ने पेश किया था। उत्तराखंड राज्य गठन के दौरान जब हरिद्वार को उत्तराखंड में शामिल करने का निर्णय हुआ तो कुछ नेताओं ने हरिद्वार को उत्तराखंड से अलग करने के लिए एक आंदोलन भी चलाया था। हरिद्वार को जिस तरह उत्तराखंड में शामिल होने का लाभ मिला, हरिद्वार की जनता ने इन आंदोलन करने वाले नेताओं को दूध में पड़ी मक्खी की तरह उठाकर दूर फैंक दिया। उत्तराखंड बनने का सबसे अधिक लाभ हरिद्वार को ही मिला है।
क्या भाजपा की केंद्र सरकार ऐसा करने जा रही है? या यह कुछ पहाड़ विरोधी नेताओं, चिंतकों, कथित बुद्धिजीवियों की उलटबासी है? जो पहाड़ के अस्थित्व को पूरी तरह से समाप्त करने के ख्वाब पाले हुए हैं?
इन कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति महाशय को उत्तराखंड की जमीनी हालातों के बारे में जानकारी है? सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2011 की जनगणना के बाद पहाड़ के 800 से अधिक गांव जनशून्य हुए हैं। यह क्रम साल दर साल बढ़ता जा रहा है। वर्तमान में राज्य का 85 प्रतिशत भू भाग होने के बावजूद पहाड़ का प्रतिनिधित्व लोक सभा-विधानसभा में 50 प्रतिशत से कहीं नीचे आ गया है। जिस उत्तराखंड के आत्मनिर्भर होने और विकास की चिंता में यह महाशय राना चिंतित दिखाई दे रहे हैं, विभिन्न समय पर उत्तराखंड की सरकारों का दावा है कि यह राज्य देश के सबसे अधिक विकास करने वाले छह इलीट राज्यों में शामिल है। यहां प्रति व्यक्ति आय देश के औसत से ऊपर है। विकास के ये आंकड़े सिर्फ दो पूर्ण मैदानी जिलों हरिद्वार, उधमसिंह नगर दो अर्द्ध मैदानी जिलों देहरादून और नैनीताल की कृपा से छुए गए हैं। इन उन्नीस सालों का प्रत्यक्ष अनुभव है कि मैदान ने पहाड़ की कीमत पर अपना विकास किया है। सीडी रेशियो पहाड़ी जिलों में 28 से लेकर 35 प्रतिशत तक है। मैदान के चार जिलों में इससे कहीं ऊपर है। मतलब कि बैंकों में जमा पहाड़ करेगा, उपभोग मैदान करेगा। प्रति व्यक्ति आय से लेकर विकास दर तक मैदान लगातार छलांग लगाता जा रहा है। पहाड़ पिछड़ता जा रहा है। तीन और मैदानी जिलों को उत्तराखंड में शामिल कर राना साहब पहाड़ के बचे खुचे संसाधनों को उनके हवाले करना चाहते हैं और पहाड़ के ताबूत पर आखिरी कील ठोकना चाहते हैं?
कुमाऊं विश्वविद्यालय के एक कुलपति प्रो.डीडी पंत हुआ करते थे। जिन्होंने गोविंद बल्लभ पंत, हेमवती नंदन बहुगुणा, नारायण दत्त तिवारी के चंगुल से उत्तराखंडियों को बाहर झांकने की खिड़की दिखाई थी। उसके बाद ही 1994 का विशाल उत्तराखंड आंदोलन खड़ा हुआ था और उत्तराखंड राज्य बनने की राह तैयार हुई थी। एक यह इसी कुमाऊं विश्व विद्यालय के कुलपति केएस राना हैं, जो उत्तराखंड को, पहाड़ को पूरी तरह से मटियामेट करने के मंसूबे पाले हुए हैं।
यदि केएस राना बुद्धिजीवी हैं, उन्होंने उत्तराखंड जैसे विकट परिस्थितियों में घिरे हिमालयी राज्य के मामलों में हस्तक्षेप करने की कोशिश की है, तो उन्हें हिमाचल के दिग्दर्शक वाईएस परमार के बारे में जानना चाहिए। सन् 1971 में जब हिमाचल प्रदेश केंद्र शासित प्रदेश से पूर्ण राज्य बनने की ओर अग्रसर हो रहा था, वाईएस परमार ने अपनी पार्टी की केंद्र सरकार के सामने नाराजगी जताई कि केंद्र शासित प्रदेश तक तो ठीक था, लेकिन अलग राज्य बनने पर हिमाचल प्रदेश में कोई मैदानी भाग नहीं होना चाहिए। गौरतलब है कि तब पेप्सू हिमाचल प्रदेश का हिस्सा था। राज्य बनने से पहले संशोधन कर केंद्र सरकार ने पेप्सू को पंजाब में मिलाने का निर्णय लिया और हिमाचल प्रदेश एक पूर्ण पर्वतीय राज्य बन गया। जिसका परिणाम यह हुआ है कि एक वास्तविक धरातल पर खड़ा, फल उत्पादन के लिए ख्यात और गांवों के पलायन से अप्रभावित राज्य हिमाचल बन पाया। यह नहीं कह सकते कि हिमाचल प्रदेश में पलायन नहीं है। सामान्य पलायन तो प्रकृति का नियम है। देहरादून, दिल्ली, मुंबई से भी पलायन होता है। लेकिन पलायन के बाद उत्तराखंड के पहाड़ों की जो तस्वीर सामने आ रही है, वह पलायन नहीं उजाड़ है।
प्रो.केएस राना बिजनौर, सहारनपुर को उत्तराखंड में शामिल करने वाले आंदोलन की उपज तो नहीं हैं? इन 19 सालों में यह होता रहा है कि उत्तराखंड के अंदर महत्वपूर्ण पदों पर उत्तराखंड विरोधियों की ताजपोशी होती रही है। वे तातकतवर बनकर उभरते रहे हैं और उत्तराखंड का अहित करते रहे हैं। प्रो.केएस राना उसी कैटागिरी के अफसर लगते हैं। अब जरूरत इस बात की है कि इस तरह के अफसरों को उत्तराखंड से भगाने की मुहिम शुरू की जाए।
हिन्दी वैब पत्रिका ‘उत्तराखंड समाचार’ से साभार