चुनाव सर पर हैं। उत्तराखंड में तो मतदान होने में दो सप्ताह से भी कम समय रह गया है। उसके बाद यहाँ के बुद्धिमान लोग डेढ़ माह तक च्युइंग गम की तरह चुभला-चुभला कर नई सरकार के बारे अटकलें लगाते हुए बतरस का आनन्द लेंगे। लेकिन जमीन पर आम जनता में चुनाव को लेकर कोई उत्साह दूर-दूर तक नहीं है। इसकी तुलना 1962 के तीसरे आम चुनाव से करें तो ताज्जुब होता है। तब कितना उत्साह था ? जनता अपना भविष्य गढ़ने के लिये कितनी लालायित रहती थी ? अरबों रुपये के महा व्यापार में बदल गये इस तथाकथित लोकतंत्र के प्रति यह मोहभंग अकारण नहीं है। चार माह पूर्व उत्तराखंड में निकाय चुनाव हुए थे। तब प्रत्याशियों के स्तर पर भी सक्रियता थी और मतदाताओं के स्तर पर भी। इस वक्त वह सक्रियता नदारद है। उत्साह सिर्फ मीडिया में है। सबसे ज्यादा वह चिल्ला-चिल्ला कर कान फोड़ने वाले टी.वी. के न्यूज चैनलों में है। चुनाव को लेकर जबरन पन्ने भरने वाले अखबार इन चैनलों से थोड़ा ही पीछे हैं। मीडिया की यह सक्रियता समझी जा सकती है। आम चुनाव विज्ञापनों और पेड न्यूज के रूप में पैसा बटोरने के कुम्भ हैं। बेहिसाब काले धन, जिसे आमूल खत्म करने के वादे पर हमारे वर्तमान बड़बोले प्रधानमंत्री सत्तानशीं हुए थे, को ठिकाने लगा कर पुण्यलाभ का इस बेहतर अवसर लोकतंत्र में दूसरा नहीं है। चुनाव के बाद नये सिरे से पैसा बटोरने के शानदार अवसर पैदा होते हैं। मीडिया के अतिरिक्त सोशल मीडिया में भी ‘न सूत न कपास, जुलाहों में लठ्ठम लठ्ठा’ की तर्ज पर अनावश्यक बहस है। पिछली बार सोशल मीडिया के इस रण में मोदी को वॉक ओवर मिला था। इस बार ‘वामियों’ और ‘खांग्रेसियों’ ने ‘फेंकू के भक्तों’ को बराबरी की लड़ाई में उलझा रखा है। इस सबके बीच सामान्य जनता टुकुर-टुकुर देख रही है। उसका बस चले तो वह सभी दलों को ‘नोटा’ के डस्टबिन में डाल कर अपनी भड़ाँस निकाल ले। मगर उस विकल्प का प्रचार करने के लिये तो कोई आगे आ ही नहीं रहा है।