हादिया ने इस्लाम अपनाने का फैसला किया (चाहे कारण जो भी हों), तो उस फैसले का सम्मान होना चाहिए. उसे कोई भी कानून इससे नहीं रोक सकता. कोई भी कानून उसे शादी करने से भी नहीं रोक सकता और अपने पति के साथ रहने से भी नहीं. हादिया को ये फैसले लेने के अधिकार हमारा संविधान देता है. हमें हर हाल में उसके साथ खड़ा होना चाहिए. लेकिन हादिया को मोहब्बत का प्रतीक भी कत्तई मत कहिये.
अंतर-धार्मिक/जातीय विवाह में अमूमन पहले मोहब्बत होती है, फिर शादी और फिर धर्मांतरण. कई बार धर्मांतरण नहीं भी होता. लेकिन हादिया का मामला ऐसा कत्तई नहीं है. इस मामले में सबसे पहले धर्मांतरण ही हुआ, फिर शादी और फिर शायद प्यार हुआ हो. धर्मांतरण के वक्त तो हादिया शफीन (जिससे बाद में उसकी शादी हुई) को जानती भी नहीं थी. बल्कि शादी से पहले तक भी वह शफीन को नहीं जानती थी. ये शादी एक इस्लामिक संस्था ने करवाई थी. शफीन खुद भी इस इस्लामिक संस्था से जुड़ा था.
जो लोग सुप्रीम कोर्ट के कल के फैसले को हादिया की जीत मानकर खुश हो रहे हैं, सबसे पहले वो ये जान लें कि ये हादिया की जीत नहीं है. हादिया चाहती है कि उसे अपने पति के पास जाने दिया जाए. वो एक बालिग़ लड़की है और उसकी ये मांग बिलकुल जायज़ भी है. वो जिसके साथ चाहे, रहने को स्वतंत्र है. लेकिन कोर्ट ने ऐसा नहीं किया. कोर्ट ने उसे उसके कॉलेज भेज दिया और वहां के डीन को उसका अभिभावक बना दिया. कल तक हादिया अपने पिता की कैद में थी. अब डीन की कैद में रहेगी. इसलिए ये हादिया की जीत नहीं है. उसकी जीत उस दिन होगी जिस दिन वो अपनी इच्छा से जहां चाहे वहां रह सके.
इस मुद्दे पर पोस्ट इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि इसमें बहुत कुछ गड-मड हो गया है. एक तरफ कई लोग हादिया को मोहब्बत का प्रतीक मान रहे हैं तो दूसरी तरफ कई लोग उसे लव जिहाद का शिकार मान रहे हैं. जबकि मामला इन दोनों से अलग है. ये मामला पूरी तरह से धार्मिक कट्टरपंथ का है. लेकिन ये कट्टरपंथ देश के एक नागरिक (हादिया) के मौलिक अधिकारों की आड़ लेकर आया है. मैं सिर्फ इसलिए हादिया के साथ हूं क्योंकि उससे उसके मौलिक अधिकार किसी हाल में नहीं छीने जाने चाहिए. वह एक बालिग़ लड़की है. वह जिस धर्म को चाहे अपना सकती है, जिससे चाहे शादी कर सकती है. इससे उसे कोई नहीं रोक सकता. न उसके माता-पिता और न ही देश की कोई अदालत. मैं उसके संवैधानिक अधिकारों के पक्ष में हूं इसलिए उसके साथ हूं.
लेकिन मेरे लिए हादिया कोई आदर्श या किसी संघर्ष का प्रतीक नहीं है. जिस तरह पंडों/मौलवियों के बहकावे में आकर या अन्य कारणों से भी कई लोग धर्म के प्रति आकर्षित होकर जनेऊ/चोटीधारी हो जाते हैं, पत्थर पर घिस-घिसकर अपना माथा काला करने लगते हैं और क़यामत के दिन फैसला होने या पुनर्जन्म में फल मिलने की उम्मीद लगाने लगते हैं, उसी तरह हादिया भी है जो एक धर्म की तरफ आकर्षित हुई और उसने उसे अपना लिया.
अब सवाल ये कि हादिया का मामला जब एक मामूली धर्मांतरण का था तो इस पर इतना बवाल क्यों? इसके लिए पहले हादिया की कहानी समझ लीजिये. केरल की रहने वाली हादिया होमियोपैथी की पढ़ाई के लिए तमिलनाडु गई. वहां उसकी दोस्ती कुछ मुस्लिम लड़कियों से हुई. उसका इन लड़कियों के घर आना-जाना भी बढ़ा और वह इस्लाम की तरफ आकर्षित हुई. उसके घर पर जब इस बात का पता चला तो घर में कुछ नोक-झोंक भी हुई.
कुछ समय बाद हादिया (पुराना नाम अखिला) अपने कॉलेज में हिजाब पहन कर पहुंची. किसी ने उसके पिता को इसकी जानकारी दी. उन्होंने हादिया से बात करना चाहा लेकिन हादिया का कुछ पता नहीं चला. उसके पिता ने कॉलेज में पता किया लेकिन हादिया कॉलेज से कहीं जा चुकी थी. तब हादिया के पिता ने केरल हाई कोर्ट में एक याचिका (habeas corpus) दाखिल की. कुछ दिनों बाद हादिया कोर्ट पहुंची और उसने बताया कि वह इस्लाम धर्म अपना चुकी है और अब अपने घरवालों के साथ नहीं रहना चाहती. कोर्ट को ये बात सामान्य लगी. उसे उसकी इच्छा अनुसार रहने की अनुमति मिल गई और उसके पिता की याचिका ख़ारिज कर दी गई. हालांकि कोर्ट ने ये भी कहा कि हादिया के माता-पिता जब चाहे उससे मिल सकते हैं.
अब हादिया सत्य-सारणी नाम की एक संस्था में रहने लगी. इस संस्था का काम है गैर-इस्लामिक लोगों के बीच इस्लाम का प्रचार करना. कई बार इस संस्था पर जबरन धर्मांतरण के आरोप भी लग चुके हैं, हादिया के धर्मांतरण में भी इसकी अहम् भूमिका थी. हादिया यहां रह रही थी और उसके पिता समय-समय पर उससे मिलते थे. लेकिन लगभग छह महीने बाद हादिया यहां से भी कहीं चली गई. करीब एक महीने तक जब हादिया का कोई पता नहीं चला तो उसके पिता फिर से हाई कोर्ट पहुंचे. इस बार उन्होंने संदेह जताया कि उनकी बेटी को सीरिया भेजा जा सकता है जैसा कि पिछले कुछ समय में क्षेत्र की अन्य लड़कियों के साथ भी हुआ है.
मामला कोर्ट में फिर से शुरू हुआ. कोर्ट ने हादिया पर निगरानी रखने के निर्देश दिए और उसे एक हॉस्टल भेज दिया (बिलकुल ऐसे ही जैसे अब सुप्रीम कोर्ट ने भेजा है). लेकिन कुछ समय बाद हादिया के वकील ने कोर्ट को भरोसा दिलाया कि वह हर सुनवाई पर कोर्ट पहुंच जाएगी बस उसे अपनी इच्छा से रहने की अनुमति दे दी जाए. कोर्ट ने अनुमति दे दी और हादिया सैनाबा नाम की महिला के साथ रहने लगी. यह महिला भी इस्लामिक संस्था से ही जुडी हुई थी.
मामला कुछ दिन और चला तो हादिया के पिता ने कोर्ट से मांग की कि उसे पढ़ाई पूरी करने के लिए कॉलेज भेज दिया जाए. कोर्ट को यह मांग जायज़ लगी. कोर्ट ने हादिया के पिता से कहा कि दो दिन बाद वे हादिया के सारे सर्टिफिकेट लेकर कोर्ट आएं और हादिया के वकील से कहा कि दो दिन बाद हादिया भी कोर्ट आए ताकि उसे उसके कॉलेज भेजा जा सके. ये 19 दिसंबर 2016 की बात है. अब 21 दिसंबर को हादिया को कॉलेज भेजा जाना था. लेकिन 21 तारीख को हादिया एक आदमी के साथ कोर्ट पहुंची और उसने बताया कि दो दिन पहले उसने इस आदमी से शादी कर ली है. यानी 19 तारीख को जब कोर्ट हदिया को कॉलेज भेजने की बात कर रहा था, उसी दिन हादिया की शादी हो रही थी. लेकिन ये बात कोर्ट को नहीं बताई गई. यहीं से कोर्ट को इस मामले में ज्यादा गड़बड़ी होने की आशंका हुई. कोर्ट ने इस शादी को रद्द कर दिया और हादिया को उसके माँ-बाप के पास वापस भेज दिया.
गौर करने वाली बात ये भी है कि इस शादी से पहले शफीन (हादिया का पति) का इस मामले में कहीं कोई जिक्र नहीं था. हादिया शादी से पहले उसे जानती भी नहीं थी. सैनाबा नाम की जिस महिला के साथ हादिया रह रही थी और जिसके घर में हादिया की शादी करवाई गई, उस महिला के बारे में कोर्ट में ये भी आरोप लगे कि उसने पहले भी ऐसा किया है. सरकारी वकील ने कोर्ट को बताया कि कुछ समय पहले भी एक हिन्दू लड़की का ऐसे ही धर्मांतरण हुआ था और जब मामला कोर्ट पहुंचा तो सैनाबा ने उसकी शादी एक मुस्लिम लड़के से करवा दी ताकि कोर्ट धर्मांतरण पर कोई सवाल न उठा सके.
कहानी समझ आ गई? अब दूसरे मुद्दे की बात पर आते हैं…
इस बात पर जरूर सवाल उठाए जा सकते हैं कि कोर्ट ने शादी रद्द करने का फैसला सही किया या गलत. कानूनी (या किसी भी) नज़रिए से देखने पर यह फैसला गलत ही ज्यादा लगता है. हादिया बालिग़ है और उसका मानसिक संतुलन भी ठीक है. इसलिए वह अपने फैसले लेने के लिए स्वतंत्र है. लिहाजा उसकी शादी का फैसला, जब वो कहती है कि यह उसका निजी फैसला है, तो उसका सम्मान होना चाहिए. हाँ, कोर्ट को अगर हादिया के धर्मांतरण से जुड़े कुछ लोगों पर संदेह था (क्योंकि इस्लामिक संगठनों से जुड़े इनमें से कुछ लोगों पर आतंकवादी संगठनों के संपर्क में होने के आरोप हैं) तो उनकी जांच के आदेश कोर्ट दे ही सकता था, दिए भी गए. लेकिन शादी रद्द करने का फैसला तब तक सही नहीं लगता जब तक हादिया खुद ऐसा नहीं मानती.
हादिया ने इस्लाम अपनाने का फैसला किया (चाहे कारण जो भी हों), तो उस फैसले का सम्मान होना चाहिए. उसे कोई भी कानून इससे नहीं रोक सकता. कोई भी कानून उसे शादी करने से भी नहीं रोक सकता और अपने पति के साथ रहने से भी नहीं. हादिया को ये फैसले लेने के अधिकार हमारा संविधान देता है. हमें हर हाल में उसके साथ खड़ा होना चाहिए.
लेकिन हादिया को मोहब्बत का प्रतीक भी कत्तई मत कहिये.
मोहब्बत में जाति-धर्म के बंधनों को तोड़कर, समाज के नियम-कायदों को चुनौती देकर जो लोग आगे बढ़ते हैं, वो कट्टरपंथियों को सरेआम तमाचा जड़ते हुए खुद मोहब्बत की मिसाल बनते हैं. हादिया तो खुद कट्टरपंथी संगठनों को मजबूत ही कर रही है. इन संगठनों ने ही उसका धर्मांतरण करवाया, उसकी शादी करवाई और केरल हाई कोर्ट में मंहगे वकीलों का खर्च भी इन्हीं धार्मिक संगठनों ने उठाया.
लेकिन इस सब के बावजूद भी उसका जीतना इसलिए जरूरी है क्योंकि अगर हादिया हारेगी तो ये देश के संविधान की भी हार होगी.
(राहुल कोटियाल, सत्याग्रह के साथ जुड़े पत्रकार हैं. यह आलेख उनकी फेसबुक वॉल से लेकर साभार प्रकाशित किया जा रहा है।)