जीवन गहतोड़ी
सच मे गिर्दा! तुम्हारी बीडी के धुएँ की कसर ना
इस धूल भरी आंधी ने पूरी कर दी!
तुमने सच कहा था, बहुत मुश्किल होता है, किताबो में खोना
वह ख्वाब ख्वाब देखना, और हकीकत में किसी ख्वाब को जीना तुमने आज वह तमन्ना भी पूरी कर दी।
तुम सच में बहुत याद आ रहे हो
वो नैनीझील तो नही है, पर सागर जरूर है।
बोट हाउस क्लब के गार्डन की बेंच तो नहीं है पर
सड़क किनारे का पैराफीट जरूर है।
शारदा संघ से आता मधुर संगीत तो नही है पर
बारात के आने से बजते ढोल की थाप जरूर है।
तुमने आज सच में ऐसी चाल चल दी
हकीकत की झोली, ख्वाबो से ही भर दी।
झोला लटकाऐ तुम ठंडी सड़क से अनायास नहीं गुजरे ,
मेरे हृदय में पल-पल ऐसे भाव जरूर उपजे।
तुम पीछे से आते पूछोगे ,यहाँ क्यों बैठा है भूला/ च्याला
ना तुम आपे, ना ख्वाब आया, बस बेबसी ने चादर कस ली
मई में ही, दिसम्बर ने अपनी कसर पूरी कर ली।
ईजा से आधा सच बोल के गया था, सपनो मे जैसे उलझ सा गया था।
जिन्दगी ने अब तक उलझाया ही था, आज सचमुच निकल गया था।
तुम्हारी आहट ने कई बार एहसास कराया यथार्थ का गिर्दा ,
मैं समझ ही नहीं पापा, पर्दा हिजाब का गिर्दा,
सच में आप कितने हेतु बने हो मेरे भावों का
एकलौता सेतु बने हो मेरे धावो का
पर सच कहता हूँ, स्वीकारना बहुत मुश्किल होता है,
हर क्षण बिखरते अंगारों को, जो ठन्डे होकर भी वैसी ही तपिस देते है।
इस भाव मे ‘आज मे लिख देना चाहता हूँ, वो अंतिम पंक्तिया गर्दा जो मेरे अन्दर तक समायी है, मेरे अपने की तरह
और हर क्षण मेरा प्रतिविम्व ले आती है सामने, और कहती है मुझसे,
तू अधूरा ही है, इन सब किताबों के बिना।
हकीकत में जी, ये सब ख्वाब है। सबके हृदय नही इतने साफ है। जीवन भर इन्ही किताबों पर जिया हूँ गिर्दा, हसते, गाते, रोते ,सोते जागते, इन्ही का सहारा लिया है।
लिखने का साहस और लहला तो नहीं है मुझमे
पर हारना तुमने भी तो नहीं सिखाया, आखिरी दम तक..
तुमको देखा है, तुमसे सीखा है, तुमको जिया है, तुम्हारे शब्दो को पिया है,
आज वह शब्द अन्दर तक बूँद-बूँद रिश रहे है गिर्दा,
जैसे प्लासटिक मे रखा अम्ल धीरे-धीरे परत दर परत रिसने को बैचेन हो, और बाहरी आवरण, आडम्बर करे अपनी संग्रहण क्षमता का ।
जून की छुट्टियाँ कैन्सिल गिर्दा ,नही जाऊगा पहाड़ो को।
नही जाऊगा उस पहाड़ की मिट्टी की खुसबू मे, जो मुझे
फिर जिन्दा करने को आमादा रहेगी, मैं कोशिश करुगा इस मौन को शब्दों में गड़ने की।
इस निराशा में आशा की किरण लाने की,
बिना मन के भी वो करने की जिसकी तुम कभी इजाजत ही नही देते थे किसी को।
मैं पूरे आवेश से चाहे कितना भी आगे चलूँ
पल भर में वो सच्चाई मुझे वही खडा कर देती है,
जहाँ जमीन नहीं होती पर खड़ा होना होता है, निरन्तरता के साथ।
ख्याब और हकीकत के बारीक फर्क को तुम
इतने बारीक ढंग से समझा गये ना,
उस बारीक फर्क में भी मैंने पूर्णता के भाव को ढूंढ लिया गिर्दा
पहली बार लाए, कि अब ख्वाब व हकीकत साथ-साथ चलेंगे पर
ख्वाबों में इतनी ताकत नही होती गिर्दा,
उन्हें हकीकत
के कंधे पर हाथ रखना ही होता है।
पर तुमने कभी नही रखा,
ऐसा जीवन जिया, ख्वाब परेशान होंगे
हैरान होंगे, कि किसी ने कैसे मुझे चुनौती दी, वो भी ऐसे समय में जब लोग याचक बन जाते है उसी हकीकत के,
एक और नजरिया याद आता है ऐसे में,
वो है एकाकी, शून्य और विस्मय का
लेखन के कौशल का, और शक्ति के समर्थन का
आंदोलन के दर्द का, भाव के अनुमेह का, विरह के सुख का
स्वयं के दर्द से तुम्हारे आनंद का
ये वो हकीकत है, जो सब नहीं जी पाते
पर बड़ चुके पथ में जब एहसास करते है उसका
तब ना शब्द होते है, ता अर्थ, में जीयूंगा ऐसा ख्वाब,
करुगा सत्य का पीक्षा पर वादा करो
तुम फिर याद आओगे गिर्दा !
मेरे ख्वाब, का मेरे भाव का हेतु बनने,
मेरे दर्द का सेतु बनने।।