ललित मौर्य
हाल ही में यूनिवर्सिटी ऑफ ससेक्स द्वारा किए अध्ययन से पता चला है कि वित्तीय संकट की वजह से वनों के बढ़ते विनाश की दर में करीब 36 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है।
अपने इस अध्ययन में वनों के बढ़ते कटाव पर वित्तीय संकट के प्रभाव को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 21वीं सदी के दौरान 2001 से 2017 के बीच 150 देशों में आए 100 से भी ज्यादा वित्तीय संकटों और वनों के विनाश सम्बन्धी आंकड़ों का विश्लेषण किया है।
शोध में वन विनाश सम्बन्धी आंकड़े ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच (जीएफडब्ल्यू) द्वारा उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों पर आधारित हैं।
इतना ही नहीं, जर्नल सस्टेनेबिलिटी साइंस में प्रकाशित इस शोध से यह भी पता चला है कि न केवल इसकी वजह से वन विनाश की दर में गिरावट दर्ज की गई है साथ ही इसकी वजह से वनों की कटाई को प्रेरित करने वाले कारकों जैसे टिम्बर, पाम आयल, मवेशी, सोयाबीन, कॉफी, कोको उत्पादन आदि में भी गिरावट देखी गई थी।
शोधकर्ताओं के मुताबिक हालांकि वैश्विक स्तर पर वित्तीय अस्थिरता के चलते वन विनाश में गिरावट दर्ज की गई थी, पर गिरावट की यह दर अलग-अलग क्षेत्रों के आधार पर भिन्न-भिन्न थी।
गौरतलब है कि अस्थिरता के इस दौर में एशिया, अफ्रीका स्थित और वित्तीय रूप से कमजोर देशों में इसका प्रभाव कहीं ज्यादा व्यापक था। पता चला है कि वित्तीय संकट कम आय वाले देश में वन विनाश की दरों को कहीं अधिक प्रभावित करेगा, क्योंकि उन देशों में ज्यादातर वन विनाश वस्तुओं की मांग पर आधारित होता है।
शोध के मुताबिक जहां फर्नीचर के लिए उपयोग होने वाली राउंडवुड में वित्तीय संकट के दौरान 6.7 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई थी। वहीं मवेशियों में 2.3 फीसदी और कोको उत्पादन में भी 8.3 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई थी।
यदि क्षेत्रीय तौर पर देखें तो जहां वित्तीय संकट की वजह से एशिया में होते वन विनाश में 83 फीसदी की गिरावट आई थी वहीं अफ्रीका में यह गिरावट 43 फीसदी और यूरोप में 22 फीसदी गिरावट देखी गई थी। कुल मिलकर वैश्विक स्तर पर वित्तीय संकट के चलते 2001 से 2017 के बीच वनों की कटाई में 36 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई थी।
वहीं यदि देशों की आय के आधार पर देखें तो जहां वित्तीय संकट के दौरान आर्थिक रूप से कमजोर देशों में वनों की कटाई में 51 फीसदी की गिरावट आई थी वहीं मध्यम से उच्च आय वाले देशों में यह गिरावट 39 फीसदी और उच्च आय वाले देशों में केवल 18 फीसदी ही थी।
देखा जाए तो संयुक्त राष्ट्र ने भी वित्तीय संकट को वैश्विक विकास के एजेंडे के लिए खतरा माना है। हमें समझना होगा कि हम पर्यावरण पर बढ़ते प्रभाव को सीमित करने के लिए केवल आर्थिक गतिविधियों में कमी के भरोसे नहीं रह सकते।
इस बारे में शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता अलेक्जेंडर एस एंटोनारकिस का कहना है कि हम वित्तीय उछाल के दौर में पर्यावरण का शोषण नहीं कर सकते। हमें हमारे मौजूदा अर्थिक मॉडल के बारे में दोबारा सोचने की जरुरत है। इसके लिए हमें ऐसे आर्थिक मॉडल की जरुरत होगी जिसमें शाश्वत विकास और इकोसिस्टम को बनाए रखने पर जोर दिया गया हो।
उनके अनुसार ऐसा ही कुछ कोरोना महामारी के दौरान देखने को मिला था जब आर्थिक गतिविधियों में आई कमी के चलते पर्यावरण को दोबारा फैलने फूलने का मौका मिला था। लॉकडाउन के कारण दुनिया के कई देशों में थोड़े समय के लिए ही सही वायु प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में गिरावट दर्ज की गई थी।
हालांकि इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र ने घोषणा की है कि महामारी ने पर्यावरण के क्षेत्र में हुई प्रगति को पलट दिया है। भूमि क्षरण अभी भी जारी है, बड़ी संख्या में जीवों और प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। इसके साथ ही बेतहाशा उत्पादन और खपत अभी भी जारी है।
उनके अनुसार जो निष्कर्ष सामने आए हैं वो वित्तीय संकट के दौरान वन-विनाश में आई एक अस्थाई राहत की ओर इशारा करते हैं। फिर भी वनों के शाश्वत विकास के लिए वन प्रबंधन को बढ़ावा देने की जरुरत है, जिससे आर्थिक विकास और संसाधनों के बढ़ते हनन के बीच की कड़ी को तोड़ा जा सके। साथ ही संकट से उबरने के बाद भी यह अवधारणा राष्ट्रीय एजेंडा से अलग न हो इसका ध्यान रखना होगा।
10 करोड़ हेक्टेयर प्रति दशक की दर से नष्ट हो रहे हैं जंगल
यदि संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी रिपोर्ट स्टेट ऑफ द वर्ल्ड फॉरेस्ट्स के आंकड़ों को देखें तो दुनिया में 31 फीसदी से ज्यादा भूमि पर वन हैं। जो न केवल जैवविविधता, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन बल्कि साथ ही खाद्य सुरक्षा के दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण हैं। यह जंगल पेड़-पौधों की अनगिनत प्रजातियों का घर हैं।
रिपोर्ट के अनुसार यह जंगल उभयचर जीवों की करीब 80 फीसदी, पक्षियों की 75 फीसदी और स्तनपायी जीवों की 68 फीसदी प्रजातियों को आवास प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं यह वन खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के असर को भी सीमित करने में मदद करते हैं।
वहीं यदि इन जंगलों के बढ़ते विनाश की बात करें तो 1990 से लेकर अब तक करीब 42 करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र नष्ट हो चुके हैं, जिसके लिए भूमि उपयोग में तेजी से आता बदलाव जिम्मेवार है। जिस तरह से कृषि और शहरों का विस्तार हो रहा है उसके चलते इन वनों का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। पता चला है कि 2015 से 2020 के बीच दुनिया भर में वन क्षेत्र एक करोड़ हेक्टेयर प्रति वर्ष की दर से नष्ट हो रहें हैं। हालांकि वन विनाश की यह दर 90 के दशक में 1.6 करोड़ हेक्टेयर प्रति वर्ष थी।
इसी को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्रे ने 2017 से 30 के लिए वनों को ध्यान में रखते हुए रणनीतिक योजना बनाई है। जिसका मकसद स्थाई वन प्रबंधन को बढ़ावा देना और 2030 के सतत विकास के लक्ष्यों में वनों और वृक्षों के योगदान को बढ़ावा देना है। इसके तहत 2030 तक वन क्षेत्र में 3 फीसदी का इजाफा करने का लक्ष्य रखा गया है। हाल ही में वनों के बढ़ते विनाश को रोकने के लिए दुनिया के 105 देशों ने ‘ग्लास्गो लीडर्स डिक्लेरेशन ऑन फॉरेस्ट्स एंड लैंड यूज’ पर हस्ताक्षर किए थे, जिससे इन जंगलों को बचाया जा सके।
‘डाउन टू अर्थ’ से साभार