नवीन जोशी
पिछले वर्ष सुंदरलाल बहुगुणा के रूप में उत्तराखण्ड, हिमालय और देश-दुनिया ने एक दृढ़ संकल्पवान गांधीवादी पर्यावरण-योद्धा खो दिया था। उन्होंने अपनी यात्राओं, लेखों-भाषणों, अनशनों-आंदोलनों और जीवन-शैली से कई पीढ़ियों को प्रभावित किया। उनका न रहना एक ईमानदार एवं समर्पित हिमालय हितैषी का न रहना है। पिछले दिनों बहुगुणा जी की स्मृति में उनकी पत्नी विमला बहुगुणा एवं सुंदरलाल बहुगुणा पर्यावरण संरक्षण एवं शोध संस्थान ने ‘संकल्प के हिमालय’ नाम से स्मृति-ग्रंथ प्रकाशित किया है। उनकी बेटी मधु पाठक के सम्पादन में प्रकाशित इस ग्रन्थ में उनके परिवारीजनों, सम्बंधियों, आंदोलन के सहयोगियों-कार्यकर्ताओं, शिष्यों, गांधीवादी संस्थाओं के प्रतिनिधियों और पर्यावरणविदों के स्मृति लेख हैं- 63 हिंदी में और 22 अंग्रेजी में।
इस ग्रंथ को पढ़ना बहुगुणा जी के ज्ञात-अल्पज्ञात जीवन-प्रसंगों, संकल्पों, आंदोलनों, प्रभाव-क्षेत्रों और प्रेरक व्यक्तित्व से प्रभावित होते चलना है। विमला बहुगुणा जी ने, जिन्होंने सुंदरलाल जी से विवाह ही इस शर्त पर किया था कि वे राजनीति (वे तब कांग्रेस में जिला स्तरीय पदाधिकारी थे) से सदा के लिए मुंह मोड़कर समाज सेवा में प्रवृत्त होंगे, उनके पारिवारिक और सामाजिक जीवन पर बिना भावुक हुए गहरी अंतदृष्टि से लिखा है। सुंदरलाल बहुगुणा को दुनिया जिस रूप में जानती है या दुनिया के कम जानते हुए भी जो-जो जमीनी काम उन्होंने किए, उस व्यक्तित्व को गढ़ने में विमला जी का ही पूरा योगदान है। विमला जी ने यह संकल्प और जीवन-दृष्टि सरला बहन की शिष्या के रूप में लक्षी आश्रम, कौसानी में पढ़ते-रहते हुए पाई थी। फिलहाल उनका यह लेख श्रद्धाजंलि स्वरूप है, भविष्य में उनसे विस्तार से इस पर लिखने की अपेक्षा की जानी चाहिए, बल्कि आग्रह। सुंदरलाल जी ने भी विमला जी के इस योगदान को स्वीकार किया था, जैसा कि राधा भट्ट दीदी ने अपने लेख में उनको उद्धृत किया है- “मैं विमला के बल पर खड़ा हूं। मैं झण्डा हूं, सबको दिखाई देता हूं पर झण्डे को फहराने वाला डंडा तो विमला का है।”
मेधा पाटकर ने बहुगुणा जी को बड़े बांधों के विरोध और नर्मदा आंदोलन में उनकी भागीदारी के संदर्भ में दिल से याद किया है। लम्बे समय तक बहुगुणा जी के सहयोगी रहे धूम सिंह नेगी, प्रसिद्ध लेखक और बहुगुणा जी के निकट सम्बंधी विद्यासागर नौटियाल, सुशीलचंद्र डोभाल, सदन मिश्र, कुंवर प्रसून, भतीजी डॉ प्रज्ञा पाठक और आंदोलनकारी समीर रतूड़ी के लेख सुंदरलाल जी के विचार, व्यवहार और योगदान पर गहरी नजर डालते हैं। 13 साल की उम्र में श्रीदेव सुमन से प्रभावित होकर टिहरी राजशाही के विरुद्ध बगावती तेवर अपनाने से लेकर बाद के सर्वोदयी-गांधीवादी नेता के रूप में उनके विविध सामाजिक एवं निजी प्रयोगों, विचार-व्यवहार और आंदोलनों के बारे में बहुत-सी जानकारियां सामने आती हैं। उनके शिष्यों अथवा उनके सहयोग से जीवन में ऊंचे मुकाम हासिल करने वालों में चंद्र सिंह का लेख बहुगुणा जी के बहुत कम जाने गए पक्ष पर प्रेरक रोशनी डालता है। एक दर्जी-बाजगी परिवार में जन्मे चंद्र सिंह को बहुगुणा जी ने कैसे 25 किमी पैदल जाकर, उनके गांव से लाकर टिहरी के ठक्कर बापा छात्रावास में डाला और आगे तक ऐसी राह दिखाई कि एक दिन चंद्र सिंह प्रशासनिक सेवा में पहुंचकर टिहरी नरेश की उस कुर्सी पर जिलाधिकारी की हैसियत से बैठे, जिस पर बैठे राजा ने एक दिन उनके पिता को दुत्कार दिया था जो अपने एक बेटे को स्कूल में भर्ती करा देने के लिए दरबार में गिड़गिड़ा रहा था। यह विडम्बना ही है कि चंद्र सिंह बाद में उस टिहरी बांध के परियोजना निदेशक बने जिसके विरोध में बहुगुणा जी ने अपना जीवन दांव पर लगा दिया था। अपने जीवन में उनके योगदान से विनत चंद्र सिंह यही कर सके कि डूब गए ठक्कर बापा छात्रावास के लिए नई टिहरी में ठीक से जमीन और मुआवजा दिलवा गए। बहुगुणा जी के भक्त रहे प्रशासनिक अधिकारी डॉ प्रदीप कुमार भी टिहरी प्रशासन में दुविधाग्रस्त हो तैनात रहे, जिनके हिस्से टिहरी खाली करवाकर बांध जल्दी बनवाने की जिम्मेदारी आई थी।
बीज बचाओ आंदोलन को समर्पित विजय जड़धारी ने 1979 के बडियारगढ़ के चिपको आंदोलन का विस्तार से जिक्र करते हुए बहुगुणा जी को आत्मीयता के साथ याद किया है। उनके लेख में कुंवर प्रसून की निर्भीकता और धूम सिंह नेगी के योगदान का भी अच्छा विवरण है। कुंवर प्रसून का एक पुराना लेख चिपको के इतिहास पर है। राजीव लोचन साह ने उन्हें ‘नैनीताल समाचार’ के एक प्रेरणा-स्रोत और पत्रकार के रूप में पेश किया है। कुछ लेख मात्र श्रद्धांजलि स्वरूप हैं। सभी लेखों की चर्चा यहां की भी नहीं जा सकती। अंग्रेजी लेखों का उल्लेख नहीं किया जा सका है।
सुंदरलाल जी से असहमतियां और उनसे जुड़े विवाद भी कम नहीं हैं लेकिन स्मृति-ग्रंथ में स्वाभाविक ही नहीं हैं। सम्पादक मधु पाठक ने लिखा भी है- “कुछ ऐसे भी लेख मिले जो आलोचनात्मक रूप से लिखे गए थे। यह उनके लिए उपयुक्त मंच नहीं था। इसलिए मैं उनको शामिल नहीं कर सकी।” इस स्मृति ग्रंथ में शेखर पाठक के लेख की अनुपस्थिति उल्लेखनीय है। आखिर वह बहुगुणा जी ही थे जिन्होंने इस पीढ़ी को सर्वाधिक उप्रेरित किया। ‘अस्कोट-आराकोट’ यात्रा का विचार उनका ही दिया हुआ है, जिसने उत्तराखण्ड को देखने की नई दृष्टि दी और उस टोली के प्रारम्भिक चार युवकों में आज शेखर पाठक ही हमारे बीच हैं और बहुगुणा जी के अत्यंत प्रिय भी रहे हैं। लेकिन सबसे अधिक चौंकाने वाली अनुपस्थिति चंडी प्रसाद भट जी की है, जो प्रारम्भ में बहुगुणा जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले, हालांकि बाद में उनमें विवाद हुए और राहें भी अलग गईं।
जैसे, सुंदर लाल जी जैसे व्यक्तित्वों के होने से गांधी जी की प्रासंगिकता आज तक बनी आई है, वैसे ही सुंदरलाल जी की प्रासंगिकता उनके रोपे पौधों और उनसे प्रेरित पीढ़ियों की सक्रियता से बनी रहेगी।