प्रमोद साह
उत्तराखंड 20 साल :
उपेक्षा और #असंतुलित विकास से फिर बेहाल ! इतिहास खुद को दोहराता है यह बात अगर ऐतिहासिक संदर्भो में देखी जाए तो सामान्य लगती है। लेकिन यह बात जब किसी समाज के साथ घटित होती है, तो इतिहास का यह दोहराव जख्मों को हरे करने जैसा है जो नासूर की संभावना बढ़ा देता है।
20 साल के उत्तराखंड की यह एक बेहद पीढादायक यात्रा है कि उत्तर प्रदेश में विकास और विकास की नीतियों में जिस उपेक्षा और असंतुलन के कारण दूरदराज के कंदराओ में बसे उत्तराखंड वासियों के भीतर एक अलग उत्तराखंड राज्य की मांग उठी और उसे हासिल करने के लिए खुद का जीवन न्यौछावर कर देने की कीमत पर सपनों का जो उत्तराखंड राज्य मिला उसने उन सपनों से धीरे-धीरे खुद ही किनारा कर लिया। उत्तराखंड के 9 पर्वतीय जिलों की स्थिति आज उत्तर प्रदेश के दौर से भी बुरी है. इसे एक भावनात्मक नारे की बजाए हम आंकड़ों की जुबानी इस प्रकार समझ सकते हैं ।
संसाधनो से महत्वपूर्ण है समझ
20 वर्ष का यह पड़ाव, राज्य की विकास यात्रा के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। जहां हमें रुक कर समझना होगा कि हमारे राज्य की दिशा और उसके द्वारा अपनाया गया मार्ग सही है ? उत्तर प्रदेश में अपनी अलग भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान के कारण वर्ष 1897 से अलग-अलग समय में अलग—अलग मंच से पर्वतीय राज्य की मांग पुरजोर तरीके से उठाई गई। राज्य पुनर्गठन आयोग 1955 ने तो अलग भौगोलिक और सांस्कृतिक आधार पर उत्तराखंड राज्य निर्माण की संस्तुति भी कर दी थी लेकिन उस वक्त उत्तर प्रदेश और केंद्र की राजनीति में उत्तराखंड के नेताओं का महत्वपूर्ण दखल था. गोविंद बल्लभ पंत का यह कथन कि उत्तराखंड गंगा जमुना का मायका है इसे विभाजित नहीं किया जा सकता। आयोग की संस्तुति पर भारी पड़ गया, इसलिए यह संस्तुति दरकिनार कर दी गई।
दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियों और सांस्कृतिक विभिन्नता के आधार पर खुद को विकास की दौड़ में पिछड़ा मानते हुए 1994 में अलग राज्य के पक्ष में जो जन आंदोलन खड़ा हुआ उसने 42 के करीब शहादत के बाद 9 नवंबर 2000 को अलग उत्तराखंड राज्य का स्वपन पूरा हुआ। उत्तराखंड राज्य का गठन एक प्रशासनिक निर्णय नहीं था बल्कि यह जनाकांक्षा थी जिस पर सुदूर पर्वतीय चोटी और घाटियों में बसे उत्तराखंड के निवासियों ने न केवल खुद के, बल्कि खुद के विकास का अपनी भावनाओं के अनुरूप स्वप्न देखा, जिसमें विकास की आकांक्षा के साथ स्वयं की अस्मिता को भी उत्तराखंड राज्य के साथ जोड दिया. यह माना जाने लगा कि संघर्षों और दर्जनों शहादत के बाद जिस राज्य का उदय हुआ है । वहां विकास की हर बात और नीति शहीदों के सपनों के आधार पर ही होगी।
उत्तर प्रदेश की पहाड़ों के लिए अप्रासंगिक हो रही नीतियां कल की बात हो जाएंगी। जब यहां के विकास की और नीति की बात होगी तो जरूर बांज और बुराश की पीढा को समझा जाएगा. मडवा, झुंअरा, भट्ट, गहत, राजमा, रामदाना, भांग, सेव, आडू, पुलम, माल्टा, नींबू और नाशपाती यह सब उत्तराखंड राज्य के प्रमुख उत्पाद होंगे। मंडियों में इनका समर्थन मूल्य होगा और हर ब्लॉक और पट्टी में इनकी फसल उगाए जाने की सरकारी योजना और सहायता मौजूद होगी।
पहाड़ की हर घाटी और पंचायत में जो हमारे परंपरागत मेले हैं. वह विकास और बाजार से जुड़ेंगे इन मेंलो से जो बात और बहस निकलेगी वह उत्तराखंड के नीति नियामक को भी प्रभावित करेगी और उन्हें ध्यान में रखकर ही उत्तराखंड की नीतियां बनेगी। कट कॉपी पेस्ट कल की बातें हों जाएंगी। एक नया जमाना, एक नई उम्मीद के साथ नया उत्तराखंड जब अपने कदम बढ़ाएगा, तब गांव-गांव खुशहाली होगी। घाटियों में छोटे-छोटे कस्बे शहरों का रूप ले रहे होंगे, जहां जैसी जगह है वहां वैसे छोटे और मझोले उद्योग अपनी जगह बना रहे होंगे। तब गांव के बच्चे दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों से लौटकर अपनी घाटी के आसपास अपने लिए ठिकाना ढूंढ रहे होंगे। कुछ ऐसे ही ख्वाब और सपनों के साथ उत्तराखंड राज्य का उदय हुआ।
लेकिन राज्य गठन के साथ ही राज्य के पक्ष की समझ के अभाव में यह राज्य अपने जन्म के साथ ही अनाथ होता चला गया। यहां विकास की योजनाओं में पहाड़ों की सुध ही गायब हो गई, ठेकेदारी राज्य की संस्कृति हो गई। विकास की जो कल्पना की गई। वह कुल और कुल 4 मैदानी जनपदों पर केंद्रित होकर रह गई। राज्य को विशेष राज्य के दर्जे के रूप में जो केंद्रीय सहायता मिली उसका 90% से अधिक भाग मैदानी जनपदों में खर्च हुआ, राज्य के पांच “स्पेशल इकोनामिक जोन” भी तीन मैदानी जनपदों में ही स्थापित हुए.
परिणाम स्वरूप आंकड़ों की बाजीगरी में राज्य की तस्वीर बहुत चमकदार हो गई
सन 2000 में 13516 रू प्रति व्यक्ति आय से शुरु यह राज्य 2020 -21 में 1 लाख 98 हजार रूपये वार्षिक अर्थात 15 गुना वृद्धि करने वाला राज्य हो चुका है। राज्य का बजट 3260 करोड़ रूपये से बढ़कर 53526 करोड़ रूपये हो चुका है. राज्य में 50 हजार करोड़ से अधिक का औद्योगिक निवेश हुआ है. राज्य का घाटा 612 करोड रुपए से बढ़कर 7550 करोड़ हो चुका है. और राजस्व का ढांचा तो समझें 77 करोड़ की आबकारी (शराब) का राजस्व बडकर 3405 करोड़ में पहुंच गया है। उस राज्य के शराब के राजस्व में लगभग 45 गुना की वृद्धि हो गई, जहां एतेहासिक “नशा नहीं, रोजगार दो” का आंदोलन चला ।
राज्य की आवश्यकता के विपरीत असंतुलित विकास की जो नीति प्रदेश में लागू हुई उसके परिणाम स्वरूप ग्रामीण अर्थव्यवस्था के इस राज्य में अर्थव्यवस्था के ढांचे में अभूतपूर्व बदलाव हुआ. 2000 में हमारी अर्थव्यवस्था में 28.5% कृषि क्षेत्र का योगदान था वह घटकर 9.5% रह गया जाहिरा तौर पर यह वृद्धि औद्योगिक उत्पादन 21.3% से बढ़कर 35.6% में पहुंचने से दिखाई देता है । जिस असंतुलित विकास के कारण उत्तराखंड की कंदराओं में अलग पर्वतीय राज्य की मांग उठी, उस राज्य में असंतुलित विकास की रफ्तार उत्तर प्रदेश के मुकाबले कई गुना तेज हो गई. परिणाम स्वरूप और पर्वतीय क्षेत्र के लोगों का व्यवस्था से विश्वास उठ गया, पलायन राज्य की आपदा बन गई। विधायक और सांसद ही नहीं अब ग्राम प्रधान भी पर्वतीय क्षेत्र के गांव,कस्बो में रहने को राजी नहीं हैं।
पलायन की आपदा का आंकलन करने के लिए गठित पलायन आयोग की रिपोर्ट बताती है। राज्य गठन के बाद पर्वतीय क्षेत्र से 32 लाख की आबादी पलायन कर चुकी है. 17 00 गांव भूतहा हो गए, राज्य के कुल 15745 गांव से 3900 गांव पलायन की जद में हैं। पहाड़ की शान समझे जाने वाले पौड़ी और अल्मोड़ा जैसे जनपद में जनसंख्या की वृद्धि ऋणात्मक है. यह विकास की कैसी दृष्टि है? हमारी ।यह कैसा रास्ता है हमारा ? कभी तो हमें सोचना ही होगा और हमें अपनी समस्या का समाधान बजट के संतुलन से ही खोजना होगा।
कई बार महसूस करता हूं विकास पुरुष नारायण दत्त तिवारी जी ने अपने वचन को निभा दिया, 1995 में राज्य आंदोलन के दौर में उन्होंने कहा था। राज्य मेरी लाश पर बनेगा, राज्य तो बन गया लेकिन राज्य की आत्मा को मारने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. पर्वतीय क्षेत्र के विकास की योजना और विकास को दरकिनार करते हुए ब्रिटिश काल से ही पहाड़ के विकास का मॉडल रहे। सरकारी उद्यान जिनकी संख्या उत्तराखंड में 104 है ।उन्हें एक-एक कर 2005 से लीज में देना प्रारंभ कर दिया गया। पिछले लगभग 180 वर्ष के इतिहास में उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था को आधार देने वाले यह बगीचे ही थे जिन्होंने स्थानीय ग्रामीणों को रोजगार के लिए तकनीक और बाजार का संरक्षण दिया।
अंग्रेजों द्वारा 1860 में चौबटिया का जो सेव बागान स्थापित किया गया, उसने पूरे भारत के पर्वतीय क्षेत्र में सेव उत्पादन के पौंध और तकनीक पहुंचाई आज वह खुद विरान है। जबकि राज्य आंदोलन के दौर में बागवानी को उत्तराखंड की आय का प्रमुख साधन माना जा रहा था। यह 104 सरकारी उद्यान हमारे विकास केंद्र के रूप में कार्य कर पर्वती क्षेत्र में उन्नति का रास्ता पहुंचा सकते थे.
जब पहाड़ चिकित्सा और शिक्षा से ही महरुम हो रहे हैं. 3000 प्राथमिक विद्यालय नवोदय और पॉलिटेक्निक तक बंद हो रहे हों। वहां जन विश्वास को कायम रखना और विकास पहुंचाना सरकार की प्राथमिकता में होना ही चाहिए, लेकिन यह विकास का रास्ता कैसे होगा ? इसके लिए हमें संसाधन नहीं समझ विकसित करनी होगी। जब विकास की समझ की बात आती है तब मेरा ध्यान बार-बार उत्तराखंड के पहले ब्रिटिश कमिश्नर विलियम टेलर पर पहुंच जाता है।
अप्रैल 1816 में जब विलियम टेलर ने कमान संभाली तो राज्य का किसान और जमींदार गौरखाओ के क्रूर तिभागा कर से परेशान था। तब कुमायूं और ब्रिटिश गढ़वाल का कुल राजस्व 123863 था। टेलर ने इस कर में एक तिहाई राजस्व की कमी की लगातार भूमिका बेहतर बंदोबस्त किया और 1822 में 80 साला भूमि बंदोबस्त के बाद पहाड़ों में बागवानी को बढ़ावा देने के लिए उद्यान लगाएं 1833 तक करो में एक तिहाई राहत के बाद भी राजस्व को बढ़ाकर 194833 कर दिया।
टेलर तब तक कुमाऊं और गढ़वाल में सड़क और पुल भी बना रहा था . माणा, जोहार और भोट क्षेत्र के व्यापार को विशेष रियायत दे रहा था । लोग अपनी जमीन और टेलर से जुड़ रहे थे .जमीन का विस्तार हो रहा था। जमीन प्रधान समाज का विकास मॉडल था। राज्य के पर्वतीय क्षेत्र के उपेक्षित नागरिकों से इसी प्रकार भावनात्मक रूप से जुड़कर विकास का जो रास्ता तैयार किया जाना है उसमें संसाधन से अधिक समझ की आवश्यकता है। यह समझ कहां से आए ,यही एक बड़ा सवाल है।