संजीव जायसवाल ‘संजय’
यह एक स्याह यथार्थ था भारतीय समाज की आधी आबादी का। प्रतिबंधों, बंधनों और पर्दों के पीछे कैद उनकी सिसकियों को तो क्या उनके रूदन के स्वरों को भी चौखट से बाहर नहीं आने दिया जाता था। किंतु इस जगत में कुछ भी स्थायी नहीं है सिवाय परिर्वतन के सिद्वांत के। इसलिए इस स्थित में भी परिर्वतन हुआ। चंद वर्षों पहले आहट सुनायी पड़ी थी जंजीरों को, बंधनों को और प्रतिबंधो को तोड़ने की। जमाने ने उस आहट को सुना मगर पहचाना नहीं। वह बदला भी मगर स्थायी परिर्वतन की दृष्टि से नहीं अपितु आंधी को गुजर जाने देने की नीति के तहत झुकने की औपचारिकता मात्र निभायी। किन्तु परिर्वतन तो पृकति का स्थायी नियम है। इसलिये शोषक और शोषित, वंचित और संचित, रक्षक और रक्षित किसी की भी भूमिका स्थायी नहीं रह सकती। इनमें परिर्वतन अवश्यमभावी है, भले ही परिर्वतन का चक्र पूरा होने में सदियां बीत जायें। एक समय मातृ-सत्ता प्रधान समाज वाले इस देश में आधी आबादी की भूमिका क्यूं, और कैसे बदल गयी, प्रतिष्ठा के उच्च सिंहासन से उतार कर वे अपमान की अंधेरी गलियों में कब धकेल दी गयीं यह शोध का विषय हो सकता है, विमर्शो के मंचो पर इस पर अनवरत चर्चा भी होती रहती है लेकिन सत्य तो यह है कि अब चर्चा और विमर्शों का दौर व्यतीत हो चुका है। अब आहट नहीं अपितु आधी आबादी की दस्तक सुनायी दे रही है। पूरे दम-खम से, पूरे होशो-हवास में वे पुरूष प्रधान समाज के बंद दरवाजों को झकझोरते हुये चुनौती दे रहीं हैं कि तुम्हें सुनना होगा ‘सिसकती सांकलों’ की आवाज को।
‘सिसकती सांकलें’ शीर्षक है बहुमुखी प्रतिभा की धनी रचनाकार अमृता पांडे (जिन्होंने कई कहानियां अमृता गिरीश के नाम से भी लिखी हैं) के प्रथम कहानी संग्रह का। अमृता पांडे की पहचान एक सशक्त कथाकार के रूप में रही है। उनके द्वारा सृजित कहानियां नियमित रूप से देश की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं जिन्होंने एक बड़े पाठक वर्ग को प्रभावित किया है। प्रस्तुत कहानी संग्रह में उनके अंदर का शिल्पकार अत्यन्त सशक्ता एवं प्रखरता के साथ उभरकर सामने आया है। इस संग्रह में उन्होंने 13 कहानियों की माला पिरोई है। ज्यादातर कहानियों के मुख्य पात्र नारी मन की संवेदनाओं, उनकी समस्याओं और उनकी अभिलाशाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेखिका ने इन कहानियों में सामाजिक सरोकारों, नैतिक मूल्यों और उच्च प्रतिमानों में सामंजस्य स्थापित करते हुये घटनाओं का ताना-बाना बुना है। यही कारण है कि इन कहानियों के पात्र पाठकों को अपने आस-पास के प्रतीत होते है और उनकी कथा-यात्रा में पाठक बरबस उनके सह-यात्री बन जाते हैं। उनके सुख-दुख पाठकों को अपने सुख-दुख मालुम पड़ने लगते हैं, यही लेखिका की सबसे बड़ी सफलता है।
भाषा की शुद्धता, शैली की विशिष्टता और घटनाओं का सहज किन्तु सशक्त प्रस्तुतीकरण इन कहानियों को सरस व मनोरम बनाता है। प्रत्येक कहानी में लेखिका ने किसी न किसी सामाजिक समस्या व कुरीति को उठाया है और उनका विश्लेषण करते हुये तार्किक समाधान प्रस्तुत किया है। इस सबके बीच इन कहानियों के नारी पात्र अत्यन्त सशक्त होकर सामने आये हैं। ये पात्र न केवल विपरीत परिस्थितयों का सामना करते हुये सफलता के शिखर पर पहुंचते हैं बल्कि समाज को एक दिशा भी दिखलाते हैं। खासकर कहानी ‘ओस की बूंद’ विशेष रूप से ध्यान आर्कषित करती है। नायिका अभया के निश्छल सौंदर्य को देख सम्पन्न परिवार के मुखिया उसे बिना दहेज के अपनी बहू के रूप में चुन लेते हैं। इस पुनीत कार्य के लिए उनकी जै-जैकार भी होती है किंतु फिर धीरे-धीरे तानों की मार और दहेज के लिए प्रताड़ना शुरू होती है। किंतु अभया विपरीत परिस्थितयों और झंझावतों से झूझते हुए जिस तरह सिविल सर्विस की तैयारी कर आई.पी.एस में चयनित होती है वह प्रसंशनीय तो है ही अन्य स्त्रियों के लिए प्रेरणादायक भी है।
कहानी ‘बरगद की छांव’ में जिस तरह पहाड़ से शहर गया परिवार अंततः गांव वापस आकर रिजार्ट बनवाने का निर्णय लेता है वह दूसरों को भी रास्ता दिखाने वाला है। हालांकि इस कहानी में गांव के लोगों की सम्पत्ति कब्जा करने की प्रवृत्ति और आपसी द्वन्द का यथार्थवादी चित्रण किया गया है किंतु अंततः कहानी अपने शीर्षक की ही तरह शीतलता प्रदान करती है।
संग्रह की कई कहानियां न केवल नारी-जीवन के विभिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती हैं बल्कि पहाड़ी जीवन के रंग-रूपों, वहां की संस्कृति, रीति-रिवाजों और परम्पराओं से भी परिचित करवाती चलती हैं। इसी के साथ-साथ ‘सोचा न था’ जैसी कहानियां नैनीताल जैसे प्रर्यटन स्थल से मुलाकात करवाने के साथ नई पीढ़ी की सोच को भी सामने लेकर आती हैं।
संग्रह की एक विशेषता विषयों की विविधता भी है जिसकी वजह से कई कहानियां चौंकाती भी हैं जैसे ‘विछिप्त कौन?’ में लेखिका का एक नया रूप ही सामने नजर आता है। इसी तरह कहानी ‘प्रारब्ध’ महामारी के पश्चात गांव के जीवन की विषमताओं का सशक्त चित्रण करती है तो कहानी ‘उकाब’ मजदूर औरतों की दुश्वारियों और उनके शारीरिक शोषण के विरूद्व बहुत मजबूती से आवाज उठाती है और यह चेतावनी देती नजर आती है कि अब गरीब मूक रहकर अपना शोषण करवाने के लिए तैयार नहीं हैं।
संग्रह की अन्य कहानियां कुंडली, संयोग और मृषा भी अपने विषय वस्तु की विशिष्टता के कारण अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रही हैं। अमृता पांडे की विशेषता रही है कि वे अपने पात्रों के चरित्र को किसी कुशल चित्रकार की तरह कैनवास पर उकेरती हैं, उनमें रंग भरती हैं फिर उन्हें मनचाहा रूप देते हुये जीवंत कर देती हैं। उनकी यही विशिष्टता उनके इस संग्रह में उभर कर सामने आयी है। इसलिए यह पुस्तक उस पाठक वर्ग के लिये बहुत उपयोगी है जो सामयिक विषयों से जुडना चाहते हैं। कुल मिलाकर अपनी गुणवत्ता एवं रोचकता के कारण यह संग्रह न केवल पठनीय है बल्कि संग्रहणीय भी हो गया है। विश्वास है कि अमृता पांडे की सशक्त लेखनी से हिन्दी साहित्याकाश एक लम्बे समय तक दिदीप्तमान होता रहेगा। मैं उनकी इस पुस्तक की सफलता की मंगलकामना करता हूं।
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Amrita Pandey
नैनीताल समाचार का बहुत-बहुत धन्यवाद।https://amzn.eu/d/hEFd4bj