शंभू राणा का यह व्यंग्य पहले ‘नैनीताल समाचार’ में प्रकाशित भी हो चुका है।
— संपादक
शंभू राणा
पिछले कुछ दिनों से अखबार में एक खबर बराबर छप रही है और ध्यान खींच रही है । खबर गंगोलीहाट से है कि वहाँ लोग शराब की दुकान खुलवाने के लिए आन्दोलन कर रहे हैं । एक दिन बाजार बंद हो चुका है इसी माँग को लेकर । ये हुई न खबर कि आदमी ने कुत्ते को काट खाया। ये क्या खबर हुई कि शराब के विरोध में महिलाएँ सड़कों पर । ऐसी रूटीन की खबरों को आदमी पढ़े बिना ही पन्ना पलट देता है। समाचार माने कुछ नया ।
उपरोक्त खबर के मुताबिक जब से गंगोलीहाट में शराब की दुकान बंद हुई है, वहाँ स्मगल की हुई शराब की बाढ़-सी आ गई है । लोगों का जीना दूभर हो गया है । इलाके में तबाही के आसार नजर आने लगे हैं । तस्करों की आपसी गैंगवार में कुछ कतल हो सकते हैं वगैरा । यकीनन यह अतिशयोक्ति नहीं होगी । यही सच होगा। शराबबंदी का यही एकमात्र साइड इफैक्ट है । शराबबंदी आन्दोलन चलाने वाले इसे या तो समझ नहीं पाते या अगर समझते हैं तो मानने में शायद उनका अहं आड़े आता है । नतीजा सामने है ।
शराबबंदी आन्दोलन हिन्दुस्तान का सबसे असफल आन्दोलन है । इसकी सफलता की उम्र उतनी ही है जितनी आजकल के हिट फिल्मी गानों की । एकाध साल पहले अल्मोड़ा के बसौली इलाके में शराब की दुकान बंद हो गई तो शराब बसौली की सरहद पर गाडि़यों में बिकने लगी । पीने वाले बस में बैठ कर जाते और शराब खरीद कर वापस चले जाते । साँप भी जिन्दा, लाठी भी सलामत । बसौली में फिर से दुकान खुल गई । अब लोगों का 10-20 रु. बस का किराया बचता है ।
मोरारजी भाई के जमाने में देशव्यापी शराबबंदी लागू रही । मुझे नहीं पता ये कितने दिन रही । मगर ये जानता हूँ कि उस दौरान पियक्कड़ों ने दारू के ऐसे-ऐसे विकल्प खोज निकाले कि सुनके अकल चकरा जाए । शरीफ आदमी दवा की दुकानों में जाने से कतराने लगा था कि कहीं नशेड़ी न समझ लिया जाए । भाई लोगों ने अपनी जान पर खेल कर पेट्रोल उबाल कर शराब बना डाली । अजब-गजब कीमियागरी मद्यपों ने नशाबंदी का अहसास नहीं होने दिया । इस दौरान कुछ लोगों को एक आइडिया क्लिक कर गया । उन्होंने दवा विक्रेता का लाइसेंस ले लिया। नशावर टॉनिक बेच कर करोड़ों कमा गए । जब देश का प्रधानमंत्री शराब बंद नहीं करवा सकता है तो फिर कौन करवा सकता है ?
बेशक शराब बुरी ही चीज है, पर्दे की चीज है । कोई भी ढंग का और सामाजिक सरोकार रखने वाला व्यक्ति शराब की सार्वजनिक वकालत कतई नहीं कर सकता। पीना-पिलाना एक व्यक्तिगत मामला है । वह अलग चीज है । लेकिन क्या शराब ऐसी और इतनी बुरी चीज है कि उसका समूल नाश कर दिया जाए ? उसे देखने के लिए अजायब घर जाना पड़े । बेशक शराब आज की तारीख में एक बड़ी सामाजिक समस्या है । शराब से कई घर उजड़े, न जाने कितनी गृहस्थियाँ टूटीं, अनगिनत लोग जवानी में ही कुत्ते की मौत मर गए । शराब बंद नहीं हुई । हो भी नहीं सकती । स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में बह्मचर्य की जैसी व्याख्या की है वह आम आदमी के लिए मुमकिन ही नहीं । उसी तरह का नामुकिन और अव्यावहारिक विचार शराब बंद कर देने का भी है । जहाँ कहीं भी शराबबंदी लागू हुई, वहाँ मिलावटी, नकली और घटिया शराब तस्करी से पहुँच गई । क्योंकि वह शराब अवैध होती है, चोरी-छिपे बेची जाती है इसलिए महंगी होती है । वह पीने वालों के स्वास्थ्य के साथ-साथ उनकी जेब पर भी भारी पड़ती है । पहले जो थोड़ा-बहुत पैसा या राशन-पानी पीने वाला घर ले जाता था अब वह नहीं पहुँचता है । नतीजन बच्चे फाके करते हैं ।
तो इस समस्या का हल क्या है आखिर ? किसी भी समस्या का आसान-सा हल जो कि व्यावहारिक भी हो, जरा कम ही मिल पाता है। इस समस्या का भी इलाज शायद इतना आसान न हो । ज्यादातर लोग बाकी खेलों को खेल की तरह देखते हें लेकिन क्रिकेट को दो देशों के बीच चल रहे युद्ध की तरह लेते हैं । नतीजे में कई बार दंगा-फसाद हो जाते हैं । कमोबेश यही बात पियक्कड़ी पर भी लागू होती है। ज्यादातर लोग शराब को जाने-समझे, उसके साथ दोस्ती किए बगैर उसे गटक जाते हैं । नतीजतन शराब पेट में बाद में पहुँचती है दिमाग में पहले पहुँच जाती है । पीने वाला बौरा जाता है । वह सब कर गुजरता है जो बिना पिए सोच भी नहीं सकता । हमारे यहाँ आदमी के सर में ज्यों ही दो लोटा पानी पड़ता है वह फौरन संस्कृत के श्लोक उगलने लगता है और दो घूँट शराब पेट में पहुँचते ही अंग्रेजी बोलने लगता है । असामान्य हो जाता है । ऐसे लोगों को शराब पीने की तमीज सिखाए जाने की जरूरत है । ज्यादातर पीने वालों को थ्री डी के नियम का पता ही नहीं । यानी डाइल्यूशन, ड्यूरेशन और डाइट। ऐसे लोगों को समझाए जाने की जरूरत है कि बेटा पीने का सलीका सीखो, क्वालिटी देखो, क्वांटिटी नहीं । दारू पेट भरने की चीज नहीं है । जितनी ऊर्जा और समय शराबबंदी आन्दोलन में बेकार गई उसका 50 फीसदी भी अगर मद्यपों के प्रशिक्षण में खर्च की गई होती तो स्थिति कुछ अलग होती और सकारात्मक होती ।
उत्तराखंड में शराब के मुद्दे पर वाकई एक व्यापक आन्दोलन की जरूरत है । मगर वह आन्दोलन शराबबंदी के लिए न होकर इस बात के लिए हो कि शराब सस्ती हो, स्तरीय हो, सरकारी नियंत्रण में स्थानीय स्तर पर बने । हमारे राज्य में कई ऐसे फल हैं जो हर साल हजारों टन बेकार चले जाते हैं जबकि उनसे एक्सपोर्ट क्वालिटी की शराब बनाई जा सकती है । कागज के थैले और बड़ी-मुंगौड़ी बना कर स्वरोजगार की बेतुकी सीख देने वाले क्यों इस बारे में नहीं सोचते ? क्या यह पंचायती राज का हिस्सा नहीं हो सकता ? शराबबंदी आन्दोलन चलाने वालों से इस बारे में बात करो तो वो यह कह कर दरवाजे बंद कर देते हैं कि क्या पीना इतना जरूरी है ? अजी साहब, पीना तो दो कौड़ी की चीज है । जरूरी तो जीना भी नहीं जान पड़ता । ये जीना भी कोई जीना है लल्लू ! जैसा जीवन इस देश में आम आदमी जी रहा है । दारू डाइल्यूट करने को साफ पानी आदमी को मुहय्या नहीं है । शराब हमारे समाज की एकमात्र समस्या नहीं है । और भी गम हैं जमाने में दारू के सिवा ।
जिन्हें पीकर मरना है, यकीन जानिए वो पीकर ही मरेंगे । शराब बंद कर दी जाएगी तो शराब के नाम पर जहर पीकर मरेंगे । उन पर रहम कीजिए उन्हें पीकर मर जाने दीजिए । उनका हस्र देखकर बाकी लोग या तो पिएँगे नहीं अगर पिएँगे तो सलीके से ।
एक समय था जब चाय पीना अगर बुरा नहीं तो उतना अच्छा भी नहीं माना जाता था । बच्चों के लिए तो चाय वर्जित ही थी । आज जो चाय नहीं पीता वह महफिल में उल्लू का पट्ठा नजर आता है । आज कोई उम्मीदवार चुनाव में मतदाता को चाय-कॉफी पिलाकर प्रभावित नहीं कर सकता । जबकि शराब पिलाकर यह काम हर चुनाव में खुलेआम होता है । शराब यदि चाय जितनी आम और महत्वहीन हो जाए तो जरा सोचिए क्या होगा सीन । देखिए नेताजी इस केतली में चढ़ी है चाय और दूसरी में दारू । आप उठाइए अपनी बोतल और दफा हो जाइए। देखो यार, दारू के बदले वोट माँग रहा है हमसे कमीना । जैसे हमने कभी दारू पी ही नहीं… आदाब मैकदे के तब्दील हो रहे हैं, साकी बहक रहा है मैकश संभल रहे हैं ।
आज की तारीख में शराब पीना गुनाह करने जैसा है कि जिसके बाद खुद से सौ झूठ बोलने पड़ते हैं । समाज में जब तक ऐसा माहौल नहीं बनेगा कि हम शराब को चाय-कॉफी की तरह अपराध बोध महसूस किए बिना पी पाएँ । शराब, शराब न होकर समस्या ही बनी रहेगी ।
और जो ऐसा सोचते हैं कि शराब इतनी आम हो जाने पर आधी से ज्यादा आबादी सूरज उगने तक नालियों में लोटती नजर आएगी, तो उनका ऐसा सोचना ठीक नहीं जान पड़ता । जिस चीज को पर्दे में रखा जाएगा उसके प्रति उत्सुकता उतनी बढ़ती जाएगी । आदमी उसे पाने के लिए ताले तोड़ेगा, सेंध लगाएगा, सुरंग खोद डालेगा, छत उखाड़ देगा और तमाम गैरकानूनी काम करेगा कि देखूँ तो सही आखिर है क्या ? गणित का कोई भी सवाल तभी तक समस्या है जब तक हम उसे समझ नहीं लेते । ज्यों ही फॉरमूला हम समझ लेते हैं वह खेल हो जाता है ।
मैं एक बार फिर अपनी बात साफ कर दूँ कि मैं शराब की वकालत नहीं कर रहा । उसे महिमामंडित भी नहीं कर रहा हूँ। न मैं लोगों को पीने के लिए उकसा रहा । न ही शराब को दूध -दवा-अखबार की तरह अतिआवश्यकीय वस्तु साबित करने में लगा हूँ। मैं कोई नई बात भी नहीं कह रहा हूँ । मैं सिर्फ दो-तीन बातें कह रहा हूँ कि शराब बंद किसी भी सूरत में नहीं हो सकती । और पीने वाले हर हाल में कुछ भी जतन करके पी ही लेंगे। उन्हें रोका नहीं जा सकता । और जो नहीं पीते, वे शराब पीना कानूनन अनिवार्य कर दिए जाने पर भी नहीं पिएँगे । भले ही जुर्माना भरना पड़े या जेल जाना पड़े । शराब को लेकर हमारा आज तक जो रवय्या रहा है, वह गलत है । अनुभव से यही साबित हुआ । रवय्या और रणनीति बदलने की जरूरत है। यही सब मैं कहना चाह रहा हूँ ।
असल बात तो यह है कि हमारा सारा ध्यान शराब पर रहा, शराबियों के बारे में किसी ने सोचा ही नहीं । भाई लोग शराब-शराब चिल्लाते रहे, पीने वाले पीते रहे । चोर अक्सर उस भीड़ में शामिल हो जाते हैं जो उन्हें पकड़ने के लिए भाग रही होती है । ऐसा चोर कभी नहीं पकड़ा जाता, समस्या शराब न होकर पीने वाले हैं । इस नजरिये से हमने कभी सोचा ही नहीं । शराबबंदी आन्दोलन कभी वास्तविक मुद्दे पर केन्द्रित हो ही नहीं पाया । हम समझ ही नहीं पाए कि हिट कहाँ करना है । पीने वालों को पीने से रोका नहीं जा सकता, उन्हें समझाया और प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि भय्या, पीने का सलीका सीखो, वर्ना स्मृतिशेष होने में ज्यादा देर नहीं लगती । यम के दूत बड़े मरदूद । इस मामले में शिक्षण-प्रशिक्षण का तरीका ही कारगर हो सकता है । दारू की दुकान बंद होने से कुछ नहीं होगा । आज तक कुछ हुआ ? कहाँ-कहाँ दुकान बंद करवाएँगे। भगवान सर्वव्यापी हो न हो, दारू शर्तिया है ।
शराब विरोधियों की नीयत में कोई खोट नहीं, खोट उनके तरीके में है । शराब के प्रति उनका नजरिया अव्यावहारिक है । उन्होंने घोड़े को तांगे के पीछे जोत रखा है । इसलिए उनकी बग्घी एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी । देखकर दुःख होता है कि इतनी ऊर्जा और समय यूँ ही व्यर्थ चला गया । उन्हें तय करना होगा कि वे इस मामले में असफलताजनिक कुंठा लेकर संसार से विदा होना चाहेंगे या कुछ सार्थक कर के संतोष के साथ ।
बातें कुछ ज्यादा ही गंभीर हो गईं लगता है । चलिए आपको एक लतीफेनुमा किस्सा सुना दूँ। यह किस्सा कई साल पहले मुझे एक सज्जन ने सुनाया था । बकौल उनके, यह किस्सा अल्मोड़ा का है । होगा, कुछ बातें न जाने क्यों सिर्फ यहीं होती हैं । किस्सा यूँ है कि जिलाधिकारी कार्यालय में कार्यरत एक क्लर्क एक बार अपनी कोई समस्या लेकर डीएम साहब के पास गया । डीएम साहब को क्लर्क के मुँह से दारू का भभका आया । उन्होंने क्लर्क को डाँटा- आप ड्रिंक करके आए हैं ! बाबूजी ने बड़ी ही सादगी और ईमानदारी से कहा- साहब गलती माफ करें, पर मुझ जैसे मामूली आदमी की बिना पिए आप जैसे बड़े अफसर के सामने आने की हिम्मत ही नहीं होती । डीएम साहब यकीनन समझदार आदमी होंगे । सुना कि उन्होंने क्लर्क की समस्या सुलझा दी और ऑफिस टाइम में पीकर आने के लिए उन्हें कोई डंड भी नहीं दिया । सिर्फ मौखिक चेतावनी देकर छोड़ दिया ।
मैं न तो बुद्धिजीवी हूँ न ही कोई विचारक। होना भी नहीं चाहता । बड़े ही पाजी होते हैं। एक आम आदमी जैसा होता है वैसा ही हूँ । अपनी सीमित बुद्धि और जानकारी के अनुसार कभी कुछ सूझता है तो उसे लिखने की कोशिश करता हूँ जिसके लिए अमूमन मुझे ज्यादा ही प्रशंसा मिल जाती है । एक-दो बार जूते पड़ने की भी नौबत आई मगर बच गया । छपने के बाद चीज पाठकों की हो जाती है । उन्हें कैसी ही भी प्रतिक्रिया देने का अधिकार होता है । शराब के बारे में जो जाना, देखा और अनुभव किया उसी को ईमानदारी से कह दिया । यह एक अति संवेदनशील विषय है, जिसका सिरा मैंने विपरीत दिशा से थाम लिया है । देखें इस बार क्या प्रतिक्रिया होती है ! और मैं हर बार की तरह तैयार हूँ ईनाम में शराब की बोतल पाने और स्नैक्स के रूप में जूते खाने को ।