नवीन बिष्ट
‘‘सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्यों है, इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है ? दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढँूढें, पत्थर की तरह बेहिसो बेजान सा क्यों है ?’’ 1978 में बनी फिल्म ‘गमन’ की गजल, सुरेश वाडेकर की गायकी आज स्वतंत्रता दिवस की 76वीं वर्षगांठ पर अचानक दिल के किसी कोने में गूंजने लगी। ऐसा लगा कि सच में नगमानिगार शहरयार की यह रचना लगभग आधी शताब्दी बीतने के बाद भी आज की स्थितियों का आईना साबित हो रही है। देखा जाए तो आज दुनिया के किसी छोटे से गांव से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर, वह चाहे अमेरिका, रूस, चीन जैसे धनाढ्य विकसित देश व भारत जैसे विकासशील देश हों या फिर नेपाल, पाकिस्तान जैसे देश, आम आदमी की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक जीवनचर्या में बेचैनी, आक्रोश को सही-सही तस्दीक कर रही है।
आम आदमी की ऐसी मनोदशा में आज हम भारतवासी गर्मजोशी से अमृत महोत्सव का प्रचार-प्रसार और यशोगान कर रहे हैं। अच्छी बात है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि बीते 75 बरस नहीं तो पिछले आठ सालों के उन तमाम वादे-घोषणाओं को रेखांकित कर जनता को बताना चाहिए जो राष्ट्रीय पर्वों में किए गए, ताकि महोत्सव की सार्थकता को आम आदमी महसूस कर सके। अब सवाल है कि आजादी के 75 सालों में लोकतांत्रिक मूल्यों, आम आदमी के जीवन स्तर में सुधार तो होना चाहिए था, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक सुरक्षा का स्वाभाविक अहसास होना चाहिए था। क्या ऐसा हो रहा है ? हुआ ? नहीं हुआ है तो इसके लिए जवाबदेही किस पर बनती है ? ये वाजिब सवाल है, पूछा जाना चाहिए। सत्ता को जवाब देना चाहिए। यही लोकतंत्र का तकाजा है। इसके साथ यह भी जरूरी है कि सत्ता को चाहिए कि सवाल पूछने का सहज वातावरण भी बनाए। यदि ऐसा वातावरण नहीं है, तो लोग स्वाभाविक तौर पर सवाल करने से बचेंगे और यह देश के लोकतांत्रिक भविष्य के लिए अच्छी बात नहीं है। सत्ता का दायित्व है कि ऐसे कारणों को खोज कर उसका गम्भीरता से संज्ञान ले। अघोषित भय यदि कहीं लगता है तो सहज वातावरण का सृजन करे।
बहरहाल हम भारत जैसे विशाल व सबसे बडे़ लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं। यह सौभाग्य है। यही सही मौका है देश के प्रधानमंत्री से यह भी पूछने का कि पिछले आठ स्वतंत्रता दिवस महोत्सवों के अवसर पर लालकिले की प्राचीर से देश को संबोधित अपने उद्बोधन में जो वादे किए थे, धरातल पर उनकी तस्वीर इन बीते सालों में कितनी निखरी है ? हर आदमी को छत 2022 में, किसान, मजदूरों के हितों की रक्षा, हर घर में जल, हर घर नल, हर साल दो करोड़ बेरोजगारों को रोजगार और भ्रष्टाचार को समाप्त करने की घोषणाओं की हकीकत जानने जैसे सवाल पूछने का वातावरण होना चाहिए, क्योंकि हम अमृत महोत्सव के साल में चल रहे हैं।
एक बात तो हमें बिना किसी लागलपेट के कहनी चाहिए कि 15 अगस्त 1947 को जहां पर भारत को ब्रितानी हुकूमत ने छोड़ा था, इन 75 सालों कि अनवरत विकास यात्रा ने विश्व मानचित्र में सम्मानजनक स्थिति में ला खड़ा किया है। जिस भारत में सुई भी विदशों से आती रही हो, वहां पर अंतरिक्ष तक की यात्रा के लिए देश सक्षम हो गया हो, ‘मेक इन इण्डिया’ तक की यात्रा पर गर्व तो होना ही चाहिए।
बावजूद इस सबके यह जरूरी है कि ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ के सार्थक स्वरूप को सामने लाने के लिए भारत के नीति नियन्ताओं को चाहिए कि देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय मर्यादा के ताने-बाने की कसावट, बुनावट पुख्ता बने। यदि ताना-बाना उलझा तो पूरी चादर का स्वरूप ही अपनी नैसर्गिकता को खो देगा। जिस देश या राष्ट्र का ताना-बाना उलझ गया तो श्रीलंका जैसे हालात बनने में देर नहीं लगेगी। ऐसी स्थिति न आने देने के लिए सुघड़ राजनैतिक अनुभवों, दूरदर्शिता और आर्थिक नीतियों के लिए विपक्ष के अनुभवशील पुरोधाओं के अनुभवों का लाभ लेने की परंपरा को अंगीकार करने के रास्ते चल कर दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर देखना होगा।
इस समय जिस संक्रमणकाल के दौर से भारत सहित दुनिया जहान गुजर रहे हैं, यह चिन्तन-मन्थन का समय है। क्योंकि हम स्वाधीनता की 76 वीं सालगिरह पर महोत्सव के अमृत स्वरूप को साकार करने की जुगत में लगे हैं। जिस समय देश को महंगाई, बेरोजगारी पर बात करनी चाहिए थी, तब देश के पक्ष-विपक्ष में बहस का मुद्दा ‘हर घर तिरंगा’ और ‘भारत जोड़ो तिरंगा यात्रा’ पर आ कर अटक गई है। इससे जाहिर होता है आम जन के प्रति राजनैतिक दलों की जवाबदेही नदारद हो गई।