सलीम मलिक
रामनगर। ठेकी, कठ्युड़ी, पारो, नाली, कुमली, चाड़ी, डोकला, हड़प्या, नैय्या, पाई, हुड़का, ढाड़ों, पाल्ली जैसे शब्दों से भले ही आज की शहरों में रहने वाली युवा पीढ़ी अंजान हो लेकिन उनके बुजुर्ग इन नामों को सुनते ही चेहरे पर गहरा अवसाद लिए आज भी इतिहास के समुंदर में गोते लगाने लगते हैं। दरअसल, इनमें से कुछ लकड़ी के बने ऐसे पात्रों के नाम हैं जो एक समय में उत्तराखंड की हर रसोई और पर्वतीय जनजीवन का अटूट हिस्सा थे तो कुछ लोक संस्कृति और अन्य जरूरतों की पूर्ति से जुड़े सामान। एक जमाने में इन लकड़ी बर्तनों का भरपूर उपयोग था तो इनका अच्छा खासा बाजार होने के कारण इन्हें बनाने वाले कारीगरों का जीवन भी खुशहाल था। आधुनिकता के साथ जीवनशैली बदली तो कांसा, तांबे, पीतल, मिट्टी के बर्तनों की जगह चमचमाते स्टील ने ली। यहीं से लकड़ी के इन बर्तनों की विदाई घरों से होने के साथ इन लकड़ी के बर्तन और सामान बनाने वाले कारीगरों के बुरे दिन शुरू हो गए।
*यायावरी के साथ जिंदा रही दस्तकारी*
उत्तराखंड में इन बर्तनों को बनाने का काम बागेश्वर जिले के चचई गांव के लोग किया करते हैं। इन शिल्पकारों को स्थानीय भाषा में चुनेरे कहा जाता है। पहले इन चुनेरों को न तो बाजार की कोई कमी थी और न ही बर्तन बनाने के लिए कच्चे माल (लकड़ी) की। लंबे समय तक न सड़ने की विशेषता वाली गेठी और सानन की लकड़ी इनके लिए प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी तो इन हुनरमंद शिल्पकारों के हुनर से निखरा लकड़ी का सामान खरीदने वालों की भी खासी तादात थी। हर साल मध्य हिमालयी क्षेत्र से यह लोग भावर क्षेत्र के जंगलों के किनारे किसी नदी पर अपना पड़ाव डाल देते थे। सानन के पेड़ की लकड़ी को बर्तनों का आकार देने के लिए यह नदी में पानी की मुख्य धारा पर छोटी गूल बनाकर नदी के पानी को ढलाव वाली दूसरी दिशा में ले जाकर धार का रूप दे देते थे। कुछ ही दूरी पर यह पानी की धार एक लकड़ी की ऐसी चरखी पर गिरती थी, जो लकड़ी के ‘साणे’ से जुड़ी होती थी। पानी की इस धार के प्रहार से घूमती चरखी के साथ चरखी से लगा ‘साणे’ भी घूमने लगता था। इसी घूमते खराद पर छोटे छोटे टुकड़ों में कटी लकड़ी के टुकड़ों को फंसाकर लोहे की ‘सांबी’ से कुरेदकर खोखला कर उसे मनचाहे पात्र बर्तन की शक्ल दी जाती है। सर्दियों के इस पूरे मौसम में काष्ठ कला के यह दस्तकार अपने हुनर से कई प्रकार के ढेरों बर्तन बनाया करते थे। बसन्त काल आते ही इन दस्तकारों का अपने बनाए बर्तनों के साथ अपने गांव जाने का समय हो जाता था। गर्मियों में इन बर्तनों के बड़े बड़े बाजार लगते थे। जहां इनकी बिक्री होती थी। बरसात के बाद सर्दियां आते ही इन चुनेरों का डेरा फिर किसी नदी पर होता था। साल दर साल इन चुनेरों की यायावरी जिंदगी ऐसे ही चलती रही। और इसी के साथ इनकी यह दस्तकारी एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक पहुंचकर उन्नत भी होती रही।
*पिछली शताब्दी के आठवें दशक से कम हुआ रुझान*
लेकिन पिछली शताब्दी का आठवां दशक इस काष्ठ कला के लिए दोहरा झटका लेकर आया। इस दशक में जहां पहाड़ी क्षेत्रों में स्टील, प्लास्टिक, चमचमाती चीनी मिट्टी के बर्तनों ने रसोई में दस्तक देनी शुरू की तो वन अधिनियम ने लकड़ी के लिए इस शिल्प कला के कारीगरों को जंगल जाने पर पैर ठिठकाने के लिए मजबूर कर दिया। बाद के दिनों में वन विभाग ने इन दस्तकारों को आवेदन करने पर पेड़ अलॉट करने शुरू किए। एक दस्तकार को साल में पांच पेड़ का परमिट मिलता था। लेकिन सरकारी माथापच्ची, लेटलतीफी और घटते बाजार के कारण कई दस्तकारों ने इस कला से मुंह मोड़ दूसरे धंधों का रुख कर लिया। मगर वावजूद इसके अब भी तमाम दस्तकार इस कला को तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी जिंदा रखे हुए हैं। यह दस्तकार अब भी कालाढूंगी की बौर, रामनगर की कोसी नदी के कुनखेत, गर्जिया, बांगाझाला या सीतावनी जंगल में आकर अपने पुश्तैनी परंपरागत हुनर को जीवित रखे हुए हैं। इस साल यह फिर से रामनगर वन प्रभाग क्षेत्र की कोसी नदी पर अपने हाथों से लकड़ी के टुकड़ों को जीवंत कर रहे हैं। साठ साल के उदयराम भी अपने दो साथियों के साथ कोसी नदी पर एक जगह डेरा डाले हुए हैं।
*दस्तकार का दर्द*
उदयराम का कहना है कि पहले वन विभाग उन्हें हर साल पांच पेड़ का परमिट देता था। लेकिन अब मुश्किल से ही एक दो पेड़ों का परमिट मिल पाता है। एक पेड़ करीब आठ हजार रुपए का पड़ता है। इसके अलावा नदी पर आकर काम शुरू करने से पहले ही नाली बनाने से लेकर अन्य खर्चों में काफी पैसा खर्च हो जाता है। दिन रात की हाड़ तोड़ मेहनत के बाद जंगली जानवरों के क्षेत्र में जान हथेली पर रखकर वह इन बर्तनों को बनाते हैं। लेकिन बाजार में इसका ढंग का मूल्य नहीं मिल पाता। वह 13 साल की उम्र से इस पेशे से जुड़े हैं। वह खुद नई पीढ़ी को यह हुनर देना चाहते हैं। लेकिन इस हुनर की अब कोई कद्र न होने और वर्तमान दस्तकारों की दयनीय स्थिति देखने के कारण नई पीढ़ी इसमें बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं ले रही है। सरकार की तरफ से चुनेरो की इस कला को संरक्षण के लिए न तो कोई उपाय किए गए हैं। और न ही किसी विभाग से उन्हें कोई मदद मिलती है। यही हाल रहा तो यह विधा शायद वर्तमान पीढ़ी के साथ ही लुप्त हो जायेगी।
*राज्य स्थापना से पहले तक अच्छा चलन था इन बर्तनों का*
वैसे उदयराम कुछ गलत भी नहीं कह रहे हैं। बढ़ती आधुनिकता के साथ ही स्टील, प्लास्टिक और चीनी मिट्टी के बढ़ते चलन ने लकड़ी से बने इस काष्ठ कला के
परम्परागत शिल्प वाले बर्तनों को आम जनजीवन से भले ही दूर कर दिया हो, लेकिन पुराने लोगों के मन में आज भी इन बर्तनों की ताजगी बनी हुई है। अभी उत्तराखण्ड निर्माण से कुछ पहले तक भी यह बर्तन पहाड़ में बहुलता से दिखाई दे जाते थे। खाने पीने की चीजों को लंबे समय तक सुरक्षित रखने वाले यह बर्तन स्वास्थ्य के लिहाज से भी अच्छे माने जाते थे। लेकिन राज्य निर्माण के बाद से जहां पहाड़ों से इंसानों का मैदानों की ओर पलायन हुआ, काष्ठ कला का यह हुनर वहीं छूट गया।
*विस्तार की अपार संभावनाएं हैं*
उत्तराखंड में लकड़ी के इन बर्तनों के बाजार के विस्तार की देश विदेश में अपार संभावनाएं हैं। सूचना क्रांति के दौर में इनका प्रचार प्रसार इतना मुश्किल भरा भी नहीं है कि इसके अभाव में बाजार उपलब्ध न हो सके। वैसे भी उत्तराखंड इकलौता राज्य नहीं है जहां लकड़ी के इन बर्तनों को बनाया जाता है। राजस्थान के पाली जिले के एक गांव बगड़ी नगर में बनने वाले लकड़ी के बर्तनो की देश भर में खासी डिमांड है। मुख्य तौर पर इनकी सप्लाई जैन समाज के संत संन्यासियों को होती है। तेरापंथी, मंदिरमार्गीय आदि जैन संत अपनी परंपराओं के अनुसार इन लकड़ी से बने बर्तनों में भोजन करते हैं और इसी लकड़ी से बने गिलास में पानी पीते हैं। अहमदाबाद, सूरत, पाणीथाना, सुजानगढ़, लाडनूं सहित देश भर में इनकी बिक्री की जाती है। दरअसल, जैन संतों श्रमण परंपरा के कारण पैदल एक गांव से दूसरे गांव विहार करता होता है। संत अपना सारा सामान खुद उठाते हैं। धातु से बने बर्तनों का वजन लकड़ी से बने बर्तनों की अपेक्षा कम होने के कारण जैन संत आरम्भ से ही इनका उपयोग कर रहे हैं। साथ ही इन बर्तनों में भोजन करना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक भी होता है। इसके साथ ही हिमालयी प्रदेशों और देशों में प्रचार करके भी अपेक्षित बाजार हासिल किया जा सकता है।
*नेचर शॉप से बाजार विकसित करने का हिमायती वन विभाग*
फिलहाल तो यह परंपरागत काष्ठशिल्प राजाश्रय के अभाव में पूरी तरह बरबाद हो चुका है। जो छिटपुट लोग इस व्यवसाय से जुड़े भी हैं, उनके खुद के बच्चे इसकी दुर्दशा को देखते हुए इस काम को अपनाना नहीं चाहते। अलबत्ता रामनगर वन प्रभाग के डीएफओ कुन्दन कुमार का कहना है कि वन विभाग की सोविनियर या नेचर शॉप में इन बर्तनों को रखकर इनकी बिक्री में बढ़ोतरी करके दस्तकारों की मदद करने का प्रयास किया जाएगा। सोशल मीडिया में भी इस दस्तकारी के वीडियो डालकर लोगों को इससे रूबरू कराने का प्रयास किया जाएगा। इन बर्तनों के लाभों का भी प्रचार करना होगा। जिससे विलुप्ति के कगार पर पहुंच रही इस दस्तकारी को अगली पीढ़ियों तक भी पहुंचाया जा सके। कुल मिलाकर लोगों को इस कला को बाजार देना ही होगा जिससे यह कला संरक्षित की जा सके। हालांकि, वन विभाग के अधिकारी की यह बात वास्तविकता के धरातल पर क्या रूप लेगी, यह भविष्य के गर्भ में है। बहरहाल, अगर सरकार ने इस हुनर की तरफ अभी भी ध्यान न देते हुए इन दस्तकारों का संरक्षण नहीं किया तो निकट भविष्य में यह कला संग्रहालयों और स्मृति चिह्न तक ही सिमटकर रह जायेगी। इस समय हांफते दस्तकारों को मदद की दरकार है। सरकार यह मदद कर पाएगी या नहीं, यह देखने की बात है।