नवीन जोशी
तो, नित्यानंद मैठाणी जी भी चले गए। 14 सितम्बर, 2020 की रात 86 वर्ष की आयु में लखनऊ में उनका निधन हो गया। कोई दस दिन पहले उनसे बात हुई थी। आवाज बहुत क्षीण थी। हाल में उन्होंने अपना बेटा खो दिया था। इस अवस्था में जवान बेटे को खोने का दुसह दुख स्वाभाविक ही उनकी छाती पर सवार रहा। मैंने कहा था- ‘अपना ध्यान रखिए। कोरोना कुछ शांत होगा तो मिलने आऊंगा।‘ फोन रखते हुए उन्होंने कहा था- आपने याद किया, बहुत अच्छा लगा।
मैठाणी जी से आकाशवाणी के लखनऊ केंद्र में परिचय हुआ था। ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम हमारा अड्डा हुआ करता था। पहली मंजिल के ‘उत्तरायण एकांश’ वाले कमरे में अक्सर अड्डा जमता। मैठाणी जी तब शायद ड्यूटी ऑफीसर थे। उनके व्यक्तित्व का सर्वाधिक आकर्षण मेरे लिए उनकी ठेठ गढ़वाली लटक थी। वे हिंदी बोलते या अंग्रेजी, उनके मुंह से फूटती गढ़वाली ही थी। साफ पहचाना जा सकता था कि वे जन्म से ही गढ़वाली नहीं हैं, उसी बोली-बानी में जीते भी हैं। यह बाद में पता चला कि लोकभाषा और लोक संगीत में उनकी गहरी रुचि है और शास्त्रीय संगीत में भी। उन दिनों हम पहले ‘शिखर संगम’ और बाद में ‘आंखर’ संस्थाओं के माध्यम से कुमाऊंनी-गढ़वाली बोलियों में नाटक खेलने और पत्रिकाएं निकालने में जुटे हुए थे। जैसे नंदकुमार उप्रेती ठेठ कुमाऊंनी थे, वैसे ही मैठाणी और केशव अनुरागी जी खालिस गढ़वाली। उप्रेती जी और मैठाणी जी की गाढ़ी दोस्ती का एक कारण यह भी था। जिज्ञासु जी से भी उनकी प्रगाढ़ दोस्ती का यही कारण था। दोनों अपनी बोलियों के लिए समर्पित थे।
मैठाणी जी तब मॉडल हाउस में रहते थे। जिज्ञासु जी के साथ मैं कई बार उनके घर गया। श्रीमती उमा मैठाणी जी से तभी परिचय हुआ। एक बार जिज्ञासु जी ने मुझसे कहा था- ‘क्या तुम मैठाणी जी के बच्चों को ट्यूशन पढ़ा दोगे? उन्हें जरूरत है।’ मैं उन दिनों में कुछ बच्चों को पढ़ाया करता था। मैंने हामी भर दी। अगले दिन से मैं उनके घर गया लेकिन यह सिलसिला चला नहीं।
उन्हीं दिनों मैठाणी जी को मैंने ‘नैनीताल समाचार’ के बारे में बताया था। शायद वार्षिक ग्राहक भी बनाया हो। वे अखबार पढ़कर बहुत खुश हुए थे और फिर समय-समय पर उसके लिए लिखने लगे थे। धीरे-धीरे पता लगा कि साहित्य, संगीत और कला-जगत की उन्हें गहरी जानकारी है और अपने लोक से गहरी मुहब्बत। जब में लखनऊ में ‘हिंदुस्तान’ अखबार का सम्पादक था तो वे कभी-कभार फोन करते या मिलने चले आते थे। एक दिन उन्होंने मुझे लखनऊ घराने के प्रसिद्ध संगीतकार राहत अली के बारे में अपनी पुस्तक भेंट कर सुखद आश्चर्य से भर दिया। राहत अली आकाशवाणी में कम्पोजर थे लेकिन संगीत की दुनिया में उनका बड़ा नाम है। दोनों का परिचय शायद आकाशवाणी में हुआ होगा। बाद में मैठाणी जी और राहत अली दोनों गोरखपुर केंद्र चले गए थे। यह संगत ऐसी जमी कि अवकाश ग्रहण के बाद मैठाणी जी ने ‘याद-ए-राहत अली’ शीर्षक से किताब लिखी। संगीत नाटक अकादमी ने उसे प्रकाशित किया था। चूंकि मैठाणी जी ने वह पुस्तक मुझे बतौर ‘सम्पादक, हिंदुस्तान’ भेंट की थी, इसलिए मैं रिटायर होने पर उसे दफ्तर के पुस्तकालय में रखवा आया था। यह लिखते हुए मुझे उसकी याद आ रही है। उसी दिन उन्होंने बताया था कि उनका इंदौर के संगीत उस्ताद अमीर खान, बदायूं के उस्ताद निसार खान और लखनऊ की मशहूर गज़ल गायिका बेगम अख्तर से अच्छा सम्पर्क रहा है। इन संगीत उस्तादों पर उनके लेख भी हैं।
जब मैं ‘लखनऊ का उत्तराखण्ड’ पुस्तिका के लिए उत्तर प्रदेश की राजधानी में रहकर विविध कला क्षेत्रों को समृद्ध करने वाले उत्तराखण्डियों की जानकारी एकत्र कर रहा था तो इसी सिलसिले में मैठाणी जी के इंदिरानगर स्थित घर में भी जाना हुआ। उन्होंने मुझे कुछ लोगों के बारे में बताया जिनमें से एक नाम ठाकुर शेरसिंह रावत का है जो बेहतरीन सरोद वादक थे। इस पुस्तिका के विमोचन समारोह में शामिल होने का निमंत्रण लेकर जब मैं उनके घर गया तो उन्होंने बड़े अधिकार से कहा था- ‘नवीन जी, क्या आप मुझे ले जा देंगे, क्योंकि मैं अकेले आ नहीं सकता।’ मैं उन्हें शेखर जोशी और जिज्ञासु जी के साथ कार्यक्रम में ले गया था। उसी भेंट में उन्होंने बताया कि उमा (मैठाणी जी की बेगम) ने तो शेर सिंह जी पर एक लम्बा लेख भी लिखा था। उस लेख की प्रति तो तब नहीं मिल पाई थी लेकिन यह जानना सुखद रहा कि पति-पत्नी दोनों संगीत के अच्छे जानकार हैं और उस पर लिखते भी रहते हैं। उमा जी मात्र 13 वर्ष की थीं जब नित्यानंद मैठाणी से सन 1955 में उनका ब्याह हुआ था। एक जगह उन्होंने लिखा है कि ‘स्कूली दिनों में मैं संगीत और नृत्य के कार्यक्रमों में भाग लेती रहती थी। शादी के बाद मुझे पिताजी (ससुर जी) और पति से संगीत के प्रति प्रोत्साहन मिला।’ इंदौर जाकर पति-पत्नी दोनों ने उस्ताद आबिद हुसेन खान से शास्त्रीय संगीत सीखा। उमा जी अच्छी गिटारवादक हैं।
10 नवम्बर 1934 को श्रीनगर (गढ़वाल) में माता सुमित्रा और पिता भास्करानंद के घर जन्मे नित्यानंद मैठाणी अपने पिता का बड़े गर्व से जिक्र किया करते थे जिन्होंने 1928-29 में इलाहाबाद से कानून की डिग्री लेने के बाद श्रीनगर को ही अपना कर्मक्षेत्र बनाया। अच्छे वकील होने के साथ ही उनका साहित्य-संगीत के प्रति उनका गहरा अनुराग था। कविताएं भी वे लिखा करते थे। नित्यानंद जी ने अपने पिता की स्मृति में एक पुस्तक सम्पादित की है- ‘पण्डित भास्करानंद मैठाणी।’ उसमें वे लिखते हैं –‘1922 में जब वे इलाहाबाद में पढ़ रहे थे तब मेयो कॉलेज में पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के निर्देशन में ‘वंदेमातरम’ (की स्वर रचना) में सहभागी बनने का गौरव भी उन्हें प्राप्त हुआ था। श्रीनगर में उन्होंने संगीत सरिता बहाने का कार्य किया था। वे कई वर्षों तक वहां की रामलीला के संचालक रहे। कई किरदारों को उन्होंने सफलता से निभाया।’ पिता के बारे में उनका यह उल्लेख वास्तव में ध्यान देने योग्य है- ‘यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि तीन दशकों से अधिक समय तक श्रीनगर नगर पालिका का अध्यक्ष होने पर भी उनके खाते में मात्र 39 रुपए थे।’ उस समय के प्रमुख राजनेताओं, साहित्यिकों और संगीतकारों से उनका सम्बंध था।
नित्यानंद जी छह भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। एक भाई कृष्णानंद और चार बहनें- सुलोचना, विमला, दमयंती और हेमलता। अपने जन्म के बारे में उन्होंने लिखा है –‘हम छह भाई-बहन हैं। वैसे तो आठ होने चाहिए थे किंतु दैव योग से मेरा भाई जिस दिन मेरा जन्म हुआ उसी दिन परलोक सिधार गया। उस समय उसकी उम्र केवल चार वर्ष थी।’ एक बहन की भी बचपन में मृत्यु हो गई थी।
1948 में अपने गृहनगर श्रीनगर से हाईस्कूल करने के बाद उन्होंने पौड़ी से इण्टर किया और आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद गए। वहां कई साहित्यकारों और प्राध्यापकों से उनका सम्पर्क हुआ। प्रसिद्ध इतिहासकार जसवंत सिंह नेगी उन्हें इतिहास पढ़ाते थे। नेगी जी से वे बहुत प्रभावित हुए और उनके प्रिय शिष्य बने। नेगी जी के निधन पर मैठाणी जी ने ‘नैनीताल समाचार’ में एक लम्बा पत्र लिखकर उनको आत्मीयता से याद किया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में डॉ रामकुमार वर्मा और डॉ उदय नारायण तिवारी से उन्होंने नाटकों और लोक साहित्य की शिक्षा पाई थी।
जनवरी 1958 से मैठाणी जी ने जम्मू केंद्र से आकाशवाणी की सेवा शुरू की। एक साल बाद उनका स्थानानतरण श्रीनगर (कश्मीर) केंद्र हुआ। 1964 में लखनऊ केंद्र आने तक वहीं काम करते रहे। अक्टूबर 1962 से लखनऊ केंद्र से ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम शुरू हो चुका था। संगीत के अच्छे जानकार होने के कारण उन्हें संगीत विभाग की जिम्मेदारी दी जाती थी लेकिन लखनऊ में उन्होंने काफी समय संगीत विभाग के साथ-साथ ‘उत्तरायण’ का काम भी देखा। लखनऊ केंद्र में रहते हुए उन्होंने उत्तराखण्ड के दूरस्थ एवं सीमांत क्षेत्रों की यात्राएं कर लोक संगीत सभाओं की कई रिकॉर्डिंग कीं। नैनीताल समाचार के एक अंक (15 से 31 मई 20012) में मैठाणी जी ने इन यात्राओं का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है –’21 नवम्बर 1974 को अगस्त्यमुनि में हुए कार्यक्रम में तारादत्त सती, बृजेंद्र लाल साह और लेनिन पंत के मौजूद होने का मुझे स्मरण हो रहा है। गोपेश्वर में एक बड़ा कवि स्म्मेलन भी किया था। नरेंद्र नगर में 17 अक्टूबर 1976 को एक विशाल लोक संगीत सभा की रिकॉर्डिंग के सम्पादित अंश लखनऊ केंद्र से रात्रि 10.30 से 11.30 तक प्रसारित किए गए। उत्तराखण्ड के नामी कलाकारों को लेकर मैंने 12 नवम्बर 1976 को आकाशवाणी की ओर से उत्तरकाशी में विराट लोकसंगीत सभा की। गोचर का प्रसिद्ध मेला 14 नवम्बर को नेहरू जी के जन्म दिवस पर आरम्भ हो गया था। इन्हीं कलाकारों को लेकर वहां 15 नवम्बर को कार्यक्रम प्रस्तुत किया। लखनऊ वापस आते हुए इन कलाकारों का कार्यक्रम 18 तारीख को भीमताल में भी करवाया।’
उत्तराखण्ड के लोक संगीत और लोक साहित्य पर केंद्रित कई रूपक, नाटक, साक्षात्कार और वार्ताएं उन्होंने लिखे, जिनमें कई गढ़वाली बोली में हैं। चंद्र सिंह गढ़वाली, नेता जी सुभाष बोस के सचिव कर्नल बुद्धि सिंह रावत, बाबा नागर्जुन, डॉ शिव प्रसाद डबराल, बनारसी दास चतुर्वेदी, सत्य प्रसाद रतूड़ी, डॉ डी डी पंत, सरला बहन, जैसी कई हस्तियों की भेंटवार्ताओं का उल्लेख वे अक्सर किया करते थे। सन 1985 में मैठाणी जी फिल्म एवं टेलीविजन प्रशिक्षण संस्थान में ट्रेनिंग के लिए पुणे गए। वहां उन्होंने अपने गुरु, इतिहासकार जसवंत सिंह नेगी जी की प्रेरणा से ही भण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट पर पंद्रह मिनट की डॉक्यूमेण्ट्री बनाई थी।
जम्मू-कश्मीर और लखनऊ केंद्रों के अलावा वे रामपुर, नजीबाबाद और गोरखपुर केंद्रों में भी तैनात रहे। आठ साल केंद्र निदेशक के रूप में कार्य किया। नजीबाबाद केंद्र में उनका लम्बा कार्यकाल गुजरा। पहली बार कार्यक्रम अधिकारी के रूप में 1977 में जब उस केंद्र की शुरुआत हुई। फिर 1987 में वहां केंद्र निदेशक बन कर गए। 1992 में केंद्र निदेशक पद से वहीं से रिटायर हुए।
जैसा कि प्रारम्भ में कहा है, गढ़वाली बोली के प्रति मैठाणी जी का गहरा अनुराग था। अपनी बोली में उन्होंने निरंतर लिखा। कहानियां और उपन्यास भी। उनके गढ़वाली उपन्यास ‘निमाणी’ के बारे में प्रसिद्ध रंगकर्मी और लेखक उर्मिल कुमार थपलियाल कहते हैं कि उसमें इतनी ठेठ गढ़वाली बोली है कि सामान्य पाठक के लिए समझना मुश्किल हो जाता है। ‘रामदेई’ नाम से उनकी गढ़वाली कविताओं का संकलन प्रकाशित है। हिंदी और गढ़वाली में नाटक, लेख, कहानियां और वार्ताएं तो बहुत लिखी हैं। आकाशवाणी नजीबाबाद के लिए उन्होंने ‘न्याय-द्वारकी’ शीर्षक से 200 पारिवारिक धारावाहिक लिखे जो सप्ताहिक प्रसारित होते थे। लोक संगीतज्ञ अम्बा शायर के बारे में उन्होंने शोध करके लिखा कि वे श्रीनगर गढ़वाल की रामलीला के जन्मदाता थे।
रिटायर होने के बाद उनकी रचनाशीलता जारी ही नहीं रही, बल्कि बढ़ गई थी। उनकी स्मृति अच्छी थी और संकलन भी अच्छा बना रखा था। अपने घर के एकांत में हाल-हाल तक वे कुछ न कुछ लिखते-पढ़ते रहते थे। अक्सर फोन पर चर्चा भी करते थे। ‘नैनीताल समाचार’ में प्रकाशित सामग्री पर बात करते और साथियों को याद करते थे। उनसे कई विषयों, व्यक्तियों और स्वयं उनके बारे में बात करने की योजना थी। योजना ही रह गई।
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