विनीता यशस्वी
नई टिहरी को जाते हुए हेवल नदी के किनारे खाड़ी नाम का एक छोटा सा गाँव पड़ता है जहाँ सड़क के किनारे ‘समूण माउन्टेन फूड कनेक्ट’ नाम से एक दुकान कुछ वर्ष पहले ही खुली है जिसे अरण्य रंजन ने अपने कुछ मित्रों और आस-पास के गाँव वालों के साथ मिल कर बनाया और अब ‘समूण माउन्टेन फूड कनेक्ट’ अपनी पहचान भी बनाता जा रहा है।
इसको शुरू करने के बारे में अरण्य रंजन बताते हैं कि – हम लोग गाँवों में जाते रहते थे और हमारे लिये यह एक चिंता का विषय था कि गाँवों में खेती धीरे-धीरे खत्म हो रही थी और खेत बंजर होने लगे थे। हमने सोचा कि इसे रोकने के लिये हम क्या प्रयास कर सकते हैं। इस मुद्दे को ही केन्द्र में रखते हुए 2015 में हमने ‘पानी और बीज’ पर बात करने के लिये एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें राधा दीदी समेत पूरे भारत से कई जानी-मानी हस्तियां आयी। इस सम्मेलन में हमने एक नया प्रयोग करते हुए बाजार से सिर्फ तेल, गुड़, चीनी और नमक ही खरीदा बांकि सारी चीजें गाँवों से ही इकट्ठा की और मेहमानों को अपना पारंपरिक खाना ही बना कर खिलाया। तीन दिन का यह सम्मेलन 5 दिन चला और लोगों ने इस प्रयोग को पसंद किया। उस दिन हमने तय किया कि अपने पारंपरिक खाने के लिये हम कुछ करेंगे। उसके बाद ही हमने गाँवों में जाकर महिलाओं से बात की और वहीं से हमारे प्रोजेक्ट में ‘समूण’ शब्द आया। ‘समूण’ गढ़वाली का शब्द है जिसका मतलब होता है एक ऐसा प्यारा तोहफा जो उपहार देने वाले की याद दिला दे।
अरण्य आगे बताते हैं कि – हमने गाँव की महिलाओं से कहा आपने इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी खेती जैसा कठिन काम नहीं छोड़ा है इसलिये आप जितना उगा सकते हैं उतना उगाइये और पहले अपने परिवार की जरूरत को पूरा कीजिये और उसके बाद जो बच जाये उसे ‘समूण’ के तौर पर हमें दे दीजिये। हम इसे ‘समूण’ के तौर पर ही बाजार में देंगे और कोशिश करेंगे कि आपको इसका बेहतर मूल्य मिल जाये। इसी उद्देश्य के साथ 9 नवम्बर 2015 को हमने खाड़ी में ‘समूण माउन्टेन फूड कनेक्ट’ की शुरूआत की। हमने आसपास के गाँवों से दाल, अनाज तथा अन्य वस्तुओं को इकट्ठा करके उसकी पैकिंग की। पैकिंग में 15-20 रुपये का खर्च आया उसे जोड़ के बाजार में बेच दिया। ये सिलसिला दो-तीन साल तक चला। इससे किसानों को भी अच्छा दाम मिल जाता था। इस दौरान हमने हल्दी, दालों तथा अन्य उत्पादों के दाम भी रिवाइज करवाये और अब मार्केट में वहीं दाम चलते हैं।
वो अपनी बात को बागे बढ़ाते हुए बोले – हमें सामान तो मिल रहा था और वो बिक भी रहा था पर अकसर लोगों के सवाल होते थे कि गहत की दाल, फांड़ा, झंगोरा जैसी चीजों को बनाते कैसे हैं ? हम समझा तो देते थे पर बात बन नहीं रही थी हैं। दो-तीन साल के अनुभव से लगने लगा कि अपने पारंपरिक अनाज को मार्केट देना है तो चाउमिन, मोमो, बन आमलेट बना के ये नहीं कर सकते हैं इसलिये हमने यहीं के व्यंजनों को बना कर खिलाने का तय किया जिसके बाद हमने अपने सभी टीम मैंम्बर्स से बात की और 2 अक्टूबर 2019 को एक छोटी रसोइ की शुरूआत हुई। शुरुआत के एक महीने तक तो हम खुद ही बनाते और खुद ही खाते थे क्योंकि लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि हम आखिर ये क्या कर रहे हैं ? कई लोग जिज्ञासावश हमसे पूछने आ जाते थे और उसी जिज्ञासा में वो खा भी लेते थे। इस तरह लोगों का आना शुरू हुआ और उन्हें हमारा खाना पसंद आने लगा। इसके बाद हमारे ग्राहकों की एक चेन बनने लगी और कई तरह के लोग हमसे जुड़ गये।
अरण्य बताते हैं कि उनका काम मोटे तौर पर दो वर्गों में विभजित है। एक रसोई में और दूसरा प्रोडेक्शन में जिसमें आटा, मसाला और तेल आदि तैयार होता है। हमारे कोर ग्रुप में 6-7 लोग हैं जिसमें 2 पुरुष हैं और बाँकि सब स्थानीय महिलायें शामिल हैं। इसके अलावा जब हमें बाहर से केटरिंग के बड़े ऑर्डर मिलते हैं या रसोई में काम ज्यादा बढ़ जाता है तो हम गाँव से अन्य 10-15 महिलाओं को भी बुला लेते हैं जो हमारी मदद करती हैं। जब हमने रसोई की शुरूआत कि उस समय हमने तय किया था कि हम फास्ट फूड नहीं बनायेंगे इसलिये बच्चे हमसे दूर रहते थे ये सोच कर कि घर में भी यही खाना खाते हैं और यहाँ भी वही मिल रहा है। बच्चों को अपनी रसोई तक लाने के लिये हमने कुछ नये प्रयोग किये और अब बच्चे भी हमारे ग्राहक हैं।
अरण्य आगे कहते हैं – असल में मार्च 2020 में कोविड के कारण लॉकडाउन हो गया और सभी कामकाज लगभग बंद हो गये। उस दौरान हमारा एक साथी महेश दूबे जो आईपीसी, ग्रेंड भारत, दिल्ली में शैफ है, गाँव वापस आया गया। दूसरे लॉकडाउन के दौरान हमने उससे कहा कि वो हमारे पारंपरिक अनाज से बच्चों के लिये कुछ नया बनाने की कोशिश करे तो उसने हमारी बात मान ली और मडुवा के साथ दूसरी दालों को मिला कर समोसा जैसा कुछ बनाने का आइडिया आया। कड़ी मेहनत के बाद घर की रसोई में ही हमने मडुवा और दाल का समोसा बनाया। हम लोगों ने आपस में ही उसे टेस्ट किया और फिर उसने हमारे दूसरे साथियों को भी समोसा बनाना सिखाया। उसके बाद ही हम वो समोसा बाजार में लाये। बाजार में आते ही हमारा समोसा बड़े लोगों को तो पसंद आया ही पर जिन बच्चों को ध्यान में रख के हमने समोसा बनाया था उनको भी ये समोसा खूब पसंद आया।
मेरे दोस्त ने हमें कुकिंग कुछ छोटी-छोटी टिप्स भी दीं जिसके बाद हमने मडुवा मोमो भी बनाये और ये भी बड़े और बच्चों दोनों ने खूब पसंद किये। स्नैक्स में हम गहत दाल की पटुंगी, उड़द दाल पकौड़ी बनाते हैं। अब तो हमारे ग्राहकों की संख्या ऐसी हो गयी है कि हमें उनके आते ही अंदाज आ जाता है कि किस ग्राहक को क्या चाहिये और हम ऑर्डर मिलने से पहले से ही उसे बनाना शुरू कर देते हैं। ‘समूण माउन्टेन फूड कनेक्ट’ में सारा किचन स्थानीय महिलायें ही संभाल रही हैं। इनमें से कोई भी प्रोफेशनल नहीं रहा है।
अरण्य बताते हैं कि पर्यटन समय में काफी पर्यटक इस रसोई में आते हैं और स्थानीय तो हमेशा ही आते हैं। उत्तराखंड के बाहर के भी कई लोग अब हमारे परमानेंट ग्राहक हैं। ऐसे ही एक ग्राहक हैं भोपाल के डॉक्टर जो गर्मियों में नई टिहरी में ही रहते हैं और रोज हमारे यहाँ ही लंच करते हैं और डिनर पैक करके ले जाते हैं। ऐसी ही एक एक बार एक रसियन लड़की अपनी ऋषिकेश की सहेली के साथ यहाँ आयी और हमारे यहाँ का खाना खाकर बहुत खुश हुई। उनसे लगभग साढ़े तीन घंटे तक हमारे साथ बिताये और जाते समय बोली – मुझे लगभग तीन महीना भारत आये हुए हो गया है, आज मैंने पहली बार तसल्ली का खाना खाया है। उसकी दोस्त अपने दूसरे साथियों के साथ अब हमारे यहाँ हमेशा आती है। ऐसे ही एक ग्राहक हैं जिनका यहाँ रिसोर्ट है वो जब भी अपने रिसॉर्ट में जाते हैं हमारे यहाँ ही खाना खाते हैं। उनके रिसॉर्ट के गेस्ट तक भी हमारे यहां ही खाना खाते हैं। अरण्य ने एक दिन का एक किस्सा बताया कि – एक 60 वर्ष के आसपास की महिला हमारे यहाँ आईं और सबसे पहले उन्होंने हमारा पूरा किचन देखा। जब उन्हें तसल्ली हो गयी कि किचन बिल्कुल साफ है उसके बाद उन्होंने नास्ते का ऑर्डर दिया और खाना खा कर खुश हो गयी। अब वो अपनी बेटी और पति जो कि रिटायर्ड ब्रिगेडियर हैं उनके साथ हमारे यहाँ आती हैं।
शुरुआती दिनों को याद करते हुए अरण्य बताते हैं कि – जब हम ‘समूण माउन्टेन फूड कनेक्ट’ खोलने की सोच रहे थे तब इस बात को लेकर असमंजस में थे कि स्थानीय लोग इस बारे में क्या सोचेंगे क्योंकि वो तो इस खाने को खाते ही रहे हैं पर मजेदार बात यह रही कि गाँव के बुजुर्गों को हमारा खाना बहुत पसंद आया क्योंकि उनका मानना था कि घर में अब वैसा पारंपरिक खाना नहीं मिलता है इसलिये बुजुर्ग उस खाने का स्वाद लेने के लिये हमारे यहां आते रहते हैं। बच्चे भी अब मोमो, समोसा के साथ झिंगोरा की खीर को बहुत पसंद करते हैं। झंगोरा की खीर का तो हम ऑर्डर भी पूरा नहीं कर पाते हैं।
अरण्य कहते हैं – गाँव के लोगों का बहुत सहयोग हमें रहता है क्योंकि हमारा सारा सामान गाँव से ही आता है। गाँव वालों की थोड़ी-बहुत आर्थिक तो सुधरी ही है क्योंकि उनको पता है कि हमारा रेट सबके लिये एक बराबर है और हम किसी के साथ धोखा नहीं करते। किसी की डिमांड आने पर हम देसी घी भी गाँव से ही मँगवाते हैं। हमें बाजार से सिर्फ तेल, नमक और चीनी आदि ही लेनी होती हैं।
अरण्य गर्व से कहते हैं कि ‘समूण माउन्टेन फूड कनेक्ट’ को खड़ा करने में हमारे कई मित्रों ने सहयोग किया और कई मित्र तो आज भी हमारे साथ डटे हुए हैं। सबसे ज्यादा सहयोग ‘हिमालय सेवा संघ’ के मनोज पांडे जी से मिला। उन्होंने हमारी योजना को शुरू करने में अपने और अपने मित्रों की ओर से बहुत सहयोग दिया। रसोई के सामान लाने में भी उनका सहयोग रहा। उनके अलावा जिन्हें हमारा कॉन्सेप्ट पसंद आया उन्होंने आर्थिक तौर पर या हमारे लिये सामाना फर्नीचर आदि उपलब्ध करवा के हमारा सहयोग किया साथ ही सुनीता बहुगुणा, समीरा, कंचन और धूम सिंह मंद्रवाल ये सब तो हमारे साथ हर समय रहते ही हैं।
2 Comments
विजया सती
कितनी सुंदर जानकारी, कैसा बढ़िया प्रयास !
अरण्य और उनके साथी, इधर का रुख करने की योजना बनाएं. बहुत जरूरत है मोमो चाउमिन से छुटकारा पाने की.
विजया सती
कितनी सुंदर जानकारी कितना सुंदर प्रयास !
अरण्य और उनके साथी इधर का भी रुख करने की जुगत करें, बहुत जरूरत है मोमो चाउमिन से छुटकारा पाने की !