‘हिमालय दिवस’ की रस्म तो पूरी हो गयी पर अभी भी जो सवाल मौजूद हैं उन सवालों को उठाती एस.पी. सती की ये रिपोर्ट –
हिमालय इसलिए विश्व के सर्वाधिक महत्वपूर्ण भू आकृत्तियों में से एक है क्योंकि उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव के बाद हिमालय ही ऐसा क्षेत्र हैं जहां सर्वाधिक बर्फ विद्यमान है जो कि उच्च हिमालयी घाटियों में 15000 ग्लेसियरों में 12000 घन किलोमीटर तक विस्तारित है. इसी कारण इसे तीसरा ध्रुव भी कहते हैं. हिमालय एवेरेस्ट सहित विश्व की कुछ सर्वाधिक ऊँची चोटियों के लिए भी जाना जाता है जिनमे से करीब 50 से अधिक चोटियाँ 7200 मीटर से ऊँची हैं. हिमालय में तो करीब छ: करोड़ लोग निवास करते हैं परन्तु इसके संसाधनों जिनमें मुख्यतः गंगा, सिन्धु और स्वापो-ब्रम्हपुत्र तीन विशाल जलागमों में बहता जल-मिट्टी है, पर एशिया की लगभग साठ करोड़ जनसंख्या निर्भर करती है. यही नहीं इन जलागमों में सघन खेती और प्रचुर जैव विविधता, पर्यावरण के लिए कामधेनु का काम करती हैं. हिमालय ना होता तो भारतीय मानसून ना होता और दक्षिण एशिया का अधिकाँश भाग सहारा मरुस्थल की तरह वीरान होता, अतः इस दृष्टि से सम्पूर्ण दक्षिण एशिया का जीवनदाता है हिमालय. विद्वानों का मत है कि भारतीय भूभाग में जिस अनूठी मानव संस्कृति का विकास हुआ, उसके विकसित होते रहने में हिमालय का बहुत बड़ा योगदान है.
सर्दियों में योरोप से पूर्व की और बहने वाली सर्द हवाओं का अधिकाँश भाग हिमालय की श्रेणियों द्वारा उत्तर की ओर को परावर्तित कर दिया जाता है और सिर्फ एक छोटा हिस्सा ही भारतीय उप महाद्वीप में प्रवेश करता है. इसी कारण भारतीय उप महाद्वीप में जाड़ों में इतनी अधिक ठण्ड नहीं पड़ती है जितनी कि इन्ही देशान्तरों पर योरोप में पड़ती है और यहाँ का मौसम अपेक्षाकृत सुगम बना रहता है. हिमालय के कारण भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में बहने वाली अधिकाँश नदियाँ सदा नीरा हैं और यह जैव विविधता की प्रचुरता तथा सघन कृषि वाला क्षेत्र है.
पारिस्थितिकि विज्ञानी हिमालय द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप को दी जाने वाली पारिस्थितिकी सेवाओं को तीन भागों में बांटते हैं. सर्व प्रथम आपूर्तिकर्ता के रूप में इसके तहत गंगा-यमुना, सिन्धु और ब्रह्मपुत्र नदियों के मैदानी क्षेत्रों को जल एवं उपजाऊ मृदा की आपूर्ति. इस कारण इस क्षेत्र की उर्वरता और जल उपलब्धता के कारण इसे सर्वाधिक उपयोगी क्षेत्रों में से एक बनाती है. दूसरी भूमिका नियंत्रक के रूप में: इसके तहत भारतीय उपमहाद्वीप में मानसून और सम्पूर्ण जलवायु के रूप में हिमालय की भूमिका को रख सकते हैं. और तीसरा हिमालय इस की बहु-उपयोगी जैविविधता हिमालय के कारण प्राकृतिक रूप से इस उप महाद्वीप की कुल जैव विविधता का संरक्षण भी इसकी महत्वपूर्ण पारिस्थितिक सेवा है.
यद्यपि कवियों ने हिमालय को अटलता, दृढ़ता का प्रतीक माना है परन्तु वाताविकता यह है कि हिमालय अत्यंत भंगुर श्रेणिया है. ये विश्व की सर्वाधिक् शैशव श्रेणिया हैं एयर इनके बनने की प्रक्रिया अभी भी बदस्तूर जारी है. इसी कारण यहाँ भूगर्भीय हलचलें होती रहती हैं और लगातार छोटे बड़े भूकंप आते रहते हैं. भूकम्पों के अलावा भूस्खलन, हिमालय की नदियों में आने वाली अचानक बाढें, अतिव्रिष्टि जनित आपदाएं, वनाग्नि और सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाएं हिमालय क्षेत्र को विश्व के चंद सर्वाधिक प्राकृतिक आपदाओं वाले क्षेत्रों में शुमार करती हैं.
हिमालय और हिमालय के जड़ में सम्पूर्ण क्षेत्रों में सर्वाधिक नुकसान तो यहाँ समय समय पर आये भयानक भूकम्पों के कारण हुआ है. इनमें सन् 1505, 1828,1885, 2005 तथा 2015 के कश्मीर भूकंप, 1905, 1975 के हिमाचल भूकंप, 1803, 1916, 1991, 1999 के उत्तराखंड भूकंप, 1897, 1932, 1950, के उत्तरपूर्व भूकंप, 1934, 2015 के बिहार तथा नेपाल भूकंप..विनाशकारी भूकम्पों की श्रृंखला के बानगी भर हैं.
भूकम्पों के सम्बन्ध में यहाँ यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि पिछले दो ढाई सौ सालों में हिमालय में कश्मीर से लेकर असम तक हर जगह बड़े भूकंप आ चुके हैं जिनमे 1905 का कांगड़ा भूकंप , 1934 का नेपाल बिहार सीमा का भूकंप और 1950 का आसाम भूकंप प्रमुख हैं जो कि रिक्टर स्केल पर 8 या उससे अधिक विराटता के थे..हिमालय का उत्तराखंड वाला करीब सात सौ किमी वाला क्षैतिज क्षेत्र ऐसा है जनहान अभी तक ज्ञात इतिहास में इतना बड़ा भूकंप नहीं आया है. लगभग सभी भूकंप विज्ञानी मानते हैं कि हिमालय में अगला 8+ तीव्रता का भूकंप का क्षेत्र उत्तराखंड ही होगा. विशाल भूकम्पों से अभी तक निरापद इस क्षेत्र को भूकंप विज्ञानी ‘मध्य भूकंपीय नीरवता’ याने कि ‘सेन्ट्रल सिस्मिक गैप’ वाला क्षेत्र मानते हैं.
भूकम्पों के अतिरिक्त दूसरी बड़ी समस्या जिससे हिमालय जूझ रहा है वह है मौसम परिवर्तन जनित प्रभाव. वैज्ञानिकों का कहना है कि विश्व का तापमान लगातार बढ़ रहा है और तापमान बढ़ने की यह गति अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा हिमालय में सर्वाधिक है. इसका सीधा मतलब है कि हिमालय के ग्लेसियरों का तेजी से पिघलना. ग्लेसियरों के पिघलने की गति खतरनाक हद तक पहुच गयी है और कुछ वैज्ञानिक तो कुछ दशकों में हिमालय के अधिकाँश ग्लेसियरों का अस्तित्व समाप्त होने की भविष्यवाणी भी कर चुके हैं. इसका सीधा सम्बन्ध यहाँ से निकलने वाली नदियों के अस्तित्व पर तो तत्काल पडेगा ही. प्रतिष्ठित विज्ञान शोध पत्रिका “नेचर जियोसाइंस” के ताजा अंक में प्रकाशित एक शोध के अनुसार मौसम परिवर्तन के कारण हिमालय में बन चुके अथवा बन रहे लगभग पांच सौ से अधिक जल विद्युत् परियोजनाओं के भविष्य पर गंभीर संकट पैदा तो हुआ ही है साथ ही इन परियोजनाओं के कारण नदी घाटियों में निवास करने वाले करोड़ों लोगों की जिंदगी पर भी बड़ा संकट पैदा हो गया है. शोधपत्र के अनुसार तापमान में हो रही वृद्धि के कारण नदियों में पहले पानी की मात्रा में वृद्धि होगी और फिर नदियों में बहाव अत्यंत कम हो जाएगा. इसी तरह शोधपत्रिका ‘साइंस’ में प्रकाशित एक अन्य शोध के अनुसार उत्तरी गोलार्ध में बने हज़ारों बांधों ने नदियों के पहाड़-मैदान पारिस्थितिक अन्तर्सम्बन्धों को बुरी तरह प्रभावित कर दिया है. नदियों द्वारा प्रदत्त ‘इकोसिस्टम सर्विस’ पर व्यापक प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. जलागम क्षेत्रों में अपरदन और अवसादीकरण तो बढ़ा है परन्तु समुद्र में पहुंचने वाले अवसाद की मात्रा में उल्लेखनीय कमी आयी है..मैदानी क्षेत्रों में भी पहाड़ों से बह कर जमा होने वाले अवसादों की मात्रा में बड़ी कमी आयी है. अभी भी व्यापक अनुभव की जरूरत है.
सन 2013 में घटित केदारनाथ आपदा के बाद आपदा के आकार पर जल विद्युत् परियोजनाओं के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित हाई पावर कमेटी ने पाया कि घाटियों में विद्यमान हाइड्रोपावर परियोजनाओं में कारण आपदा के आकार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. इस आधार पर कमिटी ने उत्तराखंड की विभिन्न घाटियों में 13 निर्माणाधीन परियोजनाओं को तत्काल बंद करने की सिफारिश की. 7 फरवरी 2021 को उच्च हिमालयी क्षेत्र में अलकनंदा-धौलीगंगा की सहायक नदी ऋषिगंगा में अचानक बाढ़ आने से इस क्षेत्र में स्थित दो विद्युत् परियोजनाएं नेस्तनाबूत हो गयी थी. इस आपदा में दो सौ से अधिक बाँध कर्मियों की मृत्यु भी हुई थी. विभिन्न शोधों में यह बात सामने आयी है कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों की संवेदनशीलता के कारण कमसेकम इन क्षेत्रों में विद्युत् परियोजनाओं का निर्माण तत्काल प्रभाव से बंद कर देना चाहिए।
मौसमी परिवर्तन से अतिव्रिष्टि की घटनाएं बढना, वर्षा के वितरण में उल्लेखनीय बदलाव, और नदियों में गाद की मात्रा में वृद्धि शामिल है. विशेषज्ञ मानते हैं कि मौसम में आ रहे इस बदलाव के कारण हिमालय की कई दुर्लभ बनस्पतियां और जंतु विलुप्त हो जायेंगे. केदारनाथ त्रासदी जैसी अतिवृष्टि जनित आपदाएं बढेंगी, नदियों का व्यवहार असामान्य होता चला जाएगा.
उपरोक्त वर्णित प्रभाव या तो प्राकृतिक हैं या फिर ग्लोबल स्तर पर मानवकृत क्रिया कलापों के परिणाम हैं. परन्तु हिमालय पर मानवकृत हस्तक्षेप से चुनोतियाँ कई गुना गंभीर हो गयी हैं. अंधाधुंध बांधो का निर्माण, बड़े स्तर पर वनों का कटान, सडकों का निर्माण, और नदी मार्गों पर वस्तियाँ बसाना ये कुछ ऐसे क्रिया कलाप हैं जिनसे हमने अपने को बारूद के ढेर पर खडा कर दिया है. बांधों से नदी पारिश्तितिक तंत्र की अविरलता तो बुरी तरह से प्रभावित होती ही है, इनसे हिमालय का मैदाने से पारिस्थितिक सेवा वाला रिश्ता भी असम्बद्ध हो जाता है. हम यह भूल जाते हैं कि हिमालय की नदियाँ केवल पानी ही नहीं बहाते हैं, वे हिमालय से बहुमूल्य मिट्टी भी बहाती हैं जो मैदानों की उर्वरता को अक्षुण बनाए रखती है. बांधों से मिट्टी का बहाव रुक जाता है जो कालान्तर में विनाश्कारी साबित होगा. इसके अतिरित नदी के जीवों का गमन वाधित हो जाता है. मछलियाँ प्रजनन के लिए उपरी क्षेत्रों में जाती हैं. बांडों से उनकी आवाजाही ठप्प हो जायेगी. यहीं नहीं कई वन्यजीवों का उपरी क्षेत्रों में नदी के दोनों तरफ आवागमन बुरी तरह से प्रभावित होगा. फलतः कई प्रजातियाँ नष्ट हो जायेंगी. वैज्ञानिक मानते हैं कि टिहरी सरीके बड़े जलाशय भूकम्पों को उत्प्रेरित करने में भी सहायक होते हैं.
उत्तराखंड राज्य गठित होने के बाद बांधों की संख्या में तो बाढ़ आयी ही . इसके अतिरिक्त अंधाधुंध सडकों के निर्माण ने भी एक बिलकुल नयी समस्या खड़ी कर दी. सन दो हज़ार मे राज्य गठन से पहले उत्तराखंड में सिर्फ 8 हजार किमी सड़कें थी आज ये लम्बाई करीब चालीस हज़ार किमी पार कर गयी है. पहाड़ों में एक किमी सड़क बनाने में 20 से 60 हज़ार घन मीटर मलवा पैदा होता है. इस तरह से देखें तो केवल सड़क निर्माण से हम अभी तक लगभग दो अरब घन मीटर मालवा हम पहाड़ी ढलानों पर डाल चुके हैं..जिससे पहाड़ों की बनास्पतियों का भारी नुक्सान हुआ है, नदियों में मलवे की मात्रा में कई गुनी वृद्धि हो गयी, इस कारण नदियों में अचानक सैलाव की घटनाओं में यकायक तेजी आ गयी है. भूस्खलन की घटनाएं तेजी से बढ़ी है. और. तेजी से ख़तम हो रही खेती को कई गुना अधिक नुक्सान हुआ है.
हिमालय का एक त्रास यह भी है कि हिमालय के मुद्दों पर कुछ न बोल कर सिर्फ सदा सत्य बोलो टाइप के निरपेक्ष नेरेटिव के दंगल खड़े कर सरकार से पद्म जैसे अलंकरण और पर्यावरण के पुरूस्कार झटकने वाले स्वनामधन्य पर्यावरणविदों ने असल लड़ाइयों को और कठिन बना दिया है. ये तथाकथित पर्यावरणविद असली मुद्दों पर या तो चुप रहते हैं और या फिर सरकारों के पक्ष में खड़े रहते हैं और जनता की लड़ाई कमजोर कर देते हैं। सरकारों के लिए ये नए नए उग आये पर्यावरणवादीयों की जमात मुद्दों को भटकाने के नए संसाधन के रूप में प्रयुक्त हो रहे हैं. हिमालय के गंभीर मुद्दों के लेकर उठाये जाने वाले बड़े कदमों के बजाय हिमालय दिवस जैसे अवसर सरकारी समारोह बन कर रह जाते हैं. सितम्बर माह प्रारम्भ होते ही उत्तराखंड सरकार ‘हिमालय बचाने की प्रतिज्ञा’ का समारोह टाइप अभियान चलाती है और मंत्री से लेकर संतरी तक, स्कूल से लेकर कॉलेज प्रतिज्ञाएं लेने में मशगूल हो जाते हैं. और इस तरह हिमालय बचाने की रस्में अदा हो जाती हैं. हिमालय दिवस का सार्थक उद्देश्य तो तब फलीभूत होगा जब इस दिन सरकारें और जन समुदाय अपना एक बेरहम ऑडिट करें कि पिछले एक वर्ष में हमने ऐसा क्या किया कि हमारे हिस्से का हिमालय थोड़ा बहुत ही सही पर बचा तो! नहीं तो सरोकारों के समारोह बन जाने से केवल उन्ही को फ़ायदा होगा जो हिमालय की दुर्गति के लिए जिम्मेदार हैं.
हिमालय की चुनौतियों का वर्णन एक लेख ही में समेटना असंभव है. तथापि इसमें हमने कोशिश की है कि खतरे कि एक बानगी दिखाई जाय. इन्ही खतरों के चलते हिमालय दिवस मनाने की प्रासंगिकता बनी है. जरूरत है आज के दिन में हम अपने विकास के मॉडलों पर पुनर्विचार करें . अन्यथा आप ही बताएं प्रतिज्ञा, उत्सव भाषणों में सिमटी इस रश्म अदायगी से कुछ होने वाला है क्या??