वर्तमान दौर की राजनीति में यह यकीन करना मुश्किल है कि कुछ दशकों पूर्व की राजनीति में ऐसे भी राजनेता हुआ करते थे , जो सरकार की जनविरोधी नीतियों का यदि विरोध करते तो विपक्ष में होते हुए भी जनहित की बातों में सरकार के साथ खड़े दिखते । च्योंकि हम विरोधी हैं इसलिए किसी विद्वेष की भावना से विरोध न होकर सकारात्मक विरोध हुआ करता । वह ’आया राम गया राम’ का दौर नहीं था, किंचित अंगुली में गिने जाने वाले लोगों को छोड़ दिया जाय तो जिस राजनैतिक विचारधारा से जुड़े होते, अपने पूरे राजनैतिक जीवन में उसके प्रति प्रतिबद्धता रहती ।
नैनीताल के प्रताप भैया भी उसी परम्परा के राजनेता थे । अपने राजनैतिक जीवन की शुरूआत उन्होंने अपने गुरू आचार्य नरेन्द्र देव के सान्निध्य में समाजवादी चिन्तन से प्रभावित होकर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) से की और 1957 में इसी पार्टी के प्रत्याशी के रूप में खटीमा-जहांनाबाद सीट से उत्तरप्रदेश विधानसभा में सबसे कम उम्र के विधायक के रूप में उ0प्र0 विधानसभा में उपस्थिति दर्ज करायी । आज जहॉ पूरी पार्टी एक पारिवारिक कुनबे में सिमट कर रह जाती है , उस दौर में विचारधारा व सिद्धान्तों के प्रति आस्था के सामने पारिवारिक रिश्तों की अहमियत सार्वजनिक जीवन में गौंण हो जाती थी । प्रताप भैया के पिता स्व0 आन सिंह कांग्रेस के एक सक्रिय कार्यकर्ता थे । प्रताप भैया जबविधायक के लिए संसोपा के उम्मीदवार के तौर पर खुद का चुनाव प्रचार कर रहे थे, तो उनके पिता अपने ही बेटे के विरोध में कांग्रेस पार्टी के प्रचारक थे । हालांकि पारिवारिक रूप से पिता -पुत्र के रूप में स्वाभाविक प्रेम व सम्मान था, लेकिन विचारधारा से समझौता दोनों को गंवारा नहीं था ।
इसी विधानसभा के चुनाव ने प्रताप भैया को जातिवाद व सम्प्रदायवाद की संकुचित मानसिकता से तौबा करने की सीख दी । हुआ यों कि खटीमा विधानसभा सीट के अन्तर्गत तब जहांनाबाद एक ऐसा मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र हुआ करता था , जहां से गैरमुस्लिम को समर्थन मिलने की बात कोई सोच भी नहीं सकता था। कांग्रेस पार्टी से इसी क्षेत्र से मुस्लिम उम्मीदवार मकसूद आलम थे और ये वो दौर था, जब पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व था । बहुत कम जनाधार वाला उम्मीदवार भी कांग्रेस के टिकट पर जीत हासिल कर लिया करता था । ये प्रताप भैया का गैरसाम्प्रदायिक चेहरा ही था कि उन्होंने कांग्रेस के उम्मीदवार, जो स्वयं मुस्लिम सम्प्रदाय से आता था, उस मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र से रिकार्ड मतों से प्रताप भैया ने विजय हासिल की । एक तरह से देखा जाय तो यह उनके राजनैतिक व सामाजिक जीवन का टर्निंग प्वाइन्ट था, जिसने उनमें जातिवादी व साम्प्रदायिक मानसिकता के प्रति सदा के लिए नफरत पैदा कर दी ।
1957 से उनके राजनैतिक सफर की शुरूआत मानें तो 1967-68 के संयुक्त विधायक दल की सरकार के कैबिनेट मंत्री के 10 माह का कार्यकाल तथा 1977 से 1979 तक जनता पार्टी की सरकार के दो वर्ष के कालखण्ड को छोड़ दिया जाय तो वे हमेशा प्रतिपक्ष की राजनीति में ही सक्रिय रहे । लेकिन यह विरोध नीतियों का था, व्यक्तिगत् नहीं । सत्ता पक्ष के शीर्षस्थ नेताओं से भी उनके उतने ही पारिवारिक व आत्मीय संबंध थे, जितने अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से । स्वयं को अपना अग्रज मानने वाले और कभी एक ही राजनैतिक दल में रहे नारायण दत्त तिवारी तथा राजा भाई के नाम से संबोधित करने वाले के0सी0पन्त हालांकि कांग्रेस के सत्तासीन राजनेता थे, लेकिन व्यक्तिगत् ताल्लुकात पारिवारिक सदस्य से थे । प्रताप भैया जिस भी गैर राजनैतिक समारोहों में इन्हें आमंत्रित करते, बड़ी आत्मीयता से उनमें शिकरत करते। जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चन्द्रशेखर का तो नैनीताल स्थित प्रताप भैया का बड़ा बाजार स्थित घर उनका प्रवास हुआ करता , जहॉ हफ्तों व यहां रहते । जनता पार्टी के उस समय के जाने-माने चेहरे जॉर्ज फर्नाण्डीज, मधु लिमये, मधुदण्डवते, सुरेन्द्रमोहन सरीखे शीर्ष नेताओं से पारिवारिक संबंध होने के बावजूद न तो कभी उन्होंने पार्टी के टिकट अथवा किसी पद की चाहत की और न उनसे चापलूसी कर अपने स्वाभिमान से समझौता किया ।
कई प्रसंग हैं उनके परस्पर अन्तरंग संबंधों के । एक बार जॉर्ज फर्नाण्डीज को उन्होंनें नैनीताल में शरदोत्सव पर आयोजित होने वाली विकास गोष्ठी में बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया । तब जॉर्ज फर्नाण्डीज, रक्षामंत्री के दायित्व से निवृत्त हो चुके थे गोष्ठी स्थानीय न्यू क्लब में सम्पन्न हुई और जॉर्ज फर्नाण्डीज बिना किसी सुरक्षा कर्मियों के प्रताप भैया, उनकी धर्मपत्नी श्रीमती बीना जी के साथ न्यू क्लब से बाहर निकले और फ्लैट्स से टहलते हुए मालरोड की तरफ जा रहे थे । जॉर्ज साहब हमेशा की तरह हल्के बादामी रंग के खादी कुर्ते, सफेद पायजामा तथा चप्पलां में साथ चल रहे थे । अक्टूबर के महीने में नैनीताल में हल्की ठण्ड का आगाज हो जाया करता है । स्वाभाविक था कि उन्हें ठण्ड लग रही थी । प्रताप भैया की धर्मपत्नी बीना जी से रहा न गया, बोली – भाई साहब ! आपको ठण्ड लग रही है, मेरा शॉल ओढ़ लीजिए । उन्होंने अपना शॉल उतारकर जॉर्ज साहब को दिया और उन्होंने बिना किसी नाज-नखरे के उस लेडीज शॉल को ओढ़कर मॉलरोड में चहल कदमी की ।
प्रतिपक्ष में होने के बावजूद वे सत्तापक्ष के शीर्षस्थ नेताओं को अपने विद्यालय के समारोहां में आमंत्रित करते और सत्तापक्ष के नेता भी बिना किसी राजनैतिक विद्वेष के उनके कार्यक्रमों में शिरकत करते । सत्तर के दशक शुरूआती वर्षों में संभवतः 1972 की बात होगी । प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी का नैनीताल का दौरा था । प्रताप भैया अपने विद्यालय के बालसैंनिकों, विद्यालय प्रधानाचार्य व उनके स्टाफ के साथ कतारबद्ध प्रधानमंत्री के स्वागत में मल्लीताल पं0 गोबिन्द बल्लभ पन्त की मूर्ति के सामने एकत्रित हुए । प्रशासन के पास प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में विद्यालय के बच्चों से मिलने का कोई पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम नहीं था । जिस पर तत्कालीन आयुक्त सुशीतल बनर्जी ने बिना पूर्वानुमति इस कार्यक्रम के लिए असमर्थता जाहिर की । प्रताप भैया ने प्रशासन को आश्वस्त किया कि ’प्रताप भैया उनसे अधिक देश का जिम्मेदार नागरिक हैं, और अन्ततः प्रधानमंत्री इन्दिरागान्धी ने बिना कोई पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के बच्चों की सलामी ली और संबोधित भी किया। ऐसा ही वाकया उस दौर का भी है, जब विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे । नैनीताल क्लब में उनके पहुंचने से पूर्व ही प्रताप भैया ने मुख्यमंत्री के प्रवास स्थल साइप्रस कॉटेज के बाहर सैंकड़ो बच्चों को सैनिक परिधान में स्वागत हेतु पंक्तिबद्ध कर दिया और मुख्यमंत्री के सम्मान में बालसैंनिकों की सलामी देने का कार्यक्रम तैयार कर लिया । च्योंकि सलामी के लिए मुख्य अतिथि हेतु कोई मंच वहॉ बना था नही । यह प्रताप भैया की सूझबूझ थी कि उन्होंने राज्य अतिथि गृह के स्टाफ से एक बड़े चौके की मांग की । संयोगवश चौका भी मिल गया । लेकिन मुख्यमंत्री के पूर्व घोषित कार्यक्रम में ऐसा कोई कार्यक्रम निर्धारित था नहीं । मुख्यमंत्री की कार ज्यों ही सामने पहुंची, प्रताप भैया जो स्वयं सैनिक गणवेश में थे, मुख्यमंत्री की कार की तरफ बढ़े और स्वयं ही मुख्यमंत्री जी की बांह पकड़कर सलामी मंच तक उन्हें लेकर चौके पर खड़ा कर दिया और मुख्य अतिथि से बालसैंनिकों की सलामी व संबोधित करने का आग्रह कर दिया । यह प्रताप भैया की समावेशी राजनीति का ही करिश्मा था कि मुख्यमंत्री ने बिना किसी नाज-नखरे के बालसैंनिकों की सलामी भी ली और बालसैंनिकों को संबोधित भी किया । इसके पीछे उनका दृढ़ आत्मविश्वास और एक बेदाग व्यक्तित्व ही था, जिससे सत्तापक्ष व प्रतिपक्ष उन्हें बराबर का सम्मान देता था ।
1975 जेपी आन्दोलन में दिल्ली शिकरत करने के बाद के बाद जब वे लौटे तो 25 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा हो गयी । विरोधी दलों के शीर्ष नेता जेलों में ठॅूसे गये । प्रताप भैया भी अपने स्तर से आपातकाल का पुरजोर विरोध करते रहे , यहॉ तक कि इसी आपातकाल के दौरान वार्षिक रूप से होने वाली अखिल भारतीय विधि विचार गोष्ठी में उन्होंने आपातकाल के दौरान किये गये 42 वें संविधान संशोधन पर नैनीताल में गोष्ठी आयोजित की, जिसमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्त्ति ने बेवाकी से गोष्ठी में अपने विचार रखे । न्यायशाखा के अन्य सदस्यों व अधिवक्ताओं ने खुलकर 42वें संविधान संशोधन पर चर्चा की । वहीं दूसरी ओर प्रतिपक्ष के कुछ नेता भूमिगत होकर विरोध कर रहे थे । ऐसी ही बिहार प्रदेश की एक नेत्री कमला सिन्हा नैनीताल आई , जिनके पर्वतीय क्षेत्र के भ्रमण के लिए प्रताप भैया ने अपनी बेटी नीता को उनके साथ भेज दिया, जो उस समय अध्ययनरत थी । आपातकाल का विरोध करने के बावजूद प्रताप भैया को गिरफ्तार न किया जाना लोगों को गले नहीं उतर रहा था । इसका उत्तर तत्कालीन जिलाधिकारी रविमोहन सेठी की उनकी सेवानिवृत्ति के बाद लिखी गयी ऑटोबायोग्राफी से उजागर हुआ, जिसमें तत्कालीन जिलाधिकारी लिखते हैं, कि जब -जब मुख्यमंत्री जी की अगवानी में पन्तनगर जाना होता तो हर बार मुझे प्रताप सिंह नाम के राजनेता को गिरफ्तार न किये जाने पर पूछा जाता और मुख्यमंत्री ऊपर से दबाव का हवाला देकर शीघ्र एक्शन की बात करते । अपनी किताब में रविमोहन सेठी बताते हैं कि जब बार-बार मुझसे कहा जाने लगा तो एक दिन मैंने स्पष्ट रूप से कहा दिया कि मैं किसी अपराध में उनको गिरफ्तार करूं? अच्छा होगा कि आप मेरा ही स्थानान्तरण यहॉ से कर दीजिएगा । यह था प्रशासन के लोगों का प्रताप भैया के प्रति सम्मान ।
आपातकाल के दौरान 20 सूत्री कार्यक्रम लागू किया गया । दरअसल बीस सूत्रीय कार्यक्रम था तो जनता के हित में, लेकिन जिस तरह सरकारी मुलाजिमों को परिवार नियोजन कार्यक्रम में लक्ष्य निर्धारित किया गया था , उससे अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए मुलाजिमों ने किसी भी हद तक जाने से परहेज नहीं किया और लक्ष्य प्राप्ति के लिए गैरशादीशुदा व्यक्ति की नसबन्दी तक करवा डाली । प्रताप भैया ने इस तरह की जोर-जबर्दस्ती का जहॉ पुरजोर विरोध किया, वहीं परिवार कल्याण कार्यक्रम को स्वैच्छिक रूप से अपनाने व वृक्षारोपण जैसे राष्ट्रीय महत्व के विषय पर शिविरों के माध्यम से जानजागरण भी किया । कहने का तात्पर्य यह है कि 20 सूत्री कार्यक्रम कांग्रेस सरकार का होने के बावजूद इसके सकारात्मक पक्ष के वे विरोधी नहीं थे, जैसा कि वर्तमान दौर की राजनीति में नजर आता है ।
1991 में उ0प्र0 विधानसभा के चुनाव में नैनीताल विधानसभा क्षेत्र से अन्तिम बार उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा । इस चुनाव में धनबल व बाहुबल के वीभत्स रूप को देखकर शायद उन्हें महसूस हुआ कि मतदाता किसी उम्मीदवार के काम को नहीं बल्कि व्यक्तिगत् प्रलोभनों को तरजीह देते हैं और ऐसी राजनीति करने की गवाही उनकी अन्तर्रात्मा नहीं देती। एक तरह से ऐसी वितृष्णा हुई कि सक्रिय राजनीति के स्थान पर उन्होंने शैक्षिक व सामाजिक गतिविधियों तथा क्षेत्र की समस्याओं व उनके समाधान के प्रयासों में ही समय देना शुरू कर दिया । जीवन के अन्तिम वर्षों में वे सक्रिय राजनीति से एक तरह से तटस्थ से हो चुके थे, लेकिन शैक्षिक व सामाजिक गतिविधियों में अन्तिम सांस तक वे पूरी मुश्तैदी के साथ सक्रिय रहे । हर रविवार व छुट्टी के दिनों में ग्रामीण क्षेत्रों का भ्रमण , वहां की समस्याओं व विकास की संभावनाओं की ओर शासन व प्रशासन का ध्यानाकर्षण, अपनी संस्थाओं राष्ट्रीय लोकसदन, लोकमंच , आचार्य नरेन्द्र देव शिक्षा निधि, जन नियोजन आयोग, युसुफ मेहर अली केन्द्र जैसी संस्थाओं की ओर से विभिन्न राष्ट्रीय पर्वों, महापुरूषों की जयन्ती अथवा पुण्यतिथि पर गोष्ठियों में विचार विमर्श तथा शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए नये नये शिक्षा संस्थानों की स्थापना तथा उनकी देखरेख में स्वयं को समर्पित रखा ।
आज जब प्रताप भैया हमारे बीच नहीं है, तो लगता है कि हमें सचेतक के रूप में हमेशा जागरूक रखने वाला अपना संरक्षक हमने खो दिया है । ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्च सदियों में कभी हमारे बीच आते हैं । उनकी जीवन पर्यन्त रचनाशीलता पर किसी वक्ता ने ठीक ही कहा था , आज प्रताप भैया जहां भी होंगे, वहाँ भी निरन्तर नई-नई योजनाऐं बनाने में लगे होंगे ।