बी. डी. सुयाल
वन विभाग हिमाचल में कार्य करने के दौरान मैंने उत्तराखण्ड के वन आन्दोलनों पर कभी गम्भीरता से ध्यान नही दिया था, वजह चाहे जो भी रही हो लेकिन इनके बारे में विस्तार से जानने की ललक हमेशा रही थी। उन्हीं दिनों शेखर पाठक द्वारा रचित “हरी भरी उम्मीद” नामक किताब प्रकाशित हुई थी। एक बार मैं नैनीताल के बड़े बाजार में व्यर्थ ही टहल रहा था मेरी नजर कंसल बुक डिपो के शीशे के शोकेस में प्रदर्शित इस किताब पर पड़ी, मैंने किताब खोल कर एक सरसरी निगाह डाली और अन्दाजा लगा लिया कि मेरी जिज्ञासा के अनुरूप किताब में काफ़ी मसाला मौजूद होगा, इसलिए खरीद ली और तुरंत ही पढ़ना भी प्रारंभ कर दियाद्य जैसे जैसे आगे बढ़ा, तत्कालीन वन नीतियों की कमियाँ व कार्यान्वयन से उत्पन्न कठिनाइयों की परतें खुलती गई। वन प्रशासन में संवेदनशीलता का अभाव, जन मानस से दूरी व अव्यवहारिक कार्य शैली समाज में असन्तोष का कारण बनी। जो कालांतर में जन आंदोलनों के रूप में प्रकट हुई। किताब में आंदोलनों व प्रतिरोधों का कृमवद्ध विवरण, उनके कारणों की खोज, स्वरूप व उपलब्धियों सहित प्रस्तुत किया गया है। स्वर्गीय सुन्दर लाल बहुगुणा व श्री चण्डी प्रसाद भट्ट के संघर्ष, बलिदान और उनके विचारों को संक्षिप्त रूप में कलमवद्ध किया गया है। दोनों महानायकों के विचारों व कार्य शैली में भिन्नता और उसके कारणों को भी चिन्हित किया गया है। आन्दोलन कर्ताओ से साक्षात्कार व छोटे बड़े हर आन्दोलनकारी के योगदान का पुस्तक में जिक्र से जाहिर है इस ऐतिहासिक दस्तावेज को तैयार करने में काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी होगी। पुस्तक में प्रस्तुत व्याख्या से स्पष्ट हो जाता है कि छोटे छोटे स्थानीय जायज़ मुद्दों का समय से हल न हो पाना जन आक्रोश का मुख्य कारण रहा जो आगे चलकर बृहद आन्दोलन में तब्दील हो गया। काफी लम्बे अरसे तक सरकार काफी लम्बे अरसे तक सरकार व वन प्रशासन का रवैया कठोर बना रहा जिसने जन आक्रोश की आग में घी का काम कियाद्य जंगलात प्रशासन की संवेदनहीनता, गैर तकनीकी निर्णय और उच्च अधिकारियों का निम्न कर्मचारियों की रिपोर्ट पर अंध भक्ति का कई बार पुस्तक में जिक्र है। जन आक्रोश में उठे मुद्दों का हल ढूढे वगैर जन मानस की भावनाओं को दरकिनार कर नाटकीय तरीके से जंगलौ की नीलामी की जल्दवाजी अचम्भित करने वाली है। परिस्थितियां चाहे जो भी रही हों जंगलात प्रशासन व आम लोगों के बीच दूरियाँ बढती चली गयी जिससे स्थानीय प्रतिरोधों को अखिल उत्तराखण्डी बनने में मदद मिली। किताब में, हालांकि तत्कालीन अधिकारियों का पक्ष मौजूद नहीं है फिर भी कई मौकों पर उनके असंवेदनशील व गैर जिम्मेदाराना रवैये को नकारा नहीं जा सकता। कुल मिलाकर जल, जमीन, जंगल व सामाजिक कुरूतियों से सम्बन्धित सभी प्रतिरोधों व आन्दोलनों की व्याख्या पुस्तक में मौजूद है। पुस्तक में दी गयी जानकारी से पाठक सहमत या असहमत हो सकता है फिर भी मैं समझता हूँ वन, प्रकृति व पर्यावरण प्रेमियों तथा इन विभागों से सम्बन्धित सभी लोगों को इस किताब को एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए।
फोटो इंटरनेट से साभार