रेवती बिष्ट
‘‘ऋतुरैणा, चैतोमैना, ऋतुरैणा, चैतों मैना, एग्यो ईजू चेतो मैना……’’ इस गीत के बोल अब पहाड़ में बहुत कम सुनाई देते हैं और इन्हें गाने वाले भी पहाड़ के जंगलों की तरह लुप्त होते जा रहे हैं। पहले स्थानीय लोग मण्डली बना कर गाते हुए, हुड़का बजाते हुए, सपरिवार आते और गाते- ‘‘कफुआ बासण फैगो चैत मैणा, घुधुती घुराण लागि चैत मैणा……।’’ इन्हीं गीतोें के साथ बसन्त ऋत का आगमन की घोषणा हो जाती है और चैत्र मास शुरू हो जाता है।
ऋतुएं तो आती रहती हैं और महीने भी बदलते रहते हैं। परन्तु यह चैत्र मास नई नवेली दुल्हनों और ससुराल गई बेटियों के लिये खास है, क्योंकि उत्तराखण्ड में इसी चैत्र मास में बेटियों को भिटौली देने का रिवाज चला आ रहा है। इसलिये चैत के महीने बेटियों को मायके की याद आना तो स्वभाविक है ही, परन्तु मां-बाप को भी याद रहता है कि चैत मास मेें बेटी को भिटौली देने जाना है। भिटौली के लिये साड़ी, धोती, पकवान, गुड़ पापड़ी, लगड़, पुवे, खजूरे और कुछ पैसे देने का रिवाज है। मायके वाले बेटी के यहां ये सब चीजें लेकर पहुंचते हैं तो बेटी भी खुश हो जाती हैै। भिटौली को पास पड़ोस में और गांव में बांटती है और बहुत खुशी मनाती है कि भिटौली देने उसके पिता या भाई आए हैं। किसी कारणवश पिता या भाई भिटौली देने न जा पाएँ तो बहिन भी भिटौली देने जा सकती हैं। किसी के न जाने की स्थिति में भिटौली की सामग्री या पैसे इत्यादि भेज दिये जाते हैं।
चैत मास की संक्रांति के दिन ही उत्तराखण्ड में फूलदेई का त्योहार मनाया जाता है। गांवांे में बच्चे पहले दिन ही लाल बुरांश और पीले प्योली के फूल जंगल से ले आते हैं और संक्रंाति के दिन सुबह-सुबह नहा धोकर झोले या थालियों में चावल, गुड़ और फूल रख कर पहले अपनी दहलीज पूजते हंै, फिर पास पड़ोस की देहलीज पूजने जाते हैं। हमने अपने बच्चोें के फूलदेई के झोले आज भी संभालकर रखे हैं, जो उनके बचपन की याद दिलाते हैं। अब उन्ही बच्चों के बच्चे फूलदेई खेलने वाले हो गये हैं। फूलदेई से पहले दहलीज को गोबर और मिट्टी से अच्छी तरह लीप कर फिर उसमें ऐपण दिये गये होते हैं। ऐसी सजी हुई दहलीज पर बच्चे, गुड़, चावल और फूल बरसाते हुए गाते हैं- ‘फूलदेई छम्मा देई, तुमरा घर मंे नमस्कार, भरियो भकार’। दहलीज आपकी फूलों से सजी रहे/नृत्य और गीतों से छमा छम छमकती रहे। (अर्थात् आपके घर में हमेशा ख्ुाशी रहे, आपके घर को हमारा नमस्कार, भरे रहें आपके अन्न और धन के भण्डार।)
सभी घरों मे बच्चों द्वारा फूलदेई खेलने के उपरान्त एकत्रित चावल को पीस लिया जाता है और उसे घी में भूनकर उस में गुड़ डाला जाता है। इसको शै या साई कहा जाता है। इस स्वादिष्ट व्यंजन को खाकर बच्चे बहुत खुश होते हैं। बसन्त ऋतु में जंगलों में अनेक रंगों के फूल खिलते हैं, सुर्ख लाल रंग का बुरांश और पीले रंग की प्योली के साथ साथ नीले, भूरे बैंगनी, सफेद अनेक रंगों के फूल खिलते हैं। इन अनेक रंगों से जंगल में कई रंग आए होते हैं तो खेत पीली सरसों, कंडी, पेंचा, मेलू, बनफंसा इत्यादि अनेक रंग के फूलों से लदे रहते हैं। पूरी धरती पर फूल छाए रहते हैं। कहा जाता है कि भगवान शंकर को खुश करने के लिये पार्वती ने पीले रंग के फूल खिलाये और कैलाश में रहने वाले बच्चों के साथ मिल कर पूरे कैलाश में शिवजी के चारों ओर पीले रंग के फूल बिखेर दिये। भगवान शंकर बच्चों से बहुत खुश हुए। ऐसा माना जाता है कि तभी से बच्चे फूल चुन कर लाते हैं और हर परिवार की दहलीज पर बिखेर देते हैं। बच्चों को ज्यादा फूल नहीं चुनने होते हैं, क्यांेकि कई तरह के पक्षी, मधुमक्खियां, भौंरे और कीट-पतंगे फूलों पर निर्भर होते हैं। फूलों के रस से ही तो मधुमक्खी शहद बनाती है।
फूलदेेई का त्योहार गांवों में अब भी मनाया जाता है, परन्तु शहरों में यह अत्यन्त सीमित हो गया है। इसके कई कारण हैं, जैसे जंगलों और फूलों का कम हो जाना आदि इत्यादि। परन्तु सबसे बड़ा कारण है घर-परिवार, माता-पिता का अपनी परम्पराओं के प्रति जिम्मेदार न होना। जैसे बसन्त पंचमी को पूजा स्थल पर पीला रूमाल, पीला कपड़ा आदि रखने से बच्चे बसन्त पंचमी के बारे में जान पाते हैं, उसी तरह से घर में स्थानीय भाषा बोले जाने से ही बच्चे अपनी भाषा सीख और बोल पाएंगे। इसी तरह परम्पराएं बनाए-बचाए रखी जा पाएंगी और इस पीढ़ी और आने वाली पीढ़़़़़ी के बच्चे गीत गाते हुए खुशी मना पाएंगे गा पाएंगे-
चल फुल्यारी फुलु को, देवता एगे जुलु को,
फूलदेई छम्मादेई,
दैणि द्वार भरि भकार ।।
ई देलि के बार बार नमस्कार,
फूलदेई, फूलदेई, फूल संक्रांत,
फूल एगी डाला बौटा लाहरिया हवेंगी,
पौन-पंछि देणि गैन,
डाल्यू फूल हंसदा ऐन, तुमरा भण्डार भर्यान,
अन्न धन बरकत हवेन। उनी रौन ऋतुमास,
हुनी रौस बुकी संक्रांत
बचि रूंला तुम हम त, फिर हौलि फूल संक्रात
फूलदेई फूलदेई, फूल संक्रांत , फूलदेई-छम्मादेई।।
चित्र : यशोधर मठपाल