गजेंद्र नौटियाल
तो सब कुषल है बल!- मैने पूछा बोडा क्या कुशल, कौन कुशल? बोले बेटा ओ देरादून-दिल्ली जहां भी भै बंधौं को मिला वो भी बोलते हैं ‘‘सब कुशल हैं’’ और यहां गौं में भी ऐसे हीं बोल रहे हैं, तो बल अपने आप पड़ा! उनके नहीं मेरे माथे, मेरे माथे।
आज बोडा(ताउ जी) के बल पर मैने भी और बल आजमाया, मैने पूछा आज सप्ताह पुरांण सुनने आये हो फिर ये बहकी-बहकी बातें क्यों? बोले वही तो, इसी लिए तो याद आया कि सब कुशल हैं, पहले से ऐसा ही चला आ रहा है कि चलते चलते सभी कुशल होने की बात करते हैं पर थोड़ी देर साथ गप्पियां लगी नहीं तो सब कुछ दुखः और घोर दुखः भरी दास्तां बताने लगता है और जाते जाते खबरदार भी करता चलता है कि भैजी कोई सुखी नहीं है, कोई कुशल नहीं है भाई, बस दिखावे के ठाट-बाट हैं सब।
वो दिल्ली वाला भी यहीं बोल रहा था कल! मैने बोडा को पूछा क्या दिल्ली वाला कुछ नईं बात बोल रहा था क्या? बोडा ने तपाक से दोनो उल्टे.सीधे हाथों की ताली ठोंकते बताया कि हां वो बोल रहा था कि देखो ये जो पुरांण-कथा जो माता जी के वार्षिक श्राद्ध पर हो रहा है नां कराने वाले बोल रहे थे कि माता पिता क्या, दस पीढ़ी पहले के पितर बल कुशल मंगल से नही ंजिए-गए तो उनके और आने वाली 10 पीढ़ी के कुशल मंगल के लिए ये सप्ता (पुरांण कथा वाचन) का आयोजन हो रहा है बल। वो सब होगा कि नैं पर वो दिल्ली वाला बोल रहा था कि देरादोंण, नैं टीरी, रिषीकेस बाले सारे इस सप्ता में खुश हैं कि फोकट का खाना मिल रहा है, नै तो जाले लगे घर में पैले साफ सफै कन्नी पड़ती थी फिर सारा खाने बनाने का सामान लाना पड़ता था।
खैर सप्ताह-पुराण वाचन और श्रवंण चलता रहा बोड़ा की कई बातें बिंदुवार ये कि बेटा गांव में बस 1 जोड़ी बैल है। यहां ओ 128 परिवार का राशन कार्ड बना था पर गांव में 27 परिवार ही कई सालों से रह रहे हैं बाकी राशन कौन खाता है पता नी पर अब सरकार बल राशनकार्ड बंद कर रही है, ये बस अच्छा हो रहा है। वो सारे खेत जो बंजर हैं बस अब सरकार मनरेगा भी बंद कर दे तो सब लोग अपने आप ही खेती करने लगेंगे। मैने कहा बोडा जी वो तो सरकार कर ही रही है। 2026 में पैमाइस होगी उसमें सारे बंजर खेत सरकारी वनक्षेत्र में शामिल किए जाने की तैयारी है। अभी तक सिविल सोयम के जंगल सरकार ने वन विभाग के कब्जे में दे दिए हैं। बोडा ठहाके लगाते बोला हां तब तो ठीक है। यही तो कह रहा हूं हमारे प्रधानों, पंचों को कुछ भी पता नैं है…बस सब कुशल है?
‘‘कान्हा’’ भी पलायन कर गया!- पलायन आयोग वाला एक मात्र राज्य उतराखंण्ड से कान्हा भी पलायन कर गया है, खबरदार! न ना, टिहरी का एक गांव है, की बात सुनो तो वाकया समझ आ जायेगा। ये गांव है तो मेरा अपना गांव पर सच में ये सभी गांवों की कहानी हैं। इस संजैती कहानी में आज ये है कि गांव में एकमात्र प्राथमिक विद्यालय 4 साल से बंद है। जिसके भी बच्चे होते हैं वे यहां से पलायन कर जाते हैं। और दूर नही ंतो घनशाली में या अपने मायके वालों के शहर वाले रै-वासों में लोग स-परिवार चले जाते हैं। गांव में अब 6-7 युवा हैं जो पंचैती चौक में खेल लेते हैं, देर सबेर वो नौकरी करने जांऐगे ही, तब बचेंगे कुछ वृद्ध और बंजर खेत। फिल हाल गांव में कोई बच्चा नहीं है तो स्कूल की किसी को जरुरत ही नहीं है। वो एक चाचा बता रही थी कि प्राथमिक विद्यालय पर किसी ने चोरी कर ली और 4 पंखे ले गए। मैने पूछा आप तो शिक्षा समिति में थीं, सरकार ने इस भवन का चार्ज किसी को दिया क्या? बोली ‘‘पता नी है किसको दिया, प्रधान तो वहां देखनै भी नै जाता।’’
मैने ऐसे ही पूछ लिया वो कान्हां तो तुम्हे भौत प्यारा था ना, वो कहां गया। बोली कान्हा तो हमारी जेल में था आज तक, उसके साथ उसकी उमर का न तो कोई खेलने, कूदने वाला था न बोलने-बचियाने वाला। हम बूढ़ों के साथ वो बुढ़िया जाता, चिड़चिड़ा-गुस्सैल तो वो हो ही गया था। उसकी स्कूल जाने की उमर हो गई थी इसी बहाने हमारे गांव की जेल से उसे मुक्ति मिली। आखरी बच्चा था जिसकी किलकारी हमने सुनी, अब शायद ही किसी बच्चे के नटखट बचपन को ये गांव कभी देखेगा। मैने गहरी सांसे ली और चाची के आंसुओं के साथ मेरे मन का उद्गार छलक पड़ा! हां आज पता चला कि गांव का कान्हां गांव से पलायन कर गया, अब कोई और कान्हां यहां नहीं जन्मने दिया जायेगा! वाह रे कान्हा कथित विकास ने तुझे भी नहीं छोड़ा।
भंगजीर तो जमी नी ?- ये भी मेरे गांव का किस्सा है पर…., है एकदम सच्चा। हमारे गांव में बहुत भंगजीर होती थी। भंगजीर का तेल हमारे गांव के औजी, बनारसी दादी के कोल्हू में पिरोया जाता था और मीठुतेल निकाला जाता था जिसे घी के जैसे कोदे की गरम-गरम रोटी पर चुपड़ कर नमक या गुड़ के साथ खाओ तो असीम स्वाद की अनुभूति होती थी। भंगजीर के दानों को खाजा-बुखणा के साथ मिला कर चबाओं तो जो स्वाद आता था उसका वर्णन के लिए शब्द निरर्थक हो जाते थे। खैर आज सुबह एक बहू जोर जोर से किसी को पूछ रही थी कि ऐ दिदी तुम्हारे घर में वो दाल-दूळ के बीज भी बचे हैं थोड़ा वो सेरा के टुकड़े पर बोना था वो बांजा रै गया। दिदी ने जवाब दागा भाई तुमने तो उसमें कुछ दिन पैले भंगजीर बोई थी जीम नी क्या? बहु का भी वैसे ही निर्लिप्त जवाब नहीं जमें, भंगजीर तो हो गई उनकी मवासी को। संस्था वाले ऐसे ही बोलते हैं ये बोओ, ओ बोओ, नकदी फसल उगाओगे तो आमदनी होगी। अरे आमदनी फुक्येगी हमारी। हमारे तो खेत बंजर रै गये, हैं! मैं जोर से आ रही हंसी को नहीं रोक पाया! मेरी तरफ अचरज से देखती दोनो बहुओं के गुस्से को हल्का करते मैने कहा बेटी ये आपका दोष नहीं है न उस संस्था वाले का जो आपको मई-जून में भंगजीर का बीज देकर गया। बेटा भंगजीर को अक्टूबर-नवंबर में निकालने के साथ ही बोया जाता है और 6 महिने जमीन में रहने के बाद ओ उगती है। अब न आपको ये पता न संस्था वाले को ना उसको योजना देनी वाली सरकार के कृषि अधिकारियों को। बस सभी योजनांओं की ये बानगी भर है कि ‘‘भंगजीर तो जमी नी’’?
पहाड़ के गांवों के ये 3 तस्वीरें इसी जुलाई 2023 की हैं। पर हर सरकार के जैसे ये सरकारें भी मगन हैं कि उन्होंने गांवों का भरपूर विकास कर लिया है। शेष फिर…