डॉ. हरिसुमन बिष्ट
हिमालय हमारी आध्यात्मिक ऊर्जा का केंद्र रहा है, भारतीय ज्ञान, दर्शन, सोच-विचार, हर्ष-विषाद, अवसाद-उल्लास, गीत-संगीत, हास्य-रुदन, पलायन-संघर्ष, काम-क्रोध, दया-धर्म, रीति-रिवाज, परम्पराएँ, हिमालयी संस्कृति और एक भिन्न सभ्यता का विकास हिमालय से ही हुआ है। भारतीय ऋषि परम्परा का उद्भव हिमालय से ही है। ऋषि- मुनियों ने अपने तप, ज्ञान दर्शन और लौकिक पारलौकिक अनुभूतियों से हमें महान जीवन दर्शन दिया है। हिमालय नहीं होता तो अविरल बहती ज्ञान गंगा की महान परम्परा से हम आज इस रूप में समृद्ध नहीं हो पाते। भले ही देश को राजनैतिक स्वतंत्रता सन् 1947 में प्राप्त हुई, किन्तु ज्ञान, अभिव्यक्ति और गहरे विमर्श की स्वतंत्रता तथा स्वच्छंदता हजारों वर्षों से प्राप्त है। समय-समय पर इसकी परम्पराओं को समझने के लिए अटकलें लगीं, उसे नष्ट करने की तरतीबें भिड़ीं फिर भी, ज्ञान गंगा निर्बाध गति से बहती रही- अक्षुण्ण रही है।
स्वतंत्रता के बाद हिमालयी जीवन में आमूलचूल परिवर्तन आया है जिसे आधुनिकता से जोड़कर देखा जाना- यह सांगोपांग निरंतर गतिमान जीवन विकास क्रम का तथ्यात्मक आधुनिक होना है। इसमें निश्चित रूप से जीवन का भौतिक विकास हुआ है. किन्तु, इसने हिमालयी ज्ञान परम्परा को बड़ी क्षति भी पहुंचाई है। यदि भौतिक विकास की शुरूआत अंग्रेजी शासन से भी मान लें, तो भी हिमालयी क्षेत्र में, जिस जरूरत के अनुरूप सड़कों का निर्माण, पहाड़ की छाती को छेदकर (शिमला, पालमपुर, दार्जिलिंग) रेलवे का सफलतापूर्वक निर्माण हुआ है, उसकी तुलना में स्वतंत्र भारत के इस आधुनिक विकास से हो रहे पर्यावरण नुकसान पर दृष्टि डालें तो, तब हिमालयी जीवन की क्षति शून्य प्रतीत होती है। उस अवधि में जंगलों और पहाड़ों के अंधाधुंध कटान से क्षति में भी हिमालयी जीवन को सुरक्षित रखने को प्राथमिकता रहती थी- जो कि आजाद भारत में किसी भी कोण से नहीं दिखती। आज प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग एवं उपभोग के लिए ‘दोहन’ जैसे शब्द को बहुत ही रसिक मिजाज में प्रयुक्त किया जाता है, जिसके लिए उच्च हिमालयी क्षेत्रों को सबसे अधिक लक्ष्य कर, सुविधाजनक मान लिया गया है। जिन पहाड़ों, पर्वतों और नदियों को हिमालयी जीवन अपना आराध्य मानकर, उनकी पूजा करता था- जिनके मूल में हमारी समग्र चेतन का विकास निहित था- जिसे हिमालयी चिंतन परम्परा भी कह सकते हैं- उन पहाड़ों, शैल शिखरों, नदियों और ग्लेशियरों को मामूली मानकर, उन्हें फतह करने की होड़ाहोड़ी से जोड़ लिया है। इस जिद्द से पर्यावरण को नुकसान के साथ ही हमारी आध्यात्मिक चेतना में भी भारी गिरावट आयी है- वह दूषित हुई है। हम यह भूल रहे हैं कि हिमालय से ही हमारा जीवन है। वह सिर्फ बर्फ का पहाड़ नहीं है, उससे कहीं अधिक जीवन रस का अक्षय स्रोत है- इससे पंचतत्वों की निर्मिति भी इसी से है।
जियोलोजी के वैज्ञानिक, भूगर्भवेत्ता, भौतिक वैज्ञानिक विज्ञान के सिद्धांतों, परीक्षणों के उपरांत तथ्यों के आधार पर हिमालय को दुनिया के सबसे नवजात शिशु पर्वत के रूप में देखते हैं- वे यहाँ हो रही हलचल को जहाँ शिशु जीवन की चुलाबुलियों के रूप में लेते हैं, ठीक वहीँ इससे हो रही पारिस्थितिकी की अनदेखी और पर्यावरण से छेड़छाड़ को शिशु की नाजुक बांह मरोड़ देना जैसा मान रहे हैं- जो कि शरीर के पूर्ण विकसित होने के लिए घातक है। ठीक इस अवधारणा के विपरीत भारतीय राजनैतिक जीवन को यहाँ आधुनिक जीवन के लिए विकास की अपार संभावनाएं दिखती है। उन्हें हिमालय के बाल जीवन की न भाव-भंगिमाएं और अठखेलियाँ अच्छी लगती हैं और न उसके बालपन को बढ़ते देखते खुश होते हैं। उसके नैसर्गिक विकास से कहीं अधिक तीव्रता से अपनी सोच और विचार के सांचे में उसे ढालना चाहते हैं- उनकी यह चाहत ही हिमालयी जीवन में सबसे भारी गिरावट का कारण है- इसे हमें स्वीकारना होगा। हिमालयी जीवन के लिए, उनकी यह अपनी शर्तों पर विकास की रणनीति सबसे बड़ी पराजय है। अतः हिमालय का शान्तमय और पवित्र जीवन को विचलित करना न किसी कोण से उचित है न उसे वैश्विक सभ्य समाज उचित ठहरा सकता है। यहाँ तक कि विज्ञान-विशेषज्ञ भी किसी भी तरह की छेड़छाड़ की अनुमति नहीं देते- और न वे किसी अनहोनी की चेतावनी से आँख चुरा सकते हैं। आखिर उनके प्रयोग और अनुसन्धान भी तो हिमालयी जीवन के हित के पक्ष में- सम्पूर्ण जीवन को बचाने के उद्देश्य के लिए होते हैं।
क्या सचमुच हम देश की आजादी के बाद हिमालयी जीवन को बचाने के सार्थक प्रयास कर पाए हैं ? इसका ठीक-ठीक उत्तर सकारात्मक से कहीं अधिक नकारात्मकता के करीब होगा- अभी तक के सभी प्रयास हिमालयी जीवन के विरुद्ध मोर्चे खोलने जैसे सिद्ध हुए हैं- यानि सभी कदम हिमालयी जीवन को खत्म करने के कुत्सित प्रयास ही हुए हैं, जिनकी घातक परिणति 1978 की उत्तरकाशी में बाढ़, 1991 में उत्तरकाशी में ही भूकंप, 1998 में मालपा और उखीमठ आपदा, 1999 में चमोली में भूकंप जैसी बड़ी घटनाएँ जो हिमालयी जीवन को सम्पूर्ण रूप रूप में विचलित नहीं कर पायीं थी- क्योंकि वहां का जीवन ऐसी आपदाओं से अपरिचित नहीं था। वे प्राकृतिक आपदा या दैवीय प्रकोप के रूप में ऐसी घटनाओं को अपने जीवन से जोड़कर हमेशा देखते आ रहे थे- ये आपदाएं सामान्य घटना से अधिक उनके लिए नहीं होती थीं- उनसे किसी तरह से भयभीत नहीं होते थे। उन्होंने हर विकट परिस्थिति को नजदीक से देखा और उससे जूझना आता था। उन्होंने हमेशा ही परिस्थितियों का सामना हिम्मत और साहस से किया था। वे लोग कभी टूटे नहीं थे- दुखी अवश्य हुए थे। किन्तु 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ की तबाही ने उन्हें सम्पूर्ण रूप में विचलित कर दिया। वे लोग उच्च हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के टूटने को भविष्य की एक बड़ी चेतावनी के संकेत रूप में देख रहे थे और अब 2021 की ऋषि गंगा की भयावह तबाही को किसी भी कोण से प्राकृतिक आपदा या दैवीय प्रकोप से नहीं जोड़ रहे हैं- उन्हें ये सभी असामान्य घटनाएं प्राकृतिक, दैवीय नहीं उनका पूर्ण रूप में मानवीयकृत होने का विश्वास मजबूत हुआ है। ऐसा विश्वास भयातुर उत्तराखंड के रहवासी ही नहीं, सम्पूर्ण हिमालयी जीवन भलीभांति समझ चुका है।
हिमालयी जीवन की यह आशंका नयी नहीं है। यह दशकों से कांटे की भांति चुभ रही थी। उसके आज भी अपने तर्क हैं- अपने जीवन को लेकर विमर्श हैं- जो पारिस्थितिकी अनुभव और अनुभूतिजनित हैं। स्वतंत्रता के बाद जिनकी अनदेखी, उपेक्षा और उनकी भावनाओं का अवमूल्यन ही हुआ है। हिमालयी क्षेत्र के लोगों का अब स्वतंत्रता पूर्व और बाद के जीवन में फर्क करना विकास विरोधी नहीं हैं- विकास प्रतिगामी नहीं हैं। उनका अपने नैसर्गिक जीवन को जीने के अधिकार पर मंडराते आसन्न संकट से विचलित होना स्वाभाविक है। आजादी के पूर्व उनका जीवन कठिन था, किन्तु जीवन की अप्राकृतिक मौत की छाया दूर-दूर तक नहीं थी। आजादी के बाद जीवन को सरल बनाने के उपक्रम में उनका जीवन भयावह और हर पल मृत्यु संग-साथ रहने लगी है। एक तरह से हिमालयी जीवन जीने के उनके नैसर्गिक अधिकार को छीना जा रहा है। जहाँ से भारतीय जीवन की स्वतंत्रता और आधुनिक जीवन की चमक-दमक शुरू होती है वहीं, उसी पल, हिमालयी जीवन की सादगी और स्वच्छंदता खत्म हुई है। अब उन्हें जीवन बोझ और चारों तरफ मलबा तथा गाद के ढेर में दबे अपनों के अस्थिपंजरों को इधर से उधर ढोते देख रहे हैं। उससे दहशत में उत्तराखंड ही नहीं सम्पूर्ण हिमालयी जीवन है- उनमें जीवन के प्रति मोह और जीवन जीने की लालसा भी लेश मात्र नहीं बची है। जिन वादियों में नदियों की कलकल-छलछल भरा संगीत गूंजता था, जहाँ पहाड़ियों और शैल शिखरों से बांसुरी और बिणाई की धुन प्रतिध्वनित होती थी, वहां कानफोडू डायनामाईट और अर्थ मूवर का भयानक शोर जीवन को आसन्न संकट में धकेल देता है। तलवे जमीं छोड़ देते हैं और पहाड़ों में थिरकन की ठौर पर कम्पन बढ़ता जा रहा है। यह पहाड़ों का कांपना सम्पूर्ण हिमालयी जीवन को मारना और जीवन का अंततः मरना ही है।
कोई मरना नहीं चाहता- न भूख से न प्रलय से- इसे हिमालयी जीवन जानता है। वे सरकार को समझते हैं, उसकी नुमायंदगी के उद्देश्य को जानते हैं और उनके लक्ष्य को भी। वे यह भी जानते हैं, बलशाली कभी शांतचित्त नहीं रहता, वह हमेशा क्रुद्ध और आँखों का रंगरेज होता है- वह कोई अखाड़े में पटकनी देता पहलवान जैसा हो या फिर किसी सत्तासीन की चौहदी का विमर्श, जिसमें पराजय नहीं जय की आकांक्षा मुखर होती है। जिनको प्रतिपक्ष में जीवन नहीं, उसमें मृत्यु के खेल पसंद होते हैं। हिमालयी जीवन में वही खेल खेला जाता रहा है। यदि ऐसा नहीं है तो उस विमर्श में वे कौन लोग शामिल हैं जो हिमालयी जीवन के निर्णय लेते हैं ? क्या हिमालयी जीवन की स्थानीयता, भव्यता और जीवनानुभूतियाँ उसमें सम्मिलित होती हैं ? इस प्रश्न के पक्ष में भी सकारात्मक सोचना बेमानी होगी। उसके संग छल-बल, प्रपंच, तिलस्म और जादुई इबारत ही होगी, जिससे निश्छल हिमालयी जीवन अनभिज्ञ रहा है।
जीवन का एक बहुत बड़ा हिस्सा कहा-सुनी पर आधारित होता है। किन्तु यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है- हर कोई कब, कौन क्या कहकर चला जाता है- हिमालयी लोग ठीक-ठीक कुछ भी समझ ही नहीं पाते। हिमालयी जीवन एकदम मूक-मौन है। यह मौन घातक भी हो सकता है, किसी तूफान के आने के पूर्व की चुप्पी साबित हो सकती है। इसलिए हिमालयी जीवन के मौन को तोड़ना जरूरी बन जाता है। क्या यह पहल वे लोग करेंगे जो आज तक उन्हें इस स्थिति तक पहुँचाने के जिम्मेदार हैं ? या एक नयी पहल की जरूरत होगी- जो कि सरकार के बीच बड़े संवाद को जन्म दे सके। स्वतंत्रता के बाद से आज तक जो लोग मौन होते चले गए, उन्हें भी कहा-सुनी के लिए बड़े बल की आवश्यकता रही होगी- वह बल जो सरकार की सीधी पहल में है, उसकी नीतियों और उसके दृष्टिकोण में शामिल है- वे जानते थे। किन्तु संवादहीनता से बड़प्पन नहीं कमजोरी ही प्रकट हुई है। इसलिए सरकार को इस दिशा में पहल करनी चाहिए। यह इसलिए कि हिमालयी जीवन में यदि उथल-पुथल के संकेत मिले रहे हैं तो निश्चित रूप में इसके मूल में नीति निर्माताओं की संवादहीनता ही हो सकती है। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में घटी घटनाओं के इतिहास को झुठला नहीं सकते। यदि यह गलत है- तो उनका एकतरफा ही संवाद हुआ होगा- स्वयं से ही संवाद किया होगा- जिसे हिमालयी लोग सुन और समझ नहीं सके होंगे। उनसे संवाद उनकी बोली वाणी में नहीं हुआ होगा, जिसे वे बोलते और समझते हैं। भले ही सरकार के नीति निर्धारक कितनी ही बड़ी योजना लेकर आयें और अपनी भाषा में उसे बताकर चले जाएँ- ऐसी योजनाओं का कोई औचित्य नहीं हो सकता, जब तक कि स्थानीयता, उसकी बोली-वाणी को उसमें प्रमुखता से शामिल नहीं किया जाता और उन्हें जो हिमालयी क्षेत्रों में प्रकृति और मौसम के मिजाज का अनुभव रखते हैं। कोई भी नीति निर्धारक स्थानीयता के पारम्परिक अनुभव से बड़ा विशेषज्ञ नहीं हो सकता- यह बात हिमालयी जीवन के सन्दर्भ में विशेष्य है। देश के अन्य अंचलों के सन्दर्भ भी इसमें निहितार्थ हैं. यह दुर्भाग्य ही है कि हमेशा स्थानीय जो व्यावहारिक होता है उसे उपेक्षित, अनपढ़ और गंवार समझा जाता रहा है। सरकार के स्तर पर और नीति नियामकों के लिए भी बुद्धिमता का आधार व्यावहारिकता नहीं अच्छा अकादमिक प्रदर्शन मात्र होता है- जिनकी भाषा और कार्यशैली व्यवहारिक कम ही होती है।
स्वतंत्र भारत में यही होता आया है। भोक्ता और सरकार के बीच दूरियाँ भाषा ने ही बनायी हैं। वह भाषा जिसे स्थानीय न समझते हैं और न व्यवहार में उसे उतार पाते हैं- चाहे उस भाषा में उनके हित की ही बात क्यों न कही जा रही हो। ऐसा भी नहीं है कि सभी स्थानीय अनपढ़ और नासमझ होते हैं- वे जानते हैं और भली भांति समझते भी हैं कि पारम्परिक जीवनयापन में व्यावहारिक ज्ञान से कही आधुनिक तकनीकी ज्ञान लाभकारी हो सकता है। यहाँ महत्व संवाद और संवाद की भाषा को न समझ पाने का है- जिसके द्वारा नीति निर्माता समझाते हैं। दरअसल स्थानीय योजना के लिए सर्वप्रथम स्थानीय व्यक्ति और उसकी बोली-भाषा के महत्व को सरकार को समझना होगा- जिसको देश में कार्पोरेट घराने समझ चुके हैं कि स्थानीयता का महत्व और स्थानीय बोली भाषा की ताकत क्या होती है ? उससे लाभ-हानि की गणनाओं को भी वे बेहतर रूप में समझ चुके हैं। यदि सरकार के स्तर पर ऐसा संभव नहीं हुआ तो, स्थानीय कभी विकास की मुख्य अवधारणा को नहीं समझ पाएंगे। वे हमेशा स्वयं को ठगा सा पाएंगे- वे न तो विशेषज्ञों के ज्ञान को समझ पाएंगे, न अपने स्थानीय विभिन्न मुद्दों को लेकर सजग हो पाएंगे और न अपने विकास की चर्चा ही कर पाएंगे- जिसका अनिवार्यतः अनुभव वे रखते हैं। समग्रता में उनका विकास कभी नहीं हो पायेगा। वे स्थानीय जीवन संकटों से हमेशा जूझते रहेंगे।
यह हिमालयी जीवन का ही सिर्फ घोर संकट नहीं है, समग्रता में पूरे भारतीय जीवन की यही महागाथा है। यह कथा तब तक यों ही अधूरी रहेगी जब तक स्थानीयता के महत्व को समझाते हुए, स्थानीय बोली-भाषा में उनसे संवाद की पहल नहीं की जाती। उनसे उनकी बोली-भाषा में नहीं पूछा जाता कि जिन परिस्थितियों में अपने जीवन का निर्वाह कर रहे है- उससे खुश हैं तो कैसे खुश हैं। यदि नाखुश हैं तो कठिन जीवन का सामना कैसे करते हैं ? उन विकट परिस्थियों में वे लोग वहां रहना क्यों पसंद करते हैं ? उन्हें अपनी स्थानीयता से इतना लगाव क्यों बना हुआ है ? प्रतिकूल परिस्थितियों में क्यों पलायन कर जाते हैं ? निश्चित रूप से स्थानीय बोली-भाषा में पूछे गए प्रश्न कभी अनुतरित नहीं रहेंगे। वे खुलकर अपनत्व के भाव की ऊष्मा को महसूस करते ही अपने मन के कपाट खोल देंगे। यह सब इतना कठिन नहीं कि इस दिशा में पहल असंभव हो- इससे स्थानीयता के मनोविज्ञान को समझने में थोड़ा समय अवश्य लग सकता है, किन्तु नीतियों के निर्धारण और क्रियान्वयन में न फिर समय लगेगा और न उससे हिमालयी जीवन में संकट के बादल घिरेंगे। घिरेंगे तो तेजी से छटेंगे भी। सरकार को अपने सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास को जितने की- इस सोच को मजबूती से हिमालयी जीवन सन्दर्भ में विकसित करने की पहल करनी चाहिए।
फोटो साभार : www.oldindianphotos.in
One Comment
बिर्ख खडका डुवर्सेली
बिष्ट जी, नमस्कार । नैनीताल समाचार में छपा आलेख पढ़कर गौरवान्वित होने का मौका मिला यह जानकर कि हिमालय ज्ञान, विज्ञान, औषधी, दर्शन, हरेक नज़रिए से जीवनदायी रहा है अनादि काल से और आज भी है। पर आज तकनीकी विकास और औद्योगिकीकरण के नाम पर पहाड़ का दोहन हो रहा है और यह क्रम चलता रहेगा ,जिससे हमें सदा अनेक प्रकार की आपदाओं जूझना पड़ेगा और खामियाजा भुगतना पड़ेगा। आप के आलेख ने मुझे और कई पक्षों की भी जानकारी मिली। बधाई बेशुमार ।