ललित मौर्या
पिछले अनुमानों की तुलना में हिमालय के पहाड़ों पर करीब 37 फीसदी अधिक बर्फ पाई गई है, जोकि जल संसाधन के दृष्टिकोण से एक अच्छी खबर है। अनुमान है कि इसके चलते हिमालय के जल संसाधन में एक तिहाई वृद्धि हो सकती है।
हालांकि साथ ही शोध में यह भी जानकारी दी गई है कि जलवायु परिवर्तन के चलते इस क्षेत्र में बर्फ कहीं ज्यादा तेजी से पिघल रही है। यह जानकारी इंस्टिट्यूट ऑफ एनवायर्नमेंटल जियोसाइंसेज और डार्टमाउथ कॉलेज के शोधकर्ताओं द्वारा किए अध्ययन में सामने आई है, जोकि जर्नल नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित हुआ है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक यह हिमनदों की गति और मोटाई को मापने वाला पहला एटलस है, जिसमें दुनिया भर में बर्फ और जल संसाधनों की एक स्पष्ट लेकिन मिश्रित तस्वीर प्रस्तुत की है। अध्ययन के मुताबिक जहां हिमालय के हिमनदों में अनुमान से ज्यादा बर्फ है, वहीं दूसरी तरफ एंडीज के पहाड़ों पर पिछले अनुमानों से लगभग एक चौथाई कम बर्फ है।
यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो दुनिया भर के हिमनदों में पिछले अनुमानों की तुलना में करीब 20 फीसदी कम बर्फ है जोकि दुनिया भर में पीने के पानी, बिजली उत्पादन, कृषि और अन्य उपयोगों के लिए जल उपलब्धता पर असर डाल सकती है। इतना ही नहीं, जलवायु परिवर्तन के चलते समुद्र के जलस्तर में वृद्धि का जो अनुमान लगाया है यह निष्कर्ष उसको भी प्रभावित कर सकते हैं।
दुनिया भर में हिमनदों की स्थिति को समझने के लिए इस अध्ययन में 250,000 से अधिक पर्वतीय हिमनदों (ग्लेशियर) का सर्वेक्षण किया गया है, जिसमें इन हिमनदों के वेग और गहराई को मापा है। शोधकर्ताओं के मुताबिक इस एटलस में दुनिया के करीब 98 फीसदी हिमनदों को शामिल किया गया है। बड़े पैमाने पर बर्फ के प्रवाह के इस डेटाबेस को तैयार करने के लिए वैज्ञानिकों ने दुनिया भर के हिमनदों की उपग्रह से प्राप्त 800,000 से अधिक छवियों का अध्ययन किया है।
उच्च रिज़ॉल्यूशन वाली यह तस्वीरें 2017-18 के बीच नासा के लैंडसैट -8 और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के सेंटिनल -1 और सेंटिनल -2 उपग्रहों द्वारा ली गई थी। इतना ही नहीं आईजीई ने 10 लाख घंटों से अधिक समय तक इन आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है।
आईजीई और इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता रोमेन मिलन का इस बारे में कहना है कि ग्लेशियरों में कितनी बर्फ जमा है, यह समाज पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अनुमान लगाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। इस जानकारी के साथ हम जान पाएंगे कि दुनिया के सबसे बड़े ग्लेशियरों में कितना जल उपलब्ध है, साथ ही इस पर भी विचार कर सकते हैं कि यदि ग्लेशियरों की मात्रा कम है तो उसका कैसे सामना किया जाए।
शोध से पता चला है कि दक्षिण अमेरिका के उष्णकटिबंधीय एंडीज पहाड़ों में अनुमान से लगभग एक चौथाई कम ग्लेशियर हैं। इसका मतलब है कि उस क्षेत्र में मीठे पानी की उपलब्धता अनुमान से 23 फीसदी कम है। गौरतलब है कि मीठे पानी के इन स्रोतों पर लाखों लोग निर्भर हैं। यदि देखा जाए तो पानी की यह कैलिफोर्निया की तीसरी सबसे बड़ी झील ‘मोनो झील’ के पूरी तरह सूख जाने के बराबर है।
जलवायु परिवर्तन के चलते कहीं ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं ग्लेशियर
यदि जलवायु परिवर्तन की बात करें तो वो इन ग्लेशियरों के लिए एक बड़ा खतरा है। जैसे-जैसे वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है यह ग्लेशियर पहले की तुलना में कहीं ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं। इससे पहले जर्नल साइंटिफिक रिपोर्टस में प्रकाशित एक शोध से पता चला है कि हिमालय के ग्लेशियर पहले के मुकाबले 10 गुना ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं।
इसके चलते भारत सहित एशिया के कई देशों में जल संकट और गहरा सकता है। गौरतलब है कि अंटार्कटिका और आर्कटिक के बाद हिमालय के ग्लेशियरों में सबसे ज्यादा बर्फ जमा है। यही वजह है कि इसे अक्सर दुनिया का तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है।
शोधकर्ताओं के अनुसार बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियरों से पिघलती बर्फ समुद्र के बढ़ते स्तर के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेवार है। अनुमान है कि यह ग्लेशियर समुद्र के जलस्तर में होने वाली कुल वृद्धि के 25 से 30 फीसदी हिस्से के लिए जिम्मेवार है। दुनिया की लगभग 10 फीसदी आबादी समुद्र तल से 30 फीट नीचे रह रही है, जो समुद्र के बढ़ते जल स्तर के कारण खतरे में है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक ग्लेशियर में 20 फीसदी की कमी का जो अनुमान लगाया गया है, उसके चलते समुद्र के स्तर में होती वृद्धि में ग्लेशियरों के योगदान की सम्भावना 3 इंच कम हो जाती है। हालांकि शोधकर्ताओं के मुताबिक इसमें ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका में जमा बर्फ के पिघलने से समुद्र के जलस्तर में होती वृद्धि को शामिल नहीं किया है।
वहीं जर्नल द क्रायोस्फीयर में प्रकाशित एक अन्य शोध के हवाले से पता चला है कि दुनिया भर में जमा बर्फ के पिघलने की रफ्तार तापमान बढ़ने के साथ बढ़ती जा रही है। अनुमान है कि 1990 की तुलना में 2017 के दौरान ग्लेशियरों और अन्य जगहों पर जमा यह बर्फ 65 फीसदी ज्यादा तेजी से पिघल रही थी। इतना ही नहीं, पता चला है कि 1994 से 2017 के बीच 28 लाख करोड़ टन बर्फ पिघल चुकी है।
मिलन के अनुसार नए और पिछले अनुमानों के बीच जो अंतर देखा गया है वो तस्वीर का सिर्फ एक पहलु है। नए और पिछले अनुमानों के बीच जो अंतर देखा गया है वो तस्वीर का सिर्फ एक पहलु है। उनके अनुसार यदि स्थानीय रूप से देखना शुरू करते है तो यह परिवर्तन और भी बड़े हो सकते हैं। ऐसे में इसकी सही मात्रा के निर्धारण के लिए जानकारियों को बारीकी से इकट्ठा करना कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है।
शोध के मुताबिक इससे पहले जो अध्ययन किए गए थे उनमें केवल एक फीसदी ग्लेशियरों की ही मोटाई की माप उपलब्ध थी। इनमें से केवल अधिकांश ग्लेशियरों का केवल आंशिक रूप से ही अध्ययन किया गया था। ग्लेशियरों में जमा बर्फ के जो पिछले अनुमान थे, वो लगभग पूरी तरह अनिश्चित थे। यह अनिश्चितता मुख्य रूप से मोटी और पतली बर्फ के प्रवाह की माप के कारण हैं जो अप्रत्यक्ष तकनीकों के माध्यम से एकत्र की जाती है।
शोधकर्ताओं के अनुसार हम आमतौर पर ग्लेशियरों को ठोस बर्फ के रूप में सोचते हैं, जो गर्मियों में पिघल सकते हैं। लेकिन वास्तव में यह बर्फ अंदर-अंदर मोटे सिरप की तरह बहती है। आमतौर पर बर्फ ऊंचे क्षेत्रों से कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों की ओर बहते हैं, जहां यह अंततः पानी में बदल जाती है। उनके अनुसार उपग्रहों से प्राप्त तस्वीरों की मदद से हम इन ग्लेशियरों की गति को ट्रैक करने में सक्षम हैं।
दुनिया के ग्लेशियरों की मोटाई कितनी है उसके बारे में अभी भी पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं है। मिलन ने बताया कि हमारे जो अनुमान है वो अभी भी पूरी तरह सटीक नहीं हैं। खासकर हिमालय जैसे उन क्षेत्रों में जहां बहुत से लोग इन ग्लेशियरों पर निर्भर हैं। वहां इनकी माप एकत्र करना और उसे साझा करना जटिल हैं। ऐसे में क्षेत्रों की प्रत्यक्ष माप के बिना ग्लेशियरों में मौजूद मीठे पानी का सटीक अनुमान मुमकिन नहीं है।
‘डाउन टू अर्थ’ से साभार