राजशेखर पंत
सुबह का उगता हुआ सूरज; शाम के अलसाए आसमान पर बादलों की ओट में बार-बार छुपने वाला उदास सा चाँद; सामने की पहाड़ी पर मौन प्रहरी की तरह वर्षों से खड़े पेड़; वर्षा में भीगते पौधे; सुबह की धूप में किसी टहनी पर बैठी कोई चिड़िया …….कितना सुंदर बनाया है बनाने वाले ने इस दुनियाँ को। पर गौर किया है आपने, सुबह का अख़बार हाथ में आते ही मुंह का स्वाद कसैला हो जाता है। कमोबेश सभी ख़बरों के मूल में विधाता की सुंदरतम कृति कहे जाने वाले (न जाने क्योँ?) मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियाँ, उसके चरित्र की निगेटिविटी, वो सब कुछ जो उसे वहशी, हृदयहीन बनाता है -बस वही व्याप्त दिखता है। इस बीच क्षेत्रीय प्रेस ने तो बाकायदा ‘पाजेटिव न्यूज’ कैप्शन देकर एक-आध खबर तीसरे-चौथे पन्ने पर छापनी शुरू कर दी है। ज़ाहिर है सारा अख़बार तो निगेटिव खबरों से भरा रहता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के हाल तो और भी बुरे हैं। ग़लती से अगर ‘दंगल’ , ‘कुरुक्षेत्र’, ‘देश नहीं झुकने देंगे’ वगैरा वगैरा जैसे क्रांतिकारी नामों वाली डिबेट या न्यूज़ देख ली तो ज़बान के कसैलेपन के साथ-साथ दिल भी डूबने लगेगा- ये कैसी दुनियाँ में रह रहे हैं हम?
मुझे लगता है उपभोक्तावाद के इस दौर में निगेटिविटी एक बड़ा बाज़ार बन चुकी है। रेप, हत्या, दंगा, मज़हबी टकराव, स्थापित मानकों का ध्वस्त किया जाना, युद्ध, नस्लीय हिंसा, और ऐसा ही बहुत कुछ ! -एक आदिम आकर्षण है इन सब में। सभ्य और संस्कारित होने के दौर में हमने जिन आदिम प्रवृत्तियों का परिमार्जन करते हुए उन्हें भूलने-बिसराने की कोशिश की है, वे सुप्तावस्था में आज भी हमारे अचेतन मन में उपस्थित हैं, एक सहज आकर्षण भी बना हुआ है इनके प्रति। इन्ही प्रवृत्तियों को कुरेद कर खड़ा किया गया एक बड़ा बाज़ार आज सारी दुनियां में फलफूल रहा है। कम्प्यूटर गेम्स की विस्तृत रेंज पर नज़र डालियेगा कभी -हिंसा, मारकाट, बंदूक, यही सब मिलेगा आपको अधिकांश गेम्स में; मिशन पूरा करने के लिये हिंसा का अतिरेक …. और ये सब गेम्स हैं, खेल हैं, जिन्हें बच्चों और किशोरों के लिये डिजाइन किया गया है। विज्ञापनों का जायज़ा लीजियेगा– स्पीड, एग्रेशन, फ़ोर्स, थ्रिल जैसे इमोशंस ही सारे स्टोरीबोर्ड पर काबिज़ दिखेंगे… मज़ेदार तथ्य यह है कि यह सब बाइक्स, मोबाइल फोन, गैजेट्स या फिर चुटकी में सफलता दिलाने का वादा करने वाली शिक्षा की दुकानों तक ही सीमित नहीं है, अंडरशर्ट्स से लेकर कैंडी तक के किसी भी विज्ञापन का विश्लेषण कर लीजिए, अधिकांश में आपको मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियों का भौंडा प्रदर्शन ही दिखेगा। डांस-सीक्वेंसेज या फिर युवा वर्ग में प्रचिलित गानों के एलबम्स में बंदूक, पिस्तौल, गोली इत्यादि का जिक्र अब सामान्य है। फिल्मों और वेबसिरीज की तो बात ही करना निरर्थक है। सड़क से ले कर संसद तक होने वाली सामाजिक-राजनैतिक बहसों को ही लीजिये, तथ्यात्मक बातों से परे प्रायः कोशिश यही रहती है कि प्रतिपक्षी को आहत और बेइज्ज़त किया जाये। ऊंची आवाज़ में बोल कर अपने कुतर्कों को जायज ठहराना सामान्य है ऐसे अवसरों पर। महज़ विरोध के लिये विरोध करना संस्कृति बन गयी है हमारी।
इस बाज़ार के केंद्र में वर्तमान युवा पीढी है, जो निश्चित ही इससे कंडीशन हो रही है। मुझे इस आयु वर्ग को नजदीक से देखने और पेशेवर ढंग से समझने का पर्याप्त अवसर मिला है। ऊर्जा से भरा यह वर्ग सब कुछ पीछे छोड़ते हुए बहुत आगे निकल जाना चाहता है। समाज और वो सब कुछ जो उसके चारों ओर है, दबाव डालता है उस पर – कि उसे उन सबको पीछे छोड़ना है जो उसके साथ हैं….. इम्तिहान में मिलने वाले नम्बरों से शुरू हुई यह हिंसक दौड़ परसेंटेज, परसेंटाइल, स्पोर्ट्स, स्टेज, करियर से गुजरती हुई फ्लैट, प्रॉपर्टी, पैसा, बिजनैस अंपायर … और शायद इससे भी बहुत आगे, पता नहीं कहां तक जाकर भी खत्म नहीं हो पाती है …कैसे चुपचाप नियंत्रित कर रहा है यह बाज़ार हमें! कथित सफलता की सीढ़ी चढ़ते हुए अगर किसी की टांग खींच कर, किसी को धकिया कर गिराना भी पड़े तो जायज है। महत्व इस बात का है कि आप सफल हैं, कोई नहीं पूछने वाला कि आप सफल कैसे हुए। आपने अपनी संवेदनाओं का, उस सबका जिसे ‘फाइनर फीलिंग्स’ कहा जाता है, सौदा कितनी बार, कब और कैसे किया?
ज़ाहिर है हमारी -हम चाहे एक व्यक्ति हों, समाज हों या फिर राष्ट्र -प्रतिबद्धताएं, प्राथमिकताएं, नैतिकता की हमारी परिभाषा, हमारे मूल्य… सब कुछ बदल रहा है। अपने संस्कारों में हमें पिछड़ापन दिखाई देने लगा है। वैश्वीकरण और बाज़ारवाद ने हमें, हम सबको, ह्यूमन टेम्पलेट्स बना दिया है। हम उस वैश्विक भीड़ का हिस्सा बनते जा रहे हैं जो भाग रही है, एक दूसरे को धकेलते हुए, पीछे छोड़ते हुए। उस दुनिया की सुंदरता से भी बेगाने होते जा रहे हैं हम, जो हमारे अस्तित्व का आधार है। मानव सभ्यता के सम्पूर्ण इतिहास में आत्मकेंद्रित होने का ऐसा हिंसक दौर शायद ही कभी पहले आया हो।
भागती हुई इस भीड़ का हिस्सा बन कर नहीं, एक तटस्थ दर्शक की हैसियत से सोचियेगा कभी…