चन्द्रशखेर जोशी
भारत में इनका भी समुदाय है। बहुतेरी कहानियां प्रचलित हैं, इन्हें बेशर्म कहते हैं। किसान आंदोलन का समर्थन न करने वाले इसी जमात के अंग हैं।
…ज्यादातर लफंग लड़के हैं। इनका जीवन यापन मां-बाप करते हैं। ये न उच्च शिक्षा हासिल कर पाए और न ही किसी रोजगार के लायक बचे। हर कुकर्म इनके सिर चढ़ा रहता, इनके शौक, फैशन-परस्ती घर-परिवार को उजाड़ती है। आंदोलनों की इनको समझ नहीं, दो-कौड़ी कमाने की इनमें कुव्वत नहीं। समाज में इनकी संख्या बहुतायत में है। इनकी अक्ल अन्न खा कर पले-बढ़े इंसानों समान न होती, लिहाजा इनको किसानी की जरा भी समझ नहीं है।
…छोटे किसान अपनी उपज खुद ही खा जाते हैं। इनको मंडी का भी पता न रहता। बड़े फार्म की लागत और उपज इनकी कल्पना से बाहर की बातें हैं। लिहाजा बड़े किसानों का आंदोलन इनकी समझ से परे है। जल्द बीज इतने महंगे होंगे कि छोटे किसान अपने परिवार लायक अनाज भी नहीं उगा पाएंगे।
…बेशर्म समुदाय का एक बड़ा हिस्सा शहर और गांव दोनों जगह है। यह कमजोर तबके का अंग भी है। इनके चूल्हे में सस्ते गल्ले की दुकानों का राशन पकता है। यह गेहूं-चावल बड़े फार्मों के किसान पैदा करते हैं। सरकार फार्म स्वामियों और राइस मिलरों से लेबी के रूप में सस्ता अनाज सरकारी गोदामों में भरती है। वही राशन सस्ते गल्ले की दुकानों में भेजा जाता है। नए कृषि कानूनों से यह खरीद बंद हो जाएगी और विविध रंगों के कार्ड राशन लेने के काम न आएंगे।
व्यापारी बिचौलिए होते हैं। इनका काम डंडी मार नगदी कमाना होता है। बहुतेरे व्यापारी आलसी, नासमझ, बेदर्द और बेशर्म होते हैं। खेतों की मेहनत का मोल इनके पल्ले नहीं पड़ता। दुकानदारी में लगे कम ही लोग समझदार होते हैं। वही जानते हैं, अब खाद्य पदार्थ बहुत महंगे होंगे और दुकानदारी चौपट हो जाएगी। आराम की नौकरी करने वाले भी लगभग ऐसी ही सोच में रमे रहते। वो अतिरिक्त कमाई के फेर में पड़े रहते हैं।
मीडिया मछली बजार है। यह गंदा, बदबूदार और समाज के लिए बीमारी बन चुका है। इनमें काम करने वाले चिल्ला कर सड़ी मछली बेचने में माहिर होते हैं। यह फड़ के मालिक और ठेकेदारों की वफादारी में अपना जीवन नरक किए रहते हैं। इन्हें अपने हितों की बात भी समझ न आती। दिमाग की विश्लेषण क्षमता शून्य हो जाती है। ये हर बात और आंदोलन में खोट ढूंढते, हर अच्छाई के दुष्मन होते हैं।
…सत्ताधारी दल के समर्थक घर फूंक तमाशा देख की सोच के हैं। इन्हें लगता है आराध्य अब धर्मस्थल छोड़ दिल्ली की सत्ता में विराजमान हैं। अब वे – मैं मूरख खल कामी, मैं सेवक तुम स्वामी का जाप करते मगन हैं। इन्हें अपने हित-अनहित का भी जरा भान न होता। आंखें मूदे यह समूह हर आंदोलन से आतंकित हो उठता, किसी नीति का विरोध इन्हें आतंकवाद लगता हकिसान आंदोलन का विरोध करने वाले छात्रों का बड़ा हिस्सा इस समुदाय से जरा हट कर है। स्कूल-कालेजों की शिक्षा खेतों की मेहनत से कटी है। राजनीति, इतिहास और वैज्ञानिक समझ का अभाव हाने से बहुतायत में छात्र किसानों के साथ नहीं जुड़ पाते। इन्हें समझदार बनाने की जरूरत है।
..किसानों की मांग समझ न सके जो वो इंसान मुर्दा है..