रिया
कक्षा – 10
नानकमत्ता पब्लिक स्कूल
उसका कहना था कि वो अब बड़ी हो गई है। खेलने-कूदने का समय नहीं बचा है! योगिता की ही तरह तो होता है हम सबके साथ। बड़े होते-होते इतने बड़े हो जाते हैं कि अपने शौकों से ही दूर भागने लगते हैं। लेकिन सब योगिता जैसे होते भी नहीं जिन्हें अपने शौक वापस जीने का मौका मिल पाता हो। योगिता (कक्षा 8वीं) नानकमत्ता के एक छोटे से गाँव मिलक में अपनी सीनियर अंशु राना के साथ सामुदायिक पुस्तकालय चला रही हैं। सामुदायिक लाइब्रेरी चला रहे नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के सभी साथियों के साथ उनके अनुभव जानने के सत्र में उन सभी अनमोल लम्हों के बारे में जानना बहुत कुछ सीखने वाला रहा।
“भय बिन होत न प्रीत!” काफ़ी सुना होगा इस छोटे से वाक्य को। अक्सर इसे शिक्षक और छात्र के संबंध के साथ जोड़ा जाता है। सीखने सिखाने की प्रचलित प्रक्रिया के खोखलेपन को हमारे सामने रखते हैं ये चंद शब्द! कुछ ऐसा ही हमारे लाइब्रेरियन साथियों का भी मानना है। साथी निधि (कक्षा दसवीं) कहती हैं कि – “बच्चों को लाइब्रेरी में वो स्पेस मिल पा रहा है जहाँ वो अपनी बात खुलकर रख सकते हैं। उन्हें ये डर नहीं है कि कोई उन्हें डाँटेगा।” शायद यही वजह है कि गायत्री जैसे हमारे साथियों को उन बच्चों के साथ एक परिवार जैसा अनुभव होता है।
कुछ रिश्ते बनाने में लोगों को सालों लग जाते हैं। पुस्तकालय अभियान शुरू किए अभी सिर्फ़ 3 महीने पूरे हुए हैं। इन महीनों में ही हर लाइब्रेरी चला रहे और वहाँ आ रहे बच्चों के बीच अनोखा रिश्ता बन गया है। अक्सर अपने गांव मिलक की लाइब्रेरी में जाने वाले पीयूष राना (कक्षा 9वीं) का कहना है कि – “पहले मुझे लगता था इन बच्चों के साथ जाकर मैं क्या करूंगा, लेकिन अब उनके साथ ऐसी दोस्ती हो गई है कि बच्चे घर में ही बुलाने आ जाते हैं।”
नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के साथियों द्वारा कुल 15 पुस्तकालय वर्तमान समय में चलाए जा रहे हैं। इनमें से कई पुस्तकालयों में अभी पढ़ाई से इतर, “रिलेशनशिप बिल्डिंग” यानी बच्चों के साथ अच्छे संबंध बनाने पर काम किया जा रहा है। साथियों का मानना है कि प्यारे-प्यारे बच्चों से दोस्ती करके ही उन्हें कुछ नया सिखाया और उनसे कुछ नया सीखा जा सकता है। जी हाँ! लाइब्रेरी में सिर्फ़ लीडर ही हमेशा नहीं सिखाते, बच्चे भी बहुत कुछ सिखा जाते हैं। कुछ ही हफ़्तों पहले शुरू की गई लाइब्रेरी की साथी सिंपलदीप कौर (कक्षा 8वीं) कहती हैं कि – “कभी हमसे पढ़ने में कोई गलती हो जाती है। बहुत खुशी होती है जब नन्हे बच्चे हमें सही करते हैं और बताते हैं इसे ऐसे पढ़ा जाता है।”
पुस्तकालय अभियान शुरू करते हुए कोई अंदाजा नहीं था कि हमें लोगों का समर्थन मिलेगा भी या नहीं। कई शंकाएं थीं। ये ज़िम्मेदारी लेने के लिए बच्चे आगे आएंगे भी या नहीं? लेकिन देखते ही देखते हमें पता चला कि लगभग 50 साथी इस मुहिम से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। ऐसा कभी नहीं हो पाता अगर कम्यूनिटी का सपोर्ट और बच्चों में जज़्बा न होता! नानकमत्ता के बंगाली कलॉनी क्षेत्र में लाइब्रेरी चला रहे अरुन जोशी कहते हैं कि – “कुछ बड़े लड़के लाइब्रेरी चलाने के दौरान बच्चों को परेशान करते हैं। पड़ोस की एक आंटी आकर उन्हें समझाती हैं यहाँ बच्चों को पढ़ने दो।” ऐसे ही हर क्षेत्र और हर लाइब्रेरी के अपने कई अनूठे किस्से हैं।
सीखने-सिखाने की इतनी व्यापक प्रक्रिया को एक ढाँचे में ही समेटकर रख दिया जाता है। साथी राधा कहती हैं कि – “जब भी हम बच्चों को कोई कहानी सुनाते हैं उसके बाद कहानी के बारे में उनके विचार सुनते हैं। सभी के पास इतनी अनोखी बातें होती हैं बताने को! सभी के सोचने समझने का नज़रिया भी बहुत अलग होता है।” बच्चे सब कुछ देखते हैं। वे सब समझते हैं। ज़रूरत है तो हमें उन्हें समझने की और सीखने सिखाने के नए-नए मौके देने की।
इस अभियान को चलाने के दौरान कई परेशानियां भी साथियों के सामने आ रही हैं। कुछ इन्हें अपने लिए चुनौती के समान ले रहे हैं और “प्राब्लम सॉल्विंग” सीख रहे हैं। अपने गाँव बरकीडांडी की लाइब्रेरी से जुड़े प्रमोद काण्डपाल बताते हैं – “हम सभी के लिए आम समस्या ये है कि समुदायों के बीच दूसरे समुदाय के प्रति कई पूर्वाग्रह हैं। इस वजह से आपस में अच्छे संबंध बना पाना मुश्किल हो रहा है।” प्रमोद जी (नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के पूर्व छात्र) उनमें से एक हैं जिन्होंने सामुदायिक लाइब्रेरी मुहिम की नींव रखी।
ऐसी ही कई समस्याएं सभी साथियों के सामने आ रही हैं, जिनसे उन्होंने खुद ही लड़ने का मन बना लिया है!
कृति अटवाल
कक्षा – 10
नानकमत्ता पब्लिक स्कूल
हर किसी के लिए सीखने की परिभाषा अलग है। किसी के लिए इसका मतलब केवल स्कूल जाने से, परीक्षा में अंक लाने से है, तो किसी का चीजों के संदर्भ को समझने से। लेकिन कोरोना काल ने यह तो सबको सीखा ही दिया है कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया स्कूल की चार दिवारी ही तक तो सीमित नहीं हैं क्योंकि सीखने-सीखाने के पारंपरिक संस्थान “स्कूल” में भी इस बीच ताले लग गए थे और अभी भी यह ताले केवल कुछ ही बच्चों के लिए खुले है। सोचने वाली बात है कि इस बीच बच्चों के लिए अपने ही साथियों से मिलना, उनके साथ खेलना कितना असंभव सा हो गया होगा। यहीं हाल हमारे इलांके में भी था। स्कूलों के दरवाज़े बंद थे और घरवाले भी बच्चों को बाहर जाने नहीं देना चाहते थे। कुछ महीने तो ऐसा ही चला। पर धीरे-धीरे समझ आया कि इन महीनों को अवसर के रूप में भी तो बनाया जा सकता है।
बच्चे विद्यालय के दबावपूर्ण ढांचे से दूर है, स्कूल खाली है, इन विपरीत परिस्थितियों ने हमें, यानी नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के साथियों को, एक अवसर दिया। एक ऐसा अवसर जिसमें हम किसी को सुने और कोई हमें अपने अनुभव सुनाए, और हम मिल जुलकर सीखें। यह था “लाइब्रेरी अभियान”। लगभग तीन महीने हो गए है इस अभियान को और इस अभियान के तहत 16-17 लाइब्रेरी भी खुल चुकी है नानकमत्ता क्षेत्र में। खास बात यह है इन लाइब्रेरी की कि इन्हें बच्चें खुद ही चला रहे है। राह में आने वाली हर चुनौती को सुलझा रहे हैं और सीख रहे है कि कैसे चीजें अनुभव से सीखी जाती हैं।
कल लाइब्रेरी चला रहे साथी एक दुसरे से मिले। सभी ने अपने अनुभव साझा किए और दूसरों के अनुभावों से सीखा। लगभग 40 साथी थे। 40 साथी मतलब 40 अनुभव, 40 नई कहानियां। हर एक का अनुभव अनोखा था। नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के पूर्व छात्र और बरकीडांडी में लाइब्रेरी चला रहे प्रमोद कांडपाल कहते है कि ” अभी हमने ‘सामुदायिक लाइब्रेरी’ अभियान का केवल समुदाय ही हासिल किया है यानी अभी तक हम केवल बच्चों तक पहुंचे है और उनसे अच्छे रिश्ते बना रहे है।” वाकई प्रमोद जी की यह बात सच है, सामुदायिक लाइब्रेरी एक ऐसा मंच है जहां हर कोई अपनी मर्ज़ी से बिना किसी दबाव के आता है और उस मंच के बने रहने के किए रिश्तों को मजबूत करना तो बहुत ही जरूरी है। प्रमोद भैया के ही साथ लाइब्रेरी चला रही नवीं कक्षा कि साक्षी कहती है “बड़ी खुशी होती है यह देख कर कि हमारे साथी हमसे भी पहले पहुंच जाते है और हमें बेझिझक होकर बताते है कि आज इस मंच को कैसे मजेदार बनाना है।” मिलक की लाइब्रेरी लीडर, कक्षा आठवीं की योगिता कांडपाल कहती है “मुझे घर से बाहर निकल कर बच्चों के बीच जाना ही बहुत पसंद है और बच्चों के साथ रहकर में अपने आप में भी अंतर महसूस कर रही हूं, जैसे पहले में बात-बात कर गुस्सा करने लगती थी पर अब में चीजों को स्वीकार करना सीख रही हूं।”
साथियों ने बताया कि उन्हें समुदाय का बहुत साथ मिल रहा है अगर गांव के ही बड़े लड़के परेशान करें तो आंटिया आकर उन्हें समझती है कि वो अच्छा काम कर रहे है उन्हें परेशान मत करो। समुदाय का यह सहयोग सभी को प्रेरित कर रहा है। कल्याणपुर में लाइब्रेरी चला रही ग्यारवीं की साथी प्रिया भट्ट कहती है “हमें सभी को सुनना और सभी के मत को स्वीकार करना सीखना पड़ेगा और इस बात का अनुभव अपने साथियों को भी कराना होगा ताकि कोई भी हतोत्साहित ना हो।”
कई विविध अनुभव निकल कर आए और सभी ने मिलकर उन चुनौतियों को सुलझाने के रास्ते भी खोजें जो हर कोई अनुभव कर रहा था। सामुदायिक लाइब्रेरी अभियान से समुदाय से संबंध तो अच्छे हो ही रहे है साथ ही हम किताबी ज्ञान को अनुभव से सीखने में भी सक्षम हो रहे है।आगे भी इस तरह की मीटिंग होती रहेंगी जिससे विचार विमर्श का यह कार्यक्रम यू ही चलता रहे।
शीतल
कक्षा – 10
देवलथल , पिथौरागढ़
प्रिय साथियों ,
यह सुनकर बहुत अच्छा लगा कि आप सब न सिर्फ अपनी प्रतिभा का प्रयोग समाज को एक नया रूप देने में कर रहे है,बल्कि आप समाज को खुद से जोड़ पा रहे है। पुस्तकालय अभियान जो छोटे-छोटे प्रयासों से आज इतना व्यापक रूप ले चुका है।यह सब आपकी निरंतर सक्रिय भूमिका का सूचक है।इसके पीछे आपकी सूझबूझ और सामाजिकता काम कर रही है। साथ ही आपके शिक्षकों और अभिभावकों का मार्गदर्शन और सहयोग।
आज मुझे रिया चंद, कृति अटवाल और दीपिका द्वारा लिखी रिपोर्ट पढ़ने को मिली। यह हमें भी इस तरह की गोष्ठी करने को प्रेरित करती है। योगिता, अपनी सीनियर अंशू राणा के साथ मिलकर गांव में पुस्तकालय चला रही है,सच में लड़कियां जल्द बड़ी हो जाती हैं।घर के कामों से उनके पास अपने लिए समय ही नहीं बचता है।यह हम सभी लड़कियों के साथ होता है।
रिया ,आप एकदम सही लिखती हैं, ” भय बिन होत न प्रीत” यह लोकोक्ति सीखने की प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा है। कोई संदेह नहीं भय हमें सीखने से रोकता है। निधि और गायत्री के अनुभवों के आधार पर कहूँगी कि आप लोग बच्चो के साथ परिवार जैसा परिवेश देख पा रही हैं,यह आपकी सामाजिकता को दर्शाता है।सच, हम अपने समाज के साथ जितना मिलते है,उतना वह हमें अपना लगने लगता है।
सिम्पलदीप कौर , आप बच्चो की किताबों से दोस्ती कराने के लिए खुद ही उन्हें किताब से पढ़ कर सुनाती हैं ताकि बच्चे कहानी को ध्यान से सुने और उनके पढ़ने में हो रही कमी को उन्हें बता सकें ।मैं कहूँगी इससे अच्छा सभी के लिए क्या हो सकता है।
यह बात हर जगह और हर काम को करने में हमें देखने को मिलती है।कुछ लोगो को अच्छे काम से भी दिक्कत होती है।वह अपनी क्षुद्र मानसिकता से हमें परेशान करने की कोशिश करते है।लाइब्रेरी चलाने में आप लोगो को ऐसे लोगो का सामना करना पड़ा यह बात ज्यादा नई नहीं है।अरुण जोशी, हमारा समाज हमें अच्छे काम के लिए सपोर्ट भी करता है।यह आज तक के अनेक उदाहरणों से भरा है।निम्न कृत्य करने वाले लोग खुद के कार्यों से हमेशा खुद ही शामिंदा होते है।
राधा, यह तो मजेदार है,एक साथ इतने विचारो को सुनना,उनके अनुभव को समझना उससे खुद भी नया सीखना,यह हमारे लिए किसी सुअवसर से कम नहीं है।
प्रमोद जी की बात से मैं एकदम सहमत हूं कि जहां लाइब्रेरी में हर समुदाय , हर क्षेत्र के बच्चे स्वेच्छा से आते है तो जो पूर्वाग्रह होते है,वह आपस में मिलकर टूटते जाते है।
अक्सर मेरे साथ भी यह बहुत बार हुआ है कि जो हम दूसरे समुदाय के बारे में सोचते हैं या हमें जैसा बताया जाता है वह सब होता नहीं।बस हमें जरूरत है कि सभी से जुड़कर नजदीक से रिश्ता बनाएं।जहां हम स्वयं एक दूसरे को जान सकें।
कल्याणपुर की प्रिया, आप सच में बहुत ही बारीक नजरिया रखती हैं अपने समाज के प्रति कि हमें सभी के विचारों को सुनना सीखना होगा।यह वास्तव में अपने समाज को जोड़ने का सशक्त माध्यम है।जहां सभी को साथ लेते हुए ही हमें आगे बढ़ना चाहिए।
दिनेश कांडपाल जी , आप सही बोलते है, हमें बेहतर कार्य करने के लिए अपने समुदाय का साथ मिलता है।
इस लॉकडाउन में लाइब्रेरी से अच्छा माध्यम कुछ और नहीं हो सकता जो हमें अपने आस पास से जोड़कर रखता है।यह ऐसे काम है जो हमें सामाजिक बनाते है।
मै रिया ,कृति,और दीपिका का बहुत बहुत धन्यवाद देती हूं कि उन्होंने पुस्तकालय संचालक साथियों के साथ न सिर्फ मीटिंग की ,उनके अनुभवों को सुना बल्कि उस शानदार बातचीत को हम सभी तक पहुंचाया।
आशा करती हूं,आप आगे भी इस तरह की गोष्ठी करते रहेंगे और हमें आपके अनुभव सुनने और पढ़ने को मिलेंगे।