मृगेश पांडे
बृजेंद लाल साह के बहुचर्चित नाटक त्रिशंकु का एक संवाद याद आता है।……सुविधा, अवसर, समझौता, और तटस्थता। जो न चल सका इन चार रास्तों पर वह हो गया त्रिशंकु बन गया। 17 सितम्बर 2017 को गठित पलायन आयोग की चैरासी पन्नों की रपट में 7950 ग्राम पंचायतों में 6338 ग्राम पंचायतों से पलायन शुरु हुआ। उत्तराखण्ड के एक हजार गांव भुतहा हो गए। तीन लाख तेरासी हजार सात सौ छब्बीस लोग लटक गए….बन गए त्रिशुंक। हो गए त्रिशंकु। कहे गए प्रवासी।
आयोग की पहली रपट पौड़ी जनपद पर थी। पलायन आयोग का मुख्यालय भी पहले पौड़ी में था। तदन्तर अध्यक्ष प्रवास कर देहरादून बैठ गए। हां, यह वही पौड़ी था जिसकी बहुआयामी-प्रतिभाऐं आज मजबूती से सत्ता में प्रतिष्ठित है। पौड़ी की कुल 1212 गांव पंचायतों में 1025 से पलायान हुआ। आधे से अधिक लोग रोजी रोटी व परिवार की चिंता से गांव के परिवेश से छिटक गए। वर्ष 2011 के बाद पौड़ी जनपद में पच्चीस प्रतिशत गांव व तोक पूरी तरह मानव विहीन पाए गए तो 112 तोक या मजरों की आबादी में पचास प्रतिशत की कमी पाई गई ।
प्रवासी जनसंख्या के जनपदवार वर्गीकरण से स्पष्ट होता है कि देहरादून से 21 प्रतिशत लोगों (894,455 ) ऊधमसिंह नगर से 17 प्रतिशत ( 714,252) और हरिद्वार से 16 प्रतिशत ( 673, 506 ) लोगों का प्रवास हुआ दूसरी ओर बागेश्वर, रुद्रप्रयाग और चम्पावत से होने वाला प्रवास सापेक्षिक रुप से कम है। यह हर जनपद में प्रवास होने वाली आबादी का लगभग 2 प्रतिशत औसत है। पौड़ी व अल्मोडा़ जिले से सर्वधिक प्रवास हुआ।
पलायन आयोग की रपट के अनुसार अब 405 से अधिक ऐसे गांव है जहां दस से कम लोगों रहते हैं अल्मोड़ा जिला से 70 हजार लोग गांव छोड़ चुके हैं। आयोग की रपट बताती है। कि वर्ष 2011 में उत्तराखण्ड के 1034 गांव खाली थे जो 2018 में बढ़कर 1734 हो गये थे। अब प्रदेश में 3.5 लाख से अधिक घरों मे ताले लटके हैं। 2011 की जनगणना में राज्य की जनसंख्या एक करोड़ के आस-पास रही। अब जारी आंकड़ो के अनुसार इसमे 43.17 लाख प्रवासी है। शेष 29.83 लाख लोगों का करीब 70 प्रतिशत गांव से कस्बों व शहरों की ओर बस गया है मतलब साफ है कि प्रवास कर रहे ऐसे परिवारों में आधे से ज्यादा ने अपने मूल निवास के जनपदों से बाहर पांव पसार दिये हैं। पहाड़ में इन्द्र देव की कृपा पर खेती होती है। अन्न-अनाज-नकदी फसल, फल-फूल-सब्जी, दूध का काम सामान्यतः सीमित व सीमांत जोत की बहुलता से साल भर गुजारा करने लायक आय नहीं देता। उपज हेतु कई इलाकों में हाड़-तोड़ परिश्रम है पर प्रतिफल जीवन निर्वाह ही कर पाता है। तो कई स्थानों पर खेत बटाई पर है या नेपाली श्रमिकों को ठेके पर दिए हैं।
मोटर सड़क से तथा स्थानीय व बड़ी मंड़ियों से दूरी भी औने-पौने दामों पर फसल बेचने की बाध्यता देती है। फल फूल सब्जी में कुछ इलाकों में पर्याप्त आय है। परन्तु यहां भी लाभ का बड़ा हिस्सा बिचैलियों की जेब में है। ऐसा नहीं कि स्थानीय परम्परागत उत्पादों की मांग नहीं, गड़बडी यह है कि स्थानीय किसान बाजार की अपूर्णताओं से उत्पादन भले ही पर्याप्त करले पर हाथ में पर्याप्त आय व बचत की प्रवृति बनाए रखने की आवृति नहीं ले पाता। स्कूल कालेज पर्याप्त मात्रा तो दिखाते हैं पर गुणवत्ता की दृष्टि से इनमें कुछ ही पर्याप्त ढांचा रखतें हैं। बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के बाद आम किसान यह सोच नहीं रख पाया है कि उसका बेटा किसान बन पहाड़ के गांव में रहेगा। अब इसे भी विसंगति ही समझिए कि थोडे बहुत स्थानीय ग्रामवासियों और बाहर से आकर सब्जी फल-फूल नकद फसल उगाने वालों ने जैविक कृषि के नाम पर अच्छा मुनाफा कमाया है। दूध का व्यवसाय फला फूला है पर गाय के दूध की कीमत भैंस की तुलना में कम ही बनी रहती है और वसा का प्रतिशत भी कम।
फिर रहे बचे परम्परागत व्यवसाय सृजित करने में भी व्यक्तिगत विफलता स्थानीय भेषजों व जड़ी बूटियों का दोहन भी मिडिलमैन के लिए फायदेमंद है। नयी पीढ़ी इनकी पहचान में वह दक्षता भी नहीं रख पाई हे जो उनके इजा-बाबू आमा बुबु जानते थे। पहाड़ के परम्परागत ढांचे में सरकार कब किन तरीकों, नीतियों योजनाओं से आम कृषक, दस्त कार उपक्रमी को लाभ पंहुचाएगी इसके मानक उलट फेर व नेता अफसरों की सनक हनक पर निर्भर होने से उलट बांसी ही उपजा पाते है। गैर सरकारी संगठनों द्वारा रोजगार सृजन व आय बढ़ाने का चक्र ऐसे गहरे दलदल में फंसा हैं जहां हर प्रकार की बंदर बांट के साथ बहती गंगा में हाथ धोने के सारे खेल रचे जाते है। हजार-सहस्त्र पंजीकृत एन.जी.ओ. में कुछ कर गुजर रहे उंगालियों की गिनती पर है। नाबार्ड का योगदान विशिष्ट बन सकता था पर विभागीय लापरवाहियां ऐसी कि उसे समुचित प्रस्ताव ही समय पर नहीं दिए जो जनगणना के आंकड़ो से यह तस्वीर भी साफ होती है प्रवासी संख्या में दो तिहाई भाग महिलाओं का है। सामान्यतः माना जाता है कि प्रवास का मुख्य कारण रोजगार की सुविधा का अभाव है। वही आंकड़े बताते हैं कि प्रवास कर गए लोगों में मात्र 14 प्रतिशत ही ऐसे है जिन्होंने काम धंधे की खोज हेतु प्रवास किया और मात्र 2 प्रतिशत ने शिक्षा यानी बच्चों की लिखाई-पढ़ाई के लिए अब जो यह अंतराल दिखाई दे रहा है उसके पीछे प्रवासी जनसंख्या में महिलाओं की बहुलता है और इसका एक मुख्य कारण है शादी-विवाह। विवाह के बाद अपना गांव-कस्बा-जिला-छोड़ कर अपने पति के साथ सपरिवार जाने का चलन अब बढ़ गया है। इस प्रकार वह प्रवासी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा बन जाती हैं। प्रवासी महिलाओं में 66 प्रतिशत ने विवाह को प्रवास की मजबूरी का बड़ा कारण बताया।जिसने उन्हें एकल कटुआ बनाया।
संगठित व असंगठित क्षेत्र में नौकरी सेवा व व्यवसाय के विविध क्षेत्रों से जुड़ उपयोग की प्रवृतियां जीवन निर्वाह स्तर से उठी है। बचत की औसत प्रवृतियां भी बढ़ी है। आय के इस संक्रमण से परिवार की माली हालत ठीक ठाक होने, बीमा पेंशन ग्रेज्युटी की रकम के जमा होने, मांगलिक अवसरों के निमित्त ही सही, सोने के जेवरो के प्रति आकर्षण बने रहने व हैसियत के अनुरुप गांव में चल-अचल सम्पत्ति जैसे कई कारकों से गांव शहरों मे मकान बना लेने की सीमांत क्षमताएं काफी बढ़ी है। बैंकिग संस्थाओं द्वारा सापेक्षिक रुप से कम दरों पर ब्याज ऋृण लेकर अपना आवास बना लेना भी आसान किया है। ऐसे में गांवों में जनघनत्व सिमटा है तो शहरों में अपेक्षाकृत अधिक नागरिक सुविधाओं के आकर्षण में तराई-भाबर में बसने की प्रवृतियां उफनती रही है। बुढ़ापे मे स्वास्थ्य सुविधाओं की प्राप्ति होने की आशा से तराई भाबर में बेहिसाब बसाव हुआ है तो देश के अन्य नगरों महानगरों में भी पर्वतीय जन पर्वतीय जन स्थापित हो गये है। अब बच्चों में भी यह मनोवृति साफ है कि उनके मां बाप उनके लिए लाइबेलिटी नहीं। अभिभावक भी ऐसे स्थानों पर मकान पसंद करते हैं जहां यातायात की पर्याप्त सुविधाएं हो ताकि बच्चे तुरंत उनसे आ कर मिल सकें ऐसे स्थलों में भी पचास वर्ष से अधिक आयु की आबादी का प्रतिशत बढ़ रहा है। प्रवास की दूसरी तीसरी पीढ़ी यह सुख भोग रही है।
वर्ष 2001 के बाद से 2011 तक अल्मोड़ा के ग्यारह विकास खण्ड़ों में 646 पंचायतों से 16,207 लोगों ने स्थायी रुप से गांव छोड़ा। पैतृक गांव से बाहर निकल गए लोगों की संख्या 70.000 से अधिक रही। सल्ट भिकियासैण, चैखुटिया व स्याल्दे विकास खण्ड से अधिक पलायन हुआ। अल्मोड़ा की 1022 ग्राम पंचायतों में 53611 लोगों ने पूरी तरह से पलायन नहीं किया। वे समय-समय पर पैतृक गांव जाते है। जनपद के 11 विकास खण्ड़ों से 7.13 प्रतिशत लोगों ने गांव के नजदीकी शहरों की ओर पलायन किया।
तो 13 प्रतिशत ने जनपद मुख्यालय, 32.37प्रतिशत के अन्य जनपद व 47.08 ने राज्य से बाहर गुजर बसर की। देश से बाहर 0.43 प्रतिशत लोग गये। 2011 के बाद अल्मोड़ा जनपद के 80 गांवों में अन्र्तसरचनात्मक सुविधाओं के घिसे पिटे पन से 50 प्रतिशत आबादी बाहर सरक ली। हालत यह थे कि 63 गांवों में सड़क नहीं थी तो11 गांवो मे बिजली नहीं । सिर्फ लालटेन और लम्फू से रातें कट रही थी। सोलर लाइट के विकल्प भी किसी सरकारी योजना का हिस्सा नही थे। 34 गांवों में 1 कि.मी के दायरे में पेयजल का अभाव था। नौले धारों मे जलस्तर सिकुड़ रहा था। बस कसर यह रह गई थी कि शहरों की तरह इन प्राकृतिक जल स्त्रोतों पर सीमेंट व सजावट का मुलम्मा नहीं था नहीं तो यह भी बंजर पड़ जाते। 71 गांव ऐसे से थे जिनमें प्राथमिक स्वास्थ्य केद्र तक नहीं । जहां प्राथमिक स्वास्थ्य केद्र है भी वहां चिकित्सक नहीं, जहां प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है भी वहां चिकित्सक नहीं, फार्मेसिस्ट दवा बांट देते हैं। कई जगह तो सफाई कर्मचारी ही इस दायित्व का निर्वहन अपनी पूरी निष्ठा से किये जा रहे थे। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रो से बढ़ कर कस्बों व शहरों के अस्पताल भी चिकित्सकों व अन्य स्टाफ के साथ औषध्ाि मरहम यही की अर्द्ध बेकारी, मौसमी बेकारी व संरचनात्मक बेकारी की छाया से ग्रस्त हैं। बांड भरा कर भी एमबीबीएस योग्यता पहाड़ चढ़ने का जोखिम नहीं उठाती। ऐसे में जो बचा खुचा तन्त्र है उसका दायित्व मरीजों की बेहतरी के लिए रिफर कर देना ही शेष रह जाता है।
झोलाछाप संस्कृति के आर. एम. पी बड़े गांवों व कस्बों के समीप अपनी दुकाने सजाए हैं। 30 से 70 प्रतिशत का मुनाफे वाला कारबोर है। यह जन औषधि केन्द्रों में दवा आध्ाी अधुरी तो अपनी ही मानाकों पर खरी नही। 1950 के दशक में प्रो. एस.डी.पंत ने अपनी पुस्तक सोशियल इकानामी आफ हिमालय में पहाड़ की अर्थव्यवस्था व्यवस्था के अर्धसत्य को खेती, दस्तकारी, शिल्प, उपलब्ध संसाधनों के साथ लोग बागों के प्रयास व आशा इच्छाओं के द्वंद के साथ सरल भाषा में समझाया था। प्रवास की समस्या तब भी मुंह बाए खड़ी थी और धीरे-धीरे पहाड़ की खेती बागवानी-पशुपालन को नौजवान हाथों की मेहनत से वंचित कर रही थी। गांव के परिवारों से सदस्यों की संख्या कम हो रही थी। पर घर में चूल्हा जलता था। संध्या पूजा होती थी। होती थी। कई दशाओं में बाहर गए व्यक्ति के द्वारा भेजे गए मनीआर्डर से माली हालत में भारी सुधार भी आया था। 1950 के दशक में पहाड़ के मध्य वर्ग व सम्पन्न लोगों ने बेहतर शिक्षा व काम घंघों की संलिप्तता के साथ अपने से समृद्ध समाज में घुसपैठ कर अपनी बेहतरी के सपने के साथ शहरों नगरो-महानगरों-राजधानियों का रुख किया था। तब हुए प्रवास से ग्रामीण आय में वृद्वि के संकेत दिखे थे। पर यह प्राथमिक चरण था।
प्रवास के कई चरण रहे हैं। खुद कुछ कमाने खाने को आतुर हाथ की उभरती नसों और मजबूत पिंडलियों के साथ वहां जाना पंसद करता है जहां कुछ आशा अभिलाषा पूरी होती दिख रही हो। छोटी-मोटी नौकरी या काम घंधा चल निकलने की गुजाइश दिखती हो। कम सुविधा वाले गांवों से अपेक्षाकृत अधिक सुविध्ाा वाले कस्बे शहरों नगरों की ठौर पकड़ी जाती है। भले ही गांव का मोहन छूटे। कौणी-मडुवा-गहत-भटृ-दन्याली, हिसालू-काफल की नराई लगती रहे। मोटर मार्गो से जुड़े कस्बे अपेक्षाकृत अधिक तेजी से फैलने की प्रवृति रखते हैं। वहां की दुकान होटल ऐसे श्रम की प्रतीक्षा भी करते है। पहले के दौर में मिडिल पढ़, हाईस्कूल इंटर के लिए शहरों का रुख किशोर पीढ़ी करती थी नगरों में अक्सर कुछ रिश्तेदार या पड़ोसी के यहां आरंभिक ठिकाना जमता था। फिर जैसी भाग्यरेखाऐ वैसी ही दौड़। घर के दुख-दर्द से परेशान अधिकांश किशोरों ने नगर का रुख किया जो भी काम मिला उसे पूरे मन पूरे पहाड़ी पन से निभाय। जोखिम वृति और चालकी ऐसी न उन्हे कि उन्हें खुड़पे और चालु बना व्यवाहारिक बुद्धि वाला बना देती। अधिकांश ईमानदार रहे, रसोइये बने, घर में मालकिन का बिलौज-पेटीकोट भी पूरी श्रद्वा से धोते रहे। मनमौली बने।
शेखर जोशी की काहनी दाज्यू में ऐसे ही भनमजुए का दर्द पाऐंगे आप। लखनऊ के प्रवासी अधिकांश राजदरबार व सचिवालय के चपरासी क्लर्क पदों से रोजी राटी कमाए। इलाहाबाद मं एजी आफिस, यूपी बोर्ड और कई अन्य सरकार बस्तिायां जो, देहली में पूरा सरकारी अमला जहां बाबू -सुपरिंटेडेट के साथ, अर्द्धकुशल योग्यताओं की फैैक्ट्री में खपना आसान ही था। थोड़ी जान-पहचान। प्रवास के यह सुखद लक्षण थे जो पहली तारिख को निश्चित वेतन का चरमानंद प्रदान करते थे। यह प्रक्रिया ब्रिटिश भारत के राज में ही परवान चढ़ गई थी जो आजादी के बाद विशेषतः दूसरी योना में औधोगीकरण की आंधी के साथ उस नए दौर की कहानी सामने आई जिसने खेतिहर समाज की सोच विकृत कर दी। शहरों में मिल रही नकद मजदूरी के लोभ से परम्परागत ज्ञान, कारीगरी, शिल्पदस्तकारी लोकथाओं सब छुमंतर होते गए। गांव की हवा पानी पर्याप्त जगह सिकुडती सिमटती आम आदमी के मन को भी अपने और अपने परिवार के लिए करने खपने की सोच दे गयी। वैयक्तिक अलगांव की जो व्याधि आज समूचे समाज में दिखाई दे रही है उसके पीछे पीढ़ियों से बहुत कुछ खो देने का दर्द भी है और अकेले पन की पीड़ा भी। गम गलत करने को जब चैपाल नहीं मिली, बात सुनने को पड़ोसी नहीं, तो सब आदि व्यधि कि निबटान को नशे ने अपनी गिरफ्तार में ले लिया। सूर्य अस्त, बचे खुचे डोलुए भी मस्त।
दूसरी योजना के महालनोबीस मैडल में टू-सेक्टर व फोर-सेक्टर रणनीति से फर्म फैक्ट्री कारखाने छोटे मोटे धंधे पनपे। आम प्रवासी को दोयत दर्जे का रोजगार मिला। अर्धकुशल स्तर के तकनीकी योग्यता। लध्ाुलद्योग आधारभूत उद्योग और भारी उद्योगों में अधिक मुनाफा और बेहतर वेतन लेने वाली जमात इन प्रवासियों की भीड़ से अलग थी। अपनी सुगठित देह, जोखिम वहन क्षमता व साहस से पुलिस सेना जैसी खपे जहां से पहाड़ में मनी आर्डर अर्थव्यवस्था की प्रणाली पनपी जो बीते समय का सुनहरा आर्थिक अतिवृत रचती थी। सत्तर के दशक के साथ ही गांव के सम्पन्न परिवारों के सपूत अच्छे पब्लिक स्कूलो में पढ़ लिख व विविध संस्थानों में अलग-अलग प्रकार की कुशलताऐं संजो देश विदेश के मध्यम वर्गीय प्रशासनिक प्रवंधकीय सेवा क्षेत्रीय पदों पर आसीन होना आरंभ हो गये थे। इसके पीछे उनके अभिभावकों का हाड़तोड़ परिश्रम व संघर्ष की सत्य कथाऐं थी। अब इस संतति का पहाड़ प्रेम साल भर चुभने वाली नराई के साथ मात्र कुछ दिनों के सौर सपाटे व पुरखों की विरासत के भव्य मनोरम दर्शन तक सीमित है वह भी उन गांवों तक सीमित, जहां फर्रारेे से का स्टैकसीबस ने रास्ता पकड़ा हो। अब धीरे-धीरे पहाड़ में साल में कुछ दिन अपने गोठ-बाखली में फरकने व विविध कर्म काण्ड़ों के साथ देव पूजन जैसे विधानों में युवा प्रवासियों की उपस्थिति कम होती जा रही है।
मुंबई में नवी मुंबई-कल्याण से आगे बदलापुर में अल्मोड़ा ताकुला के ललित मोहन पाण्डे ने कारों के विडस्क्रीन साफ किये, गाडियां धोई टायर बदले। कुछ उस्ताद मिले सो मैकेनिक का काम सीख गए। गैरेज में रोज ग्रीस आयल से हाथ काले करते अचानक एक दिन जब गैरेज के मारवाड़ी सेठ के घर में हुए शुभ कार्य में उनके पुरोहित दिन दुपहरी तक न पहुंचे तो सेठ को वह पहाड़ी पाण्डे याद आया जो जनेऊ पहनता था। प्याज लहसुन नहीं खाता था। धुटकी सुटकी से ग्रस्त भी नहीं दिखता था। कहते हैं मुबई की धरती फिल्मों की तरह आम जन की किस्मत भी पलट देती है सो ऐसे ही पाण्डे जी भी ब्रहमसूत्र पा गए। आज पंडित ज्यू का विशाल नेटवर्क है जो उनके रिश्तेदार चेलोंकी टोपी-धोती गन्धाक्षत से सुसज्जित रहता है पुंसगन, जातकर्म, नामकरण विवाह से लेकर असंख्य देवी देचताओं की पुजा से लेकर गरुड़ पुराण वाचन मक के कर्म में वह पारगत हैं। रजनीगंधा में बाबा 160 मिलाते हुए कह रहे हैं, जब लमोड़े आया तो ठाकुर आनंदसिंह उम्मेद सिंह एण्ड सन्स लाला बाजार वालों की बत्तीस किताबें अपने साथ घर लाया मास्साब। एक मौका था। बस तब से पहाड़ फरक नही पाया। यहां इतना काम है इतने जजमान है मोबाइल हर समय टिटाट पाडे़ रखता है। क्या जो करुं अब। कभी वहां भागवत कराने की मनतो है।
पहाड़ गंज में रच बस गये भागवत देवी जागरण शिव पुराण के सफल उपम कर्ता शिवदत्त पंडित खोल्टा से भाग आए थे। पहले जी बी रोड मे कांच के गिलास में सुबह से शाम गरम चा की सप्लाई करते थे। खूब गटपट आद कालीमिर्च वाली। रातों में फिर पौवा सप्लाई में आ गये। रंडिया असली भक्तन हैं गुरु जी। एक कोठे में चा सप्लाई पर गया शाम को तो वो बंगालिन धूप जला रही थी। मैंने चाय टेबल पर घर-ऊं ऐ ही क्ली मंत्र पढ़ दिया। अरे उसने घुर पलट कर देखा और कहा ले देवी मां का दीया जला दे तू ये दूसरे दिन से में अपना ही धधां पलटा गया। बाबू पे पता नहीं कितने मंत्र पढे। जाप करे। हर समय की गुण मुण ठैरी उनकी। अल्मोड़ा में उनको गुजकीड़ा पंड़ित कहते थे। पर गुरुजी ना मैं तो पिन कटुआ बन गया। बस अब यहां स्केनर प्रिंटर हूँ, ज्योषित कार्यालय भी है। अब सब स्केनर प्रिंटर की माया भी है। मृगुसंहिता भी ढूंढ जाया हूँ। नीलकंठी से ले लाल किताब। वेंक्टेश्वर प्रेस, तारापुर वाला बनारस वाला ज्योतिष हस्तरेखा मुखाकृषि विज्ञान का हर गं्रथ चाब्ता रहा। अब कहां गांव जाने की फुरसत घर का नाम ही अल्मोड़ा भवन रख दिया हैं। गांवो की खेती, बाड़ी जितनी चादर उतने पैर से हट पांव पसार बाहर निकल कल कारखानों युद्ध पोतों की तकनीकी कुशलता या इम्पोर्ट के जंतर मंतर बेच-खरीद के सारे टुटके। प्रबंध सेवा क्षेत्र चिकित्सा सोफ्टवेयर मैकेनिकल जानकार मनोरंजन क्षेत्र के महारथी आज अधिकांश पहाड़ के प्रवासी है। बहुतेरे एन आर आई। पहाड़ की हिचकी उन्हें आती है बाटुली लगती है।
पर इन्वेस्टर्स सम्मिट में बहुत सीमित करती हिस्सेदारी कइयों को त्याड़ ज्यूने भीमताल में बसाना चाहा पर सिडकुल में इनका उपक्रम प्रतिशत बहुत कम अब सिनमा उत्तराखंड की वादियों के अनुकुल हो रहा भी तो क्या? कल्ट बालाजी की एकता कपूर वहां ‘गंदी बात‘ के तीन खण्ड हरिद्वार ऋृषिकेश में फिल्मा चुकी हैं। अपहरण तो पूरा का पूरा इसी लोकेशन पर है। वेव सीरीज देख लें जरा।