दिनेश कर्नाटक
‘अमेरिका में मेरे दो वर्ष’ आजीवन गांधीवादी सिद्धांतों पर चलने वाले स्वर्गीय गोपाल दत्त पांडे की सन 1960-61 में अमेरिका में बिताए दो वर्ष की डायरी है। हाल ही में करीब 92 वर्ष की उम्र में उनका निधन हुआ। स्वर्गीय पांडेय जी की छवि मेरे दिमाग में एक आत्मीय, सुसंस्कृत तथा ज्ञानी व्यक्ति की रही। वे अच्छे वक्ता थे। कम उम्र में ही गांधी जी की शिष्या सरला बहन से जुड़ गए थे। अपने अंतिम दिनों में सरला बहन रानीबाग में पांडेय जी के निवास पर रही। उन दिनों रामलीला के दौरान स्वर्गीय पांडेय जी को सुनना एक प्रमुख आकर्षण होता था। यह वह दौर था, जब ग्राम समाज के लोग अपने बीच के प्रबुद्ध लोगों का सम्मान करते थे।
पाण्डेय जी ने अमेरिका में एक वर्ष मौन पालन प्रशिक्षु तथा दूसरे वर्ष शिक्षक के रूप में कार्य किया। पांडेय जी मूलतः लेखक नहीं थे, हालांकि डायरी से पता चलता है कि उस दौर में वे गांधीवादी पत्रिकाओं में लिखते रहते थे। उनका बाद का सारा जीवन रानीबाग (नैनीताल) में ग्रामोद्योग को समर्पित रहा। उनकी यह डायरी इसलिए काफी महत्वपूर्ण तथा पठनीय है क्योंकि इसमें उन्होंने बड़ी बारीकी से अमेरिका में बिताए हुए अपने एक-एक दिन, वहां के जीवन तथा कार्यकलापों का ब्यौरा दर्ज किया है। इस तरह यह दस्तावेज है जिसमें 1960-61 के अमेरिकी जीवन तथा वहां काम करने को गए एक आम भारतीय युवक के संघर्ष को प्रामाणिक रुप से देखा तथा समझा जा सकता है।
गोपाल दत्त पांडे जी 1958-60 में माचला, इंदौर में सर्वोदय शिक्षण समिति में हिसाबी कार्य करते थे। वहीं से उन्हें अमेरिका में व्यावसायिक मौन पालन के प्रशिक्षण के बारे में पता चला, जिसमें मौन पालक 2000 डॉलर सालाना वजीफा भी देता था। पहाड़ लौटकर इसे ग्रामोद्योग के रूप में अपनाने तथा अमेरिका को देखने के विचार से सर्वोदय शिक्षण समिति से 5000 रुपये का कर्ज लेकर वे अमेरिका गए।
मगर जैसा कि होता ही है, दूर से जगमगा रही चीजों की हकीकत सामने जाकर पता चलती है। फर्म का मालिक दरअसल बड़ी ही चालाकी से भारत जैसे देशों की गरीबी का फायदा उठाते हुए नौजवानों को प्रशिक्षु के रूप में बुलाता था, मगर 16-16 घण्टे काम लिया जाता था। जहां स्थानीय लोगों को घण्टे-घण्टे की मजदूरी दी जाती थी और ओवर टाइम भी दिया जाता था, वहां लेखक से 161 डॉलर मासिक में बेहिसाब काम लिया जाता। इसमें से उसके 60 डॉलर भोजन तथा सोशल सिक्योरिटी के काट लिए जाते।
आज से साठ साल पहले का वह अमरीका विकास के मामले में आज के भारत से भी आगे था। सड़कें फोरलेन हो चुकी था। घरों में टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन आदि आम बात थी। बिजली गांव-गांव में पहुंच चुकी थी। लेखक को अच्छा यह लगा कि वहां के समाज में मालिक-नौकर का भेदभाव नहीं था। सब मिलकर काम करते। मगर उसे वहां के जीवन में बेहद रूखापन नजर आता था। लोग मशीन में बदले हुए थे। उसके ही शब्दों में-‘इनके जीवन में आहार, निद्रा, मैथुन व कार्य के अलावा है क्या ! कोई हृदय की व अध्यात्म की वृत्ति नहीं। हर वक्त डॉलर ही डॉलर। देखकर आश्चर्य होता है। प्रत्येक व्यक्ति हर वक्त, कार, मोटर, ट्रक पर भागा जा रहा है।”
दूसरे कामगार लेखक का शोषण देखकर दुखी होते थे। लेखक बी.ए. पास था। कष्ट की बात यह थी कि उसने शारीरिक श्रम नहीं किया था, सिर्फ पढ़ने-लिखने का काम किया था। मशीनी काम उसे बेहद उबाऊ लगता था, मगर वह कुछ कर भी नहीं सकता था। जल्दी ही उसे अमेरिका आने पर बेहद पछतावा होने लगा। वह समझ गया कि इस काम में सीखने जैसा कुछ नहीं है। मगर वह 5 हजार के कर्ज में था। अब लौटने की कोई सूरत नहीं थी। कर्ज चुकाने के लिए काम करना ही था। 16-16 घण्टे काम करने की वजह से 3 महीने बाद ही कमर में गम्भीर दर्द होने लगा। काम करना मुश्किल होने लगा तो वह कमरे में पड़ा रहता। अब संकट यह है कि वजीफा नहीं मिलेगा, मगर खाने आदि के 60 डॉलर काट लिए जायेंगे। इलाज बहुत महंगा है। लेखक खुद को दुष्चक्र में फंसा हुआ पाता है। वह महसूस करता है कि पूंजी पर आधारित यह समाज कितना हृदयहीन तथा अमानवीय है।
गांधीवादी होने के कारण लेखक उदार है। यह उदारता उसे इन विपरीत परिस्थितियों को सहने की ताकत देती है। वह फर्म के मालिक से किसी प्रकार की बहस नहीं करता। नियमित रूप से चर्च जाता है। वहां जाने से उसका परिचय का दायरा बढ़ता है। मगर वह देखता है कि ईसाई धर्मावलंबी किसी और धर्म का अस्तित्व स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। उसके परिचय में आने वाले सभी लोग उससे ईसाई बनने को कहते हैं। लेखक उनसे कहता है कि हम लोग एक-दूसरे के धर्म का सम्मान करते हुए अपने-अपने धर्म में क्यों न बने रहें ? मगर उसमें से अधिकांश लोगों को लगता है कि यीशु ही संसार का एकमात्र ईश्वर है। एक विकसित देश के लोगों की इस तरह की धार्मिक संकीर्णता लेखक को काफी निराश करती है।
भारी कर्ज तथा परेशानियों के कारण लेखक न चाहते हुए भी अमेरिका में एक साल और रुकने का निश्चय करता है। वीजा तथा तमाम दूसरी दिक्कतों के समाधान के लिए उसे कई उदार अमेरिकियों से काफी सहयोग मिलता है। काफी जद्दोजहद के बाद शिक्षक के रूप में 4800 डॉलर सालाना का एग्रीमेंट होता है। अब जाकर लेखक की स्थिति बेहतर होती है। उसे जगह-जगह भारत के बारे में बताने के लिए आमंत्रित किया जाता है। इसके एवज में सभी जगह से 5 डॉलर मिलते हैं। ईसाई बन जाने तथा अमेरिका में ही बस जाने के बहुत से प्रलोभन मिलते हैं, मगर लेखक तय करता है कि वह अपनी तरक्की के बजाय अपने क्षेत्र में जाकर अपने लोगों की बेहतरी की कोशिश करेगा।
1960-61 का वर्ष जहां अमेरिका व रूस के बीच बेहद तनातनी का दौर था, वहीं भारत में मास्टर तारा सिंह पंजाब को अलग राज्य बनाने के लिए अनशन कर रहे थे। भारत ने गोआ पर आक्रमण कर उसे अपना हिस्सा बना लिया था। इसके लिए पश्चिम में उसकी आलोचना हो रही थी। लेखक ने अपने समय की इन सब हलचलों को दर्ज किया है। अमेरिका में निजी डॉक्टरों की लूट को सामने रखा है तो बढ़ते हुए यातायात के कारण दुर्घटनाओं से होने वाली मौतों की भी तफ्शील दी है।
इस प्रकार स्वर्गीय गोपाल दत्त पांडेय की यह डायरी लेखक की बारीक दृष्टि, विस्तार से किए गए वर्णन की वजह से एक कालखंड का दस्तावेज है तथा इस विषय पर रुचि रखने वालों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। लोकगंगा के संपादक श्री योगेश बहुगुणा ने पांडेय जी से विशेष आग्रह कर इस कृति को प्रकाशित करवाया। एक महत्वपूर्ण डायरी से परिचित करवाने के लिए उन्हें हार्दिक साधुवाद।
अमेरिका में मेरे दो वर्ष (डायरी)-गोपालदत्त पांडेय
प्रकाशक : मनोरा ग्राम स्वराज आश्रम, रानीबाग (नैनीताल)
मूल्य-₹ 200