दीपक शर्मा
‘बीबीसी’ से साभार
बीते तीन दशकों के वैश्वीकरण ने रोज़गार की परिभाषा भी बदली है और स्वरूप भी. काम करने के तौर तरीक़ों में काफ़ी बदलाव आए हैं, कोरोना संक्रमण के दौरान दुनिया भर में रिमोट वर्किंग का रूप भी देखने को मिला. मज़दूर और मज़दूरी दोनों के अर्थ समय के साथ बदले हैं, ऐसे में 132 साल से चली आ रही मई दिवस की परंपरा के आज क्या मायने हैं?
क्या आज के दौर में भी मज़दूर दिवस की ज़रूरत है?
दुनिया में सबसे ज़्यादा बंधुआ मज़दूर भारत में हैं. विश्व ग़ुलामी सूचकांक की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2016 में भारत में 80 लाख लोग “आधुनिक गुलामी” में जी रहे थे. यानी औसतन एक हज़ार भारतीयों में से छह को अपने काम का मेहनताना नहीं मिल रहा था. हालांकि भारत सरकार ने इन आँकड़ों पर सवाल उठाए हैं.
गुडवीव इंटरनेशनल नाम की एक संस्था के साल 2020 के सर्वे के मुताबिक महामारी की वजह से मजदूरों के कर्ज़ में फंसने का जोख़िम तीन गुना बढ़ गया है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार साल 2016 में दुनिया भर में 4 करोड़ से ज़्यादा लोग बंधुआ मज़दूरी का शिकार थे.
अनुमानों के मुताबिक इनमें से 71 फ़ीसदी महिलाएं थीं. इस साल जारी हुई विश्व असमानता रिपोर्ट की मानें तो भारत में श्रम से होने वाली कुल कमाई का सिर्फ 18 प्रतिशत हिस्सा ही महिलाओं के हाथ आता है.
आईएलओ की साल 2021 की रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में बाल मज़दूरों की तादाद बढ़कर 16 करोड़ हो गई है. रिपोर्ट ये भी आगाह करती है कि कोविड-19 महामारी के असर से इस संख्या में साल 2022 के अंत तक 90 लाख तक का इज़ाफ़ा हो सकता है.
साल 2011 जनगणना के हवाले से संगठन का अंदाज़ा है कि देश में 5-14 साल की उम्र के बच्चों में से 3.9 प्रतिशत मज़दूरी करते हैं.
सरकार के अपने आँकड़े बताते हैं कि देश के कुल श्रमिकों में से 93 फीसदी असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. यानी उनके लिए न्यूनतम वेतन जैसी सामाजिक सुरक्षा के हक पाना और मुश्किल है.
अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव विक्रम सिंह कहते हैं, “देश में करोड़ों शहरी असंगठित मज़दूर और ग्रामीण खेत मज़दूर है जो किसी भी कानून के दायरे में नहीं आते. आज तक हम खेत मज़दूरों के लिए एक केंद्रीय क़ानून नहीं बना पाए हैं. इसलिए मज़दूर दिवस न केवल अधिक प्रासंगिक हो गया है बल्कि हमारी पीढ़ी की ज़िम्मेदारी बन गया है.”
1 मई को ही क्यों मज़दूर दिवस?
दुनिया भर की समाजवादी और श्रमिक पार्टियों के संगठन द्वितीय अंतरराष्ट्रीय ने साल 1889 के पेरिस सम्मेलन में मज़दूरों के हक़ों की आवाज़ बुलंद करने के लिए 1 मई का दिन चुना था.
ये पश्चिम में औद्योगीकरण का दौर था और मज़दूरों से सूर्योदय से सूर्यास्त तक काम करने की उम्मीद की जाती थी. अक्टूबर 1884 में अमेरिका और कनाडा की ट्रेड यूनियनों के संगठन फेडरेशन ऑफ ऑर्गेनाइज़्ड ट्रेड्स एंड लेबर यूनियन ने तय किया कि मज़दूर 1 मई, 1886 के बाद रोज़ाना 8 घंटे से ज़्यादा काम नहीं करेंगे. जब वो दिन आया तो अमेरिका के अलग-अलग शहरों में लाखों श्रमिक हड़ताल पर चले गए.
इन विरोध प्रदर्शनों के केंद्र में शिकागो था. यहां दो दिन तक हड़ताल शांतिप्रिय तरीके से चली. लेकिन तीन मई की शाम को मैकॉर्मिक हार्वेस्टिंग मशीन कंपनी के बाहर भड़की हिंसा में दो मज़दूर पुलिस फायरिंग में मारे गए.
अगले दिन फिर दोनों पक्षों के बीच झड़पें हुईं जिनमें 7 पुलिसवालों समेत 12 लोगों को जान गँवानी पड़ी. इसी वजह से द्वितीय अंतराराष्ट्रीय ने 1 मई का दिन चुना था. शुरुआत में दुनिया भर के मज़दूरों से सिर्फ रोज़ाना 8 घंटे काम की मांग को लेकर एकजुट होने के लिए कहा गया था.
इसके बाद 1889 से लेकर 1890 तक अलग अलग देशों में मज़दूरों ने प्रदर्शन किए. ब्रिटेन के हाइड पार्क में 1890 की पहली मई को तीन लाख मज़दूरों 8 घंटे काम की मांग को लेकर सड़कों पर उतरे. जैसे-जैसे वक्त बीता ये दिन श्रमिकों के बाकी अधिकारों की तरफ ध्यान दिलाने का भी एक मौका बन गया.
इस साल मज़दूर दिवस पर क्या है ख़ास?
भारत में मज़दूर दिवस साल 1923 के बाद से मनाया जा रहा है. उस वक्त तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी वजूद में नहीं आई थी.
हिंदुस्तान लेबर किसान पार्टी के नेता मलयापुरम सिंगारवेलु चेतियार की अगुवाई में चेन्नई में कार्यक्रम आयोजित किया गया था. कार्यक्रम में चेतियार ने 1 मई को राष्ट्रीय अवकाश घोषित करने की मांग रखी थी.
इस साल भी मज़दूर संगठन अलग-अलग राज्यों में रैलियां और प्रदर्शन आयोजित करने जा रहे हैं. सीपीएम से जुड़े मजदूर संगठन सीटू की राष्ट्रीय सचिव एआर सिंधू ने बताया कि उनके संगठन के कार्यकर्ता इस दिन रामलीला मैदान से चांदनी चौक के टाउनहॉल तक रैली निकालेंगे.
इसके अलावा सीटू की राज्य इकाइयों के दफ़्तरों में लाल झंडा फहराया जाएगा और इसी तरह के कार्यक्रम आयोजित होंगे.
दिलचस्प बात ये है कि आरएसएस से संबंध रखने वाला भारतीय मज़दूर संगठन (बीएमएस) पिछले कुछ सालों से 1 मई की जगह विश्वकर्मा जयंती यानी 17 सितंबर को राष्ट्रीय मज़दूर दिवस घोषित किए जाने की मांग कर रहा है.
संगठन के पूर्व अध्यक्ष सीके सजी नारायणन आरएसएस से जुड़ी मैगज़ीन ‘ऑर्गेनाइज़र’ के लिए एक लेख में दलील देते हैं, “बीएमएस ने औद्योगिक रिश्तों में कम्युनिस्टों की वर्ग-शत्रुता के बजाए “औद्योगिक परिवार”का सिद्धांत सामने रखा है. हम विश्वकर्मा जैसी हस्तियों से मिलने वाले “त्याग- तपस्या- बलिदान” और “कर्म ही पूजा है” की सीख पर चलते हैं. मई दिवस एक पश्चिमी सिद्धांत है और भारत के श्रमिकों को उस तरह प्रेरणा नहीं देता जैसी उन्हें विश्वकर्मा जयंती से मिल सकती है.”
लेकिन सिंधु की नज़र में बीएमएस की मांग मज़दूरों के सरोकारों को धार्मिक मान्यताओं का रंग देने की कोशिश है.
वो कहती हैं, “मज़दूरों का शोषण सिर्फ भारत में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में हो रहा है. विश्वकर्मा संघर्ष का प्रतीक नहीं हैं. मई दिवस का ताल्लुक कामगार वर्ग के संघर्ष से है.”