नैनीताल समाचार
मार्च, अर्थात महिला दिवस से कुछ ही पहले डाक से एक किताब मिली, ‘अंकित होने दो उनके सपनों का इतिहास’। शीर्षक के ठीक नीचे, छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा था ‘उत्तरा ‘ में प्रकाशित चुनिंदा कविताएं । हालांकि कोई अच्छी सी कविता इस पुस्तक का मुख पृष्ठ हो सकता थी, पर जब कविताएं पढ़ता चला गया तो लगा कि ढेर सारी कविताएं मुख पृष्ठ पर मुद्रित हो सकती थी। पहली कविता युद्ध के खिलाफ अपने को इस तरह कहती है – खंदक में छिपी लड़की / झांकती है बंकरों की खिड़की से / चाहती है इन युद्धों को रोकना / मांगती है / दुआ खुदा से / इन्सानियत बचाने की / …….. / गाना चाहती है / वह गीत / .. . / बुनना चाहती है / दूर पहाड़ों पर भेड़ों के साथ गए / भाई के लिए / ठन्डे दिनों का स्वेटर
कविता की अपनी भाषा है और इसी भाषा में महिलाओं के आन्दोलन, आज की स्थिति, उनकी तरक्की, उनके संघर्ष कह रही है यह कविता –
ग्रीष्म दहक रहा है / गुलाब को भी आ रहा है पसीना / आ रही है कई – कई , नई कहानियां /
गौरेया के घोंसले से अनकही।
सही बात है कि माँ के जादू से ही चलते हैं घर –
बुदबुदाते / बड़बड़ाते खोलती है ट्रंक / और पटक देती है मुड़े नोट मेरे आगे, / निकालते ही देखा मैने / डालते नहीं देखा कभी / कभी स्वपन में भी नहीं। / तो क्या माँ भी … / हाँ / शायद / माँ जानती है जादू।
घर को चलाए रखने के लिये किसी भी औरत को अपनी हर इच्छा का गला घोंट देना होता है। इस मजबूरी को कहती है यह कविता-
वैसे तो औरत को / चिता में / आग लगाने का भी हक नहीं दिया / इस समाज ने / पर मेरी माँ ने / अपनी तमाम इच्छाओं की चिता पर लगा दी है आग ।
बड़े ही बेहतरीन तरीके से सृजन को कुछ इस तरह से कहती है यह किताब –
जब भी उम्मीद से होती है एक स्त्री /
सम्पूर्ण पृथ्वी / आसमान से उतरने लगते हैं तारे / पृथ्वी की सतह पर चहलकदमी के लिए / समुद्र पखारने लगता है पांव / सम्पूर्ण पृथ्वी … / हवाएं बिखेरने लगती है खुशबुएं ।
श्रम को उसकी पूरी गरिमा प्रदान करती है यह कविता, कहती है –
कामवाली की उंगलियां सरपट दौड़ती हैं कर्म की राह पर / मीनाबाई की उंगलियों में छिपा है पारस / छूती हैं लोहा बना देती हैं पारस / मीनाबाई की उंगलियां हैं या दीपक / प्रकाश भर देती हैं अंधेरे कोने में।
‘बस एक दिन ‘ कविता स्वतन्त्र होने की छटपटाहट को व्यक्त करने के लिए कितना छटपटा रही है-
नहीं बनना मुझे समझदार / नहीं जगना सबसे पहले / मुझे तो बस एक दिन / अलसाई सी उठकर / एक लंssबी सी अंगड़ाई लेनी है / ……
.. …. .. / गुस्साओ, झुंझलाओ , चिल्लाओ , मुझ पर / …….. / मैं तो …… / ये सब छोड़ / अपनी मनपसंद किताब / के साथ / कमरे में बन्द हो जाना चाहती हूं ।
इससे पहले भी ‘उत्तरा ‘ , कविता संकलन ‘विरासतों के साए से निकलकर’ का प्रकाशन कर चुकी है और अब ‘उत्तरा’ को प्रकाशित होते हुए 31 वर्ष से अधिक हो चुके हैं । इन चुनी हुई कविताओं को संकलित कर जो दूसरा संकलन उसने पाठकों के समक्ष रखा है वह एक गम्भीर और सफल कोशिश है। इस उत्साह वर्धक संकलन ‘ अंकित होने दो उनके सपनों का इतिहास ‘ का मूल्य जन संस्करण – 125/- तथा पुस्तकालय संस्करण का मूल्य 225/- है। यह संकलन समय साक्ष्य देहरादून से प्रकाशित हुआ है।
एक गट्ठर घास की आस में /मीलों दूर / ऊबड़-खाबड / झाड़ -झंखाड़ भरे / शिखरों पर चढ़ती उतरती है / पीठ पर शिशु / और आँखों में आकाश बांधे / सारा का सारा दिन / सींचती है खेतों को / भूख – भर अन्न तलाशते हुए काम पर लौटते / बीनती है एक एक दिन / एक पूरा पहाड़ उठाए फिरती है /पहाड़ की औरत ।
इस बेहतरीन संकलन की एक खूबसूरत कविता के साथ सभी पाठकों को महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं ।