लक्ष्य को बड़े मैचों के लिए मानसिक रूप से अधिक तैयारी करनी होगी। उसके प्रतिद्वंदी ने पहला गेम हारने के बाद उसकी कमजोरियाँ पकड़ ली थीं। कहाँ तो फाइनल खेलना था मगर कांस्य से भी चूक गए। कोई गम नहीं, लक्ष्य। सेमी तक पहुँचना भी पहली बार हुआ। आगे और कई अवसर आएँगे। इस मुकाम तक भी पहुंचने के लिये लक्ष्य को नैनीताल समाचार परिवार की ओर से बधाई।
अशोक पांडे
अल्मोड़ा से कौसानी के रास्ते में एक अधसोया सा कस्बा है सोमेश्वर. इसी सोमेश्वर से थोड़ी दूर रस्यारा नाम के गाँव में 1931 के साल चन्द्रलाल पैदा हुए. कुल ग्यारह भाई-बहनों में उनका छठा नम्बर था. उन दिनों परम्परा थी कि समूचे कुनबे का कोई भी सदस्य नौकरी में लग जाए तो अपने संसाधनों से हरसंभव अपने परिजनों की मदद करे. चन्द्रलाल के एक चाचा बद्रीलाल अल्मोड़ा में सरकारी कंपाउंडर थे. वे चन्द्रलाल को अपने साथ अल्मोड़ा ले आए जहाँ से लड़के ने हाईस्कूल पास किया.
उन्नीस साल की आयु में चन्द्रलाल को शहर से 18 किलोमीटर दूर बाड़ेछीना स्थित योजना विभाग के दफ्तर में क्लर्की हासिल हो गई. शारीरिक रूप से फिट चन्द्रलाल जन्मजात खिलाड़ी थे सो पहाड़ी शॉर्टकट रास्तों की मदद से यह दूरी रोज पैदल तय करने में उन्होंने कोई कष्ट न था. पता नहीं कहाँ से इसी दौरान उन्हें बैडमिन्टन का चस्का लग चुका था. पहली तनख्वाह से पोल और नेट खरीदे. उन्हें कंधे पर लादते और जहाँ चाहे कोर्ट बना देते. ज़माने भर के माँ-बाप “खेलोगे कूदोगे तो होगे खराब” में विश्वास रखते थे उसके उलट चन्द्रलाल छोटे बच्चों को हमेशा बैडमिन्टन खेलने को प्रोत्साहन देते. इन बच्चों में उनका बेटा धीरेन्द्र भी था जिसे बचपन से ही खेल और फिटनेस के प्रति सजग बनाया गया.
फिर यूं होने लगा कि उत्तर प्रदेश की जहाँ भी कोई सरकारी खेल प्रतियोगिता आयोजित होती, चन्द्रलाल बैडमिन्टन टीम के लिए चुने जाने लगे. जहाँ जाते कोई न कोई मैडल जरूर हासिल करते. राष्ट्रीय खेलों में भागीदारी के लिए उनका चयन राज्य की टीम में उन्नीस बार हुआ.
योजना विभाग में थे सो काम-काज के सिलसिले में नियमित राजधानी लखनऊ जाना होता था. आधिकारिक फाइलों के अलावा उनके बैग में एक चिठ्ठी ज़रूर होती जिसे वे किसी न किसी मंत्री, अफसर या विभाग में छोड़ आते थे कि उनके शहर अल्मोड़ा में खिलाड़ियों के लिए अच्छी सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएं.
जब वे घर बना सकने की स्थिति में आये तो अल्मोड़ा के तिलकपुर मोहल्ले में उन्होंने अपने आँगन में सबसे पहले बैडमिन्टन का कोर्ट बनाया. उन्हीं की जिद-भरी हौसलाअफजाई रही होगी कि बेटे धीरेन्द्र का चयन पटियाला के खेल संस्थान में हुआ. धीरेन्द्र की शादी-बच्चे होने के बाद उन्होंने घर के कोर्ट में ही अपने दोनों पोतों को बैडमिन्टन के शुरुआती पाठ पढ़ाए. उनके प्रयासों से सरकार ने अल्मोड़ा में एक बढ़िया कोर्ट भी तब तक बनवा दिया था. आज इस शहर में स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ़ इण्डिया का एक्स्टेन्शन सेंटर बन चुका है है और यह पहाड़ी शहर दुनिया के खेल-मानचित्र में अपनी जगह बना रहा है.
चन्द्रलाल सेन जीवन भर खेल को समर्पित रहे और उनकी सक्रियता और उनके जुनून का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अपनी अंतिम यात्रा पर निकलने के तीन साल पहले 2010 में उन्यासी साल की आयु में उन्होंने एक राज्यस्तरीय प्रतियोगिता में रनर अप का खिताब हासिल किया
अल्मोड़ा में उनकी मेहनत, लगन, तत्परता, अनुशासनप्रियता और मितभाषिता के असंख्य किस्से सुनने को मिलते हैं. अच्छी-खासी उम्र हो चुकने के बावजूद जाड़ा, गर्मी, बर्फ, बरसात से बेपरवाह इस आदमी को हर सुबह स्टेडियम जाते देखा जा सकता था. उनके साथ शहर भर के चुनिन्दा बच्चे भी होते थे.
इन्हीं महान चन्द्रलाल के बेटे धीरेन्द्र उर्फ़ डी. के. सेन आज देश के बड़े बैडमिन्टन-ट्रेनर्स में से एक हैं.
डी. के. सेन ख़ुद चिराग सेन और लक्ष्य सेन नाम के दो इंटरनेशनल बैडमिन्टन-खिलाड़ियों के पिता हैं जिनमें से एक ने आजकल पेरिस में धमाल मचाया हुआ है.