त्रिलोचन भट्ट
ऐसे दौर में जबकि जन आंदोलनों को लेकर सरकारें क्रूर रवैया अपना रही हों और किसी भी जनआंदोलन को कुचलना और खत्म कर देना सरकारों ने अपना अघोषित एजेंडा बना लिया हो, ऐसे दौर में जबकि सरकारों के इस दमनात्मक रवैये के कारण जनआंदोलन या तो पूरी तरह सिमट गये हैं, या उनकी धार बहुत कुंद हो चुकी है तो देहरादून में पेड़ बचाने के दो आंदोलनों पर सरकार बैकफुट पर नजर आ रही है। सरकार का यह रवैया पर्यावरण प्रेमियों के लिए उत्साहवर्धक है या फिर इसमें सरकार कीे कोई गहरी चाल है, इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। हाल के वर्षों में ऐसा कोई उदाहरण सामने नहीं आया जब सरकार किसी जनआंदोलन के कारण इतनी आसानी से पीछे हट गई हो, जिस तरह देहरादून में हटी है। किसान आंदोलन का उदाहरण हमारे सामने है। कई महीनों पर सड़क पर बैठे रहने और कई किसानो की मौत हो जाने के बाद सरकार कुछ कदम पीछे हटी, लेकिन जो समझौता हुआ था, उसे आज तक पूरा नहीं किया गया।
पहले हम देहरादून में पेड़ बचाने के उन दो आंदोलनों की बात करें, जिनमें सरकार ने कदम पीछे खींचे हैं। कम से कम इस तरह के बयान तो सरकार की ओर से सामने आये ही हैं। पहला आंदोलन खलंगा के जंगलों को बचाने का था। यहां हजारों की संख्या में साल के पेड़ काटकर सरकार वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाने की योजना पर काम कर रही थी। देहरादून में पेड़ काटने का विरोध करने वाले लोगों को पता चला तो उन्होंने इस जंगल को बचाने के लिए आंदोलन खड़ा कर दिया। देहरादून की कई संस्थाएं, पर्यावरण प्रेमी और बड़ी संख्या में युवा इस आंदोलन से जुड़ गए। हर रविवार को बड़ी संख्या में लोग खलंगा पहुंचने लगे। इसी बीच सरकार की ओर से अखबारों में एक बयान छपा जिसमें खलंगा में पेड़ न काटे जाने की बात कही गई। साथ ही वन विभाग की ओर से उत्तराखंड जल संस्थान को एक नोटिस भी भेजा गया, जिसमें बिना वन विभाग की अनुमति के पेड़ों को काटने के लिए उनका छपान करने का कारण पूछा गया। इस तरह के नोटिस की सच्चाई अपने आप में संदेहास्पद प्रतीत होती है। क्योंकि बिना वन विभाग की अनुमति के जल संस्थान ने पेड़ काटने की तैयारी की होगी, यह बड़ी अजीब बात है।
दूसरा उदाहरण न्यू कैंट रोड पर 244 पेड़ काटे जाने की योजना है, जिसके लिए 23 जून को देहरादून में पर्यावरण के मुद्दे पर अब तक का सबसे बड़ा मार्च आयोजित किया गया। इस मामले में सबसे बड़ी और आश्चर्यजनक बात यह रही है कि मार्च से पहले ही सरकार की ओर से इन पेड़ों को न काटने का जीओ जारी कर दिया गया। दरअसल न्यू कैंट रोड पर हाल ही में सेंट्रियो मॉल का निर्माण हुआ है। इसके बाद से इस वीवीआईपी रोड पर ट्रेफिक बढ़ गया। सरकार ने आनन-फानन में दिलाराम चौक से सेंट्रियो मॉल तक इस सड़क को चौड़ी करने की योजना बना डाली। यहां कि उन बड़े-बड़े पेड़ों पर निशान भी लगा दिये गये, जिन्हें काटा जाना था। सरकार के इस फैसले का देहरादून के लोगों ने सोशल मीडिया पर विरोध शुरू कर दिया। इसे मॉल के मालिक को लाभ पहुंचाने की योजना बताया जाने लगा। सोशल मीडिया पर ही 23 जून को विरोध मार्च करने का कार्यक्रम भी तय हो गया। इस कार्यक्रम की सूचना इतनी तेजी से सोशल मीडिया पर तैरने लगी कि सरकार के कान खड़े हो गये। आनन-फानन में एक तथाकथित जीओ जारी करके न्यू कैंट रोड के पेड़ न काटने का दावा कर दिया। लोगों ने इस पर अविश्वास जताया तो न्यू कैंट रोड पर बीजेपी के छुटभैये नेताओं की ओर से बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगा दिये जिनमें पेड़ न काटने का जीओ जारी करने के लिए मुख्यमंत्री का आभार जताया गया।
सरकार के इस दावे के बाद भी 23 जून को देहरादून में ऐतिहासिक मार्च हुआ। इस मार्च में सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद् डॉ. रवि चोपड़ा ने साफ तौर पर कहा कि ये जो होर्डिंग लगे हैं, इनमें सच्चाई नहीं है। ये सिर्फ हम लोगों को बरगलाने के लिए लगाये गये हैं। दरअसल ऐसा कहने के पीछे ठोस कारण हैं। देहरादून में पहले भी कई जगहों पर जंगलों को सफाया किया जा चुका है। दिल्ली एक्सप्रेस-वे बनाने के नाम पर आशारोड़ी में लोगों ने लंबे समय तक आंदोलन किया। लेकिन मौका मिलते ही सरकार ने वर्षों पुराने साल के पेड़ साफ कर दिये। ऐसा ही सहस्रधारा रोड पर भी हुआ। यहां तो बड़ी संख्या में युवा और अन्य लोग आंदोलन में उतरे। कई युवा पेड़ काटने के वक्त तक इन पेड़ों ने लिपटकर विरोध करते रहे, लेकिन पुलिस बल की मदद से उन्हें वहां से हटाकर पेड़ों पर आरियां चला दी गई।
अब एक महत्वपूर्ण सवाल यह कि देहरादून के लोग अचानक इतने पर्यावरण प्रेमी कैसे हो गये कि 23 जून के मार्च में हजारों लोग एकत्रित हो गये? आमतौर पर देहरादून में पर्यावरण के मुद्दे पर होने वाले आंदोलनों में कुछ दर्जन या कुछ सौ लोग ही जुट पाते हैं। आशारोड़ी के पेड़ बचाने का आंदोलन हो, सहस्रधारा रोड का आंदोलन या फिर एयरपोर्ट विस्तारीकरण के नाम पर थानों के जंगल काटने के विरोध का मामला, कभी भी इतनी बड़ी संख्या में लोग नहीं पहुंचे। दरअसल इस सवाल के पीछे इस साल देहरादून में पड़ी गर्मी के पीछे छिपा हुआ है। मई के महीने में इस साल देहरादून में अधिकतम तापमान को पुराना रिकॉर्ड टूट गया। 31 मई को अधिकतम तापमान 43.2 डिग्री था, जो इससे पहले कभी नहीं पहुंचा था।
जून के महीने में हालांकि पुराना रिकॉर्ड नहीं टूटा। यह रिकॉर्ड था 43.9 डिग्री सेल्सियस जो 1902 में बना था। लेकिन इस साल जून का महीना सबसे ज्यादा दिनों तक तपने वाला साबित हुआ। पहली से 21 जून तक देहरादून लगातार तपता रहा। इस दौरान सबसे कम तापमान 37.4 डिग्री सेल्सियस 6 जून का दर्ज किया गया। 10 जून से 19 जून तक अधिकतम तापमान लगातार 40 डिग्री से ज्यादा बना रहा। 14 जून को 43.0 डिग्री सेल्सियस रिकॉर्ड किया गया। इस भीषण गर्मी के बाद देहरादून के लोगों की समझ में यह बात अच्छी तरह आ गई है कि जब इस साल जून के महीने जैसी गर्मी पड़ेगी तो एयर कंडीशनर और कूलर बहुत ज्यादा काम नहीं आएंगे। ऐसे में पेड़ ही हमें बचा सकते हैं।
फिलहाल पर्यावरण के प्रति यह जागरूकता उम्मीद बंधाती है। लेकिन, इस बात का जरूर ध्यान रखा जाना चाहिए कि सरकारें कभी भी अपने आदेशों को भूलकर पेड़ों पर आरियां चला सकती हैं, क्योंकि अपनी बात से मुकर जाना हालिया सरकारों की आदत रही है। इसके अलावा इस बात पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है कि इस तरह के आंदोलन राज्य के हर हिस्से में होने चाहिए। यदि आज ऐसा नहीं किया गया तो इसमें संदेह नहीं कि सरकारें हमें विकास का झुनझुना थमाकर धन्नासेठों को लाभ पहुंचाने के लिए उत्तराखंड को पूरी तरह तबाह कर देंगी।