अशोक पांडे
कुमाऊँ में एक जगह है जागेश्वर. अल्मोड़ा से कोई चालीस किलोमाटर दूर. इस जगह तक पहुँचने के लिए आपको आरतोला नाम की एक छोटी सी बसासत से मुख्य मार्ग छोड़कर एक छोटी सड़क पकड़नी होती है जिस में प्रवेश करते ही एक दुर्लभ घनी हरियाली आपको अपने आगोश में भर लेती है. दुर्लभ इसलिए कि यह हरियाली देवदार के सैकड़ों बरस पुराने पेड़ों से बनी है.
इन शानदार पेड़ों के बीच से गुज़रती हुई पांच-सात किलोमाटर लम्बी घुमावदार सड़क आपको अन्दर तक हरा कर देती है. आदमी होने का ज़रा भी सलीका बचा होगा तो आप खुद उस हरे का हिस्सा बन जाएंगे. भीतर से केवल खूबसूरत भावनाएं उमड़ेंगी. आप हैरत, खुशी और शांति से भर जाएंगे. यकीन कीजिए यह रास्ता ऐसा ही है. इसीलिये मुझे इसका एक-एक मोड़ रटा हुआ है. बहुत सारे पेड़ों को पहचानता भी हूँ.
जागेश्वर पहुँचते ही पहला अहसास यह होता है कि ध्यान या योग करने के अलावा शिव जैसे बीहड़ देवता का मंदिर बनाने के लिए इससे बेहतर जगह ढूँढे से नहीं मिलेगी.
पुराणों में इस जगह और इस इलाके के बारे में खूब विस्तार से लिखा गया है.
मानसखंड के उनसठवें अध्याय की शुरुआत में ऋषि वेदव्यास इस जंगल के बारे में बताते हैं कि यहाँ आकर ही शिव ने अपने योगी रूप को प्राप्त किया. यह अद्वितीय जंगल सिद्ध पुरुषों, विद्वानों, ऋषियों और देवताओं को तो प्रिय था ही, ब्रह्मा-विष्णु-महेश की देवत्रयी ने उसे अपना घर भी बना रखा था. यही वजह रही होगी कि यहाँ उगने वाले शानदार वृक्षों को देवदारु कहा गया. देवदारु यानी देवताओं का वृक्ष. देवदारु के इसी सघन प्रांतर के बीच अपना रास्ता बनाती जटागंगा नाम की एक छोटी सी धारा बहती है. योगीश्वर शिव की तपस्थली होने के कारण इसे जागेश्वर नाम मिला.
ऐसी दिव्य जगह पर हज़ार-पंद्रह सौ बरस पहले कोई सवा सौ मंदिरों को एक छोटे से परिसर में बनाया गया. प्रमाण हैं कि स्थानीय पत्थरों की मदद से इन मंदिरों को बनाने के लिए तत्कालीन राजाओं ने उड़ीसा और गुजरात के संगतराश बुलवाए थे.
इस परिसर और इसके आसपास शिव के बहुत सारे अलग-अलग रूपों को समर्पित कई मंदिर हैं. किसी में शिव नृत्य कर रहे हैं, किसी में वीणा बजा रहे हैं. किसी में उनकी तरुण छवि की उपासना होती है किसी में वे वृद्ध रूप में विराजमान हैं. उनका एक मंदिर तो ऐसा भी है जहां पूजा करने से किसी भी तरह के उधार से मुक्ति मिल जाती है.
शुरुआती बचपन अल्मोड़ा में बीता. तभी से जागेश्वर जाता रहा हूँ. मंदिर का शिल्प बहुत आकर्षित करता है. उसमें हर बार कुछ नया देखने को मिल जाता है. लेकिन वहां जाने का सबसे बड़ा आकर्षण अब भी देवदार के आलीशान पेड़ों से घिरी वही घुमावदार सड़क है. उस से गुज़रने का कोई भी मौक़ा मैं नहीं छोड़ता.
देवदार के इन पुरातन पेड़ों तले टहलता आदमी आज भी एक बेहद पवित्र, बेहद आदिम इमेज की तरह दिखाई देता है. कभी मुख्य जागेश्वर से डंडेश्वर की तरफ नदी-नदी चलते हुए आएं. इन ऊंचे पेड़ों के पास एक ऐसा चरित्र है जो इंसान को उसकी क्षुद्रता और प्रकृति के वैराट्य का अहसास कराता है. ये पेड़ अपने आसपास की धरती को भी अपने जैसा उदात्त बनाते हैं. देवदार की सूखी भूरी सुइयों से ढकी उस ज़मीन पर पैर रखने जैसी मामूली क्रिया भी खुद को पहचानने की शुरुआत की सूरत ले सकती है.
बशर्ते आपके पास आदमी बने रहने का सलीका बचा हो. और तमीज भी. यह और बात कि ये दोनों चीज़ें हमारे आसपास लगातार कम और अर्थहीन होती जा रही हैं.
हाल ही में हुए एक महापुरुष के जागेश्वर दौरे के बाद नीति-निर्माताओं के मन में आया है कि हज़ार बरसों से आदमी को जागेश्वर पहुंचा रहा वह रास्ता बहुत संकरा है. नए ज़माने की तेज़-रफ़्तार गाड़ियां आगे-पीछे करने में दिक्कत होती है. समय भी बहुत लगता है. सड़क को चौड़ा करना होगा ताकि जो रास्ता पंद्रह मिनट लेता था अब दस मिनट में पार हो जाए. सारी दुनिया जागेश्वर पहुँच जाए. सबको मोक्ष मिले.
इक्कीसवीं सदी के भारत का सबसे बड़ा सपना यह है कि एक-एक सड़क को इतना चौड़ा बना दिया जाय कि उस पर टैंक चलाये जा सकें. सबको रफ़्तार चाहिए. टाइम किसी के पास नहीं है. जागेश्वर वाली सड़क पर मौजूद देवदार के वे एक हज़ार से ज़्यादा पेड़ क्या करें जिन पर चूने से निशान लगा दिए हैं ताकि जब आरियाँ चलाई जाएं तो उन्हें पहचानने में दिक्कत न हो. इन सब को काटे जाने की तैयारी है.
सही खाद-पानी-सूरज मिले तो देवदार का एक पेड़ साल में आठ से दस इंच बढ़ पाता है. उसे सौ-पचास फीट का बनने में कितने साल लगते होंगे, आप हिसाब लगा लीजिये.
वैसे पेड़ों का करना भी क्या है! किसी काम तो आते नहीं. हाँ, पहले के लोग उनकी लकड़ी पर खाना बनाते थे, उनकी छांह में यात्री आराम करते थे. अब तो गैस है. चलने को गाड़ी है. हर घर में एसी लगा है. दुनिया में डंका बज रहा है.