राजीव लोचन साह
एक साल जा रहा है और एक नया साल चला आ रहा है। यह शाश्वत है। सनातन। हर जा रहे साल में कुछ अच्छा घटा हुआ होता है तो कुछ बुरा। जो बुरा घटित हुआ होता है, उससे कुछ सीख कर भविष्य में बेहतर कर पाने की सम्भावना अब कम दिखाई देती है। अच्छा भी घटा तो बहुत आशान्वित नहीं कर पाता। वक्त ही ऐसा है।
मगर यह सापेक्ष होता है। एक बीस साल के तरुण, जिसकी मसें अभी भीग रही हों, के बारे में आप ऐसा नहीं कह सकते। उसे अच्छा ही अच्छा, सर्वत्र उम्मीद ही उम्मीद दिखाई देगी। मगर एक उम्र के बाद, जब हर नये आये हुए वक्त को बीते हुए से गया-बीता देखने की आदत पड़ गई हो, ऐसा ही लगता है।
2022 साल की शुरूआत ही वैष्णोदेवी मन्दिर में भगदड़ से हुई, जिसमें 12 श्रद्धालुओं ने प्राण गँवाये। कोविड इस साल इससे पहले साल की तरह भयावह नहीं रहा, मगर साल बीतते न बीतते चीन और अन्य देशों में आ रहे उभार को देख कर इसके फिर से खतरनाक होने की भविष्यवाणियाँ की जाने लगी हैं। भारत कोकिला लता मंगेशकर के अतिरिक्त कत्थक सम्राट बिरजू महाराज, उद्योगपति राहुल बजाज, राजनीतिक हस्ती मुलायम सिंह यादव जैसे अनेक महत्वपूर्ण लोग इस साल दुनिया को अलविदा कह गये। जापान के राष्ट्रपति शिन जो आबे की हत्या हो गई। फरवरी के महीने में विश्व की सबसे बड़ी दो सैन्य ताकतों में से एक रूस ने पड़ौसी देश उक्रेन पर हमला कर दिया। शुरू-शुरू में इस युद्ध से आतंक फैला कि कहीं यह क्षेत्रीय युद्ध विश्व युद्ध में तब्दील न हो जाये और आणविक हथियारों के प्रयोग से कहीं यह पृथ्वी गृह के नष्ट होने का कारण न बन जाये। मगर दस महीने होने को जा रहे हैं और गनीमत है कि यह दो देशों के आपसी युद्ध तक ही सीमित रहा और उसी क्षेत्र में हो रहे विनाश और वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं पर इससे पड़ रहे अनिवार्य प्रभाव से आगे नहीं गया। वर्ष के अन्तिम महीनों में इंडोनेशिया में भूकम्प से व्यापक विनाश होने की खबरें मिलीं तो गुजरात के मोरबी में एक खतरनाक पुल हादसा होने की। साल खत्म होते न होते बिहार में जहरीली शराब पीने से 75 व्यक्ति मारे गये। इस सन्दर्भ में बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार का एक वक्तव्य बहुत चर्चित हुआ, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘‘पियोगे तो मरोगे।’’
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इस बार बड़े पैमाने पर चुनाव हुए। फरवरी-मार्च में पाँच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए तो नवम्बर-दिसम्बर में हिमाचल प्रदेश और गुजरात की विधानसभाओं और राजधानी दिल्ली की म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के लिये। इन चुनावों में हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस और पंजाब व दिल्ली में आम आदमी पार्टी को छोड़ कर बाकी सर्वत्र भारतीय जनता पार्टी ने विजयश्री प्राप्त की। गुजरात में तो जितनी अधिक सीटों पर भाजपा जीती है, वह एक तरह का चमत्कार है। हालाँकि इतने साल की ‘इन्कमबेंसी’ के बाद इतनी भारी जीत मिलने पर अनेक सन्देह उठने भी स्वाभाविक ही हैं।
दक्षिणपंथी ताकतों का यह उभार अकेले भारत में ही नहीं आया है। तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर अपनी जकड़ बहुत मजबूत कर ली है और अब वहाँ महिलाओं को विश्वविद्यालयों से बाहर रखने का फरमान भी जारी हो गया है। इटली में चरम दक्षिणपंथी ज्योर्जिया मेलोनी ने चुनाव के बाद सत्ता सम्हाल ली है। उनके मंत्रिमंडल में एक ऐसे शख्स के शामिल किये जाने की बात आ रही है, जो पूरी तरह हिटलर की नाजी विचारधारा को मानने वाले हैं। हमारे पड़ौसी पाकिस्तान में इमरान खान को अपदस्थ कर शाहबाज़ शरीफ सत्तानशीं हुए हैं। मगर वहाँ विचारधारात्मक बदलाव का कोई सवाल नहीं है। अलबत्ता ब्राजील की सत्ता में लूला डि सिल्वा की वापसी ने वामपंथियों की उम्मीदें जिन्दा रखी हैं। लूला भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल रह कर और मुकदमे में बरी हो कर सत्ता में वापस आये हैं। राजशाही के जमाने में दुनिया का एकमात्र ‘हिन्दू राष्ट्र’ रहे पड़ौसी देश नेपाल में भी एक बार फिर से पुष्प नारायण दहल ‘प्रचंड’ के नेतृत्व में कम्युनिस्ट सरकार सत्ता में आने वाली है। ब्रिटेन में दो-तीन महीने चली उथल-पुथल के बाद भारतीय मूल के ऋषि सुनक प्रधानमंत्री बने, जिसके बाद भारत के एक बड़े वर्ग द्वारा खुशियाँ मनायी गयीं। हालाँकि सुनक के प्रधानमंत्री बनने के बावजूद उनकी सरकार की विदेश नीति में कोई बड़ा बदलाव आयेगा, ऐसा नहीं लगता।
चुनावी राजनीति के इतर प्रतिरोध के स्वर भी प्रबल रहे। जिन्होंने इस ग्रीष्म में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के विरुद्ध श्रीलंका की जनता के सड़कों पर उतरने के दृश्य देखे होंगे वे उन्हें आसानी से नहीं भुला पायेंगे। हजारों-हजार लोग राष्ट्रपति भवन में घुस गये और सेना उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकी। अन्ततः राजपक्षे को ही चोरों की तरह रातोंरात देश छोड़ कर भाग जाना पड़ा। ईरान में सितम्बर के महीने से जनता सड़कों पर है और वहाँ की इस्लामिक सरकार के साथ लड़ रही है। हिजाब की बाध्यता के खिलाफ महिलाओं के द्वारा शुरू किये गये आन्दोलन ने, जिसमें एक 22 वर्षीय कुर्द महिला माशा अमीनी की हिरासत में मौत के बाद पूरे देश को अपनी गिरफ्त में ले लिया। तब से अब तक वहाँ लगातार विरोध जारी है। कट्टरपंथी सरकार द्वारा किये गये बर्बर दमन, जिसमें अब तक 400 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और कई विद्रोहियों को सार्वजनिक रूप से फाँसी पर चढ़ाया गया है, जनता का आक्रोश थमने का नाम नहीं ले रहा है। इस आक्रोश की सबसे प्रभावशाली अभिव्यक्ति कतर में फीफा विश्व कप फुटबॉल के दौरान हुई, जहाँ पूरी ईरानी टीम ने इस्लामी सरकार के बनाये गये राष्ट्रगीत को गाने से इन्कार कर दिया, बावजूद इस सम्भावना के कि इस विद्रोह के लिये उन्हें देश लौटने पर जेल भी हो सकती है। यहाँ यह जानना भी रोचक है कि जिस हिजाब को लेकर ईरान दहक रहा है, उसी हिजाब को अपने पढ़ने की आजादी से जोड़ कर दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रदेश की मुस्लिम युवतियाँ भी संघर्षरत हैं।
चीन में कोविड को लेकर बनी जीरो टोलरेंस पॉलिसी के विरोध में जबर्दस्त प्रदर्शन हुए। लॉकडाउन के बीच उरूम्की शहर में एक अपार्टमेंट में आग लगने से 10 लोगों की मृत्यु के बाद तानाशाही के खिलाफ पहली बार इस तरह का विद्रोह हुआ। बीजिंग और शंघाई जैसे बड़े शहरों में हजारों की सख्या में लोग सड़कों पर निकल आये। राष्ट्रपति शी जिनपिंग के इस्तीफे और आजादी के नारे गूँजने लगे। अक्टूबर के महीने में फ्रांस में बढ़ती महंगाई और खास तौर से गैसोलीन की किल्लत को लेकर जबर्दस्त प्रदर्शन देखने को मिले।
प्रतिरोध के इस क्रम में कांग्रेस द्वारा राहुल गांधी के नेतृत्व में की जा रही भारत जोड़ो यात्रा को भी जोड़ दिया जाये तो कुछ गलत नहीं होगा। कन्याकुमारी से 150 दिन पैदल चलने के बाद साढ़े तीन हजार किमी. का फासला तय कर श्रीनगर पहुँचने वाली यात्रा अब तक अपना दो तिहाई लक्ष्य पूरा कर चुकी है। अभी यह राजधानी दिल्ली में है। यात्रा के मुद्दे बढ़ती गरीबी, बेरोजगारी और विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों और जातियों के बीच बढ़ती हुई नफरत हैं। देश की आजादी के बाद यह इस तरह की सबसे लम्बी यात्रा है। मुख्यधारा के मीडिया के द्वारा पूरी तरह अनदेखी किये जाने के बावजूद यह यात्रा जनता का ध्यान खींच रही है और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त भी भारी संख्या में सामान्य जन इसमें भाग ले रहे हैं।
कला के क्षेत्र में जायें तो ‘कश्मीर फाइल्स’ नामक एक हिन्दी फिल्म ने इस साल व्यावसायिक सफलता के झण्डे गाड़े। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने पूरे लाव-लश्कर के साथ इस फिल्म को देखा और इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। अनेक भाजपा शासित प्रदेशों ने इसे मनोरंजन कर से मुक्त कर जन साधारण के लिये सुगम कर दिया। बाद में जब यह गोआ फिल्म फेस्टिवल में लायी गई तो जूरी के अध्यक्ष नदाव लापिड और जूरी के सभी विदेशी सदस्यों ने एकमत से इसे एक प्रचारात्मक फिल्म बताया और इसे फिल्मों के प्रतियोगितात्मक वर्ग में शामिल किये जाने की कटु आलोचना की। साल के अन्त में पत्रकारिता के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण घटना घटी। टीवी चैनल एन.डी.टी.वी. में कार्यरत, जनता के एक वर्ग के चहेते पत्रकार मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त रवीश कुमार, जो अपनी तथ्यपरक पत्रकारिता के लिये विख्यात हैं और सरकार के सामने लगातार सवाल करते रहते हैं, को निष्क्रिय करने के लिये उद्योगपति गौतम अडानी ने पूरा टीवी चैनल ही खरीद लिया। रवीश कुमार को इस्तीफा देना पड़ा। प्रसंगवश, गौतम अडानी इस वर्ष दुनिया के दूसरे नम्बर के अमीर भी बन गये।
जिन लोगों को खेलों में जरा भी रुचि है, उन्हें इस वर्ष फीफा विश्व कप फुटबॉल के रूप में एक शानदार तोहफा मिला। विशेषकर अर्जेंटीना और फ्रांस के बीच खेला गया फाइनल तो रोमांचकारी और अद्भुत था। इस टूर्नामेंट के बाद अर्जेंटीना के लियोनेल मैसी विश्व के सर्वकालिक महान फुटबॉल खिलाड़ियों में शामिल किये जाने लगे हैं। लेकिन यह बात कम लोगों को पता है कि विश्व कप फुटबॉल की भव्यता के पीछे छः हजार भारतीयों का बलिदान भी है। इस टूर्नामेंट में स्टेडियम आदि बनाने के लिये कतर ने सत्तर हजार से अधिक भारतीय मजदूरों को बुलाया था, जिनमें तकरीबन 6,000 ने अपने प्राण गँवा दिये।
उत्तराखंड में 2022 का साल भीषण ठण्ड और विधानसभा चुनाव के साथ शुरू हुआ। चुनाव के बाद भाजपा की जीत के साथ यहाँ एक बार फिर से डबल इंजन की सरकार बनी। मगर यह पूरा साल प्रदेश में दुर्घटनाओं, नफरत, कुशासन और भ्रष्टाचार के लिये जाना जायेगा। हरिद्वार में हुई धर्म संसद की नफरती बातों से पूरा देश गूँजा और मामला सर्वोच्च न्यायालय तक भी पहुँचा। इसके बावजूद सरकार नहीं चेती और अल्पसंख्यकों पर हमले होते रहे। हेलंग में घसियारी मन्दोदरी देवी को हवालात में बैठाने, दलित युवक जगदीश द्वारा सवर्ण लड़की गीता से विवाह करने पर उसकी हत्या, ऋषिकेश में अंकिता नामक युवती द्वारा एक वी.आई.पी. को ‘स्पेशल सर्विस’ न दिये जाने पर उसकी हत्या, चम्पावत में स्कूल की छत गिर जाने से बच्चों की मृत्यु, लोकसेवा आयोग की प्रतियोगितात्मक परीक्षाओं में घोटाले, विधानसभा में अवैध नियुक्तियों आदि के लिये ही यह साल विशेष रूप चर्चित रहा। लगातार होती सड़क दुर्घटनाओं, बाघ के हमलों से मनुष्यों के मारे जाने और भू धँसाव के कारण जोशीमठ शहर के आपदा की दहलीज तक पहुँच जाने की खबरों ने भी ध्यान खींचा। इन सब मामलों में सरकार सन्निपात की अवस्था में पड़ी दिखाई दी थी और मुख्यमंत्री काँवड़ियों के पाँव धोने अथवा भागवत कथाओं में शिरकत करने में व्यस्त थे। चुनाव से पूर्व जो सरकार विशेष भू कानून की बात करती थी तो चुनाव के बाद वह भू कानून की जरूरत को भूल कॉमन सिविल कोड और मदरसों के लिये कानून बनाने की बात करने लगी।
काल के चक्र में घिरे अकिंचन मनुष्य के द्वारा इस तरह की कार्रवाहियाँ की जाती रहती हैं। बहुत कुछ प्रकृति कर डालती है। समय के इतने बड़े प्रवाह में एक कैलेण्डर वर्ष की हैसियत ही क्या ? उतनी ही जितनी इस ब्रह्मांड में हमारे पृथ्वी ग्रह की। मगर एक रवायत है। समय के एक बिन्दु पर ठिठक कर हम बीते को टटोलते हैं और आगे के लिये उम्मीदें जगाते हैं। तो दिनेश उपाध्याय की इन पंक्तियों के साथ हम आपको वर्ष 2023 की शुभकामनायें देते हैं : जन संघर्षों की जीत हो, ना हो खबरों का व्यापार।
हार हो अन्याय की, मिले न्याय को आधार।
फोटो के बारे में : 1980 से पूर्व ‘नैनीताल समाचार’ द्वारा अपने पाठकों को भेजे जाने वाले इस ग्रीटिंग कार्ड के माध्यम से हम अपने सभी पाठकों, सहयोगियों और विज्ञापनदाताओं को नव वर्ष 2023 की शुभकामनायें प्रेषित करते हैं।
(विनीता यशस्वी के इनपुट के आधार पर)