प्रदीप पांडे
इस वर्ष प्रतिष्ठित कमलादेवी चट्टोपाध्याय पुरस्कार इतिहासविद, घुम्मकड़, आंदोलनकारी और हिमालयन एनसाइक्लोपीडिया के नाम से प्रसिद्ध प्रो.शेखर पाठक को दिया गया है। यह पुरस्कार न्यू इंडिया फाउंडेशन (NIF) द्वारा गैर कल्पित (नॉन फिक्शन) रचना जो किसी भी राष्ट्रीयता के व्यक्ति द्वारा लिखी हो और समकालीन /आधुनिक भारत से संबद्ध हो को दिया जाता है . इस पुरस्कार को पाने वाले वे 5वें व्यक्ति है उन्हें यह पुरस्कार उनकी पुस्तक “द चिपको मूवमेंट : ए पीपल्स हिस्ट्री ” के लिए मिला है, जो उनकी प्रसिद्ध पुस्तक “हरी भरी उम्मीद” का संक्षिप्त अंग्रेज़ी अनुवाद है। इसका अंग्रेजी तर्जुमा मनीषा चौधरी ने किया। ये पहली बार है कि यह पुरस्कार एक अनूदित कृति को मिला है.
इस पुरस्कार के लिए विगत वर्ष में प्रकाशित पुस्तकों से चयन होता है यानि यह पुरस्कार 2021 में प्रकाशित पुस्तकों के लिए था, इस वर्ष इस पुरस्कार के लिए 200 पुस्तकों में से चयन किया गया। पुरस्कार में पंद्रह लाख रुपिए, सम्मान व प्रतीक चिन्ह दिया जाता है।
इस पुरस्कार की जूरी ने अपने निर्णय में कहा कि “ये चिपको आंदोलन का प्रामाणिक इतिहास एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखा गया है जिसने इसको जिया है” इस पुस्तक में चिपको का वृतांत आमजन विशेषकर महिलाओं के नजरिए से वर्णित किया गया है । यह पुस्तक बताती है कि चिपको मात्र एक विचारधारा (गांधी वाद) के प्रभाव में नहीं था बल्कि इसकी अनेक धाराएं थी अभी तक चिपको आंदोलन के इतिहास पर जो पुस्तकें लिखी गई उनमें केंद्र में एक दो व्यक्तियों (चंडी प्रसाद भट्ट / सुंदर लाल बहुगुणा) को रखा गया है लेकिन प्रो. पाठक ने आमजन को आधार माना बनाया है। अभी तक चिपको आंदोलन के विषय में जो भी प्रमुख रूप से चर्चा में रहा वह इस आंदोलन को सिर्फ हरियाली और पेड़ बचाने के आंदोलन के के रूप में सामने लाता है जिसके केंद्र में 2 नायकों को रखा जाता रहा मगर जैसा हम जानते है कि चिपको मूलतः पहाड़ के लोगों का अपने जंगलों पर अधिकार मांगने का आंदोलन था क्योंकि जंगलात के हकूक के बिना खेती और ग्रामीण अर्थव्यवस्था चलना संभव नहीं,जंगलों पर अधिकार के लिए अंग्रेजी शासन के दौर में भी आंदोलन होते रहे. 1973 में शुरू चिपको आंदोलन जिसके पीछे अनेक सामान्य व्यक्तियों की जबरदस्त भूमिका थी लेकिन मीडिया और लेखकों ने इसे अपने आईने से देखा और इसे व्यक्ति केन्द्रित पर्यावरण संरक्षण आंदोलन का रूप दे दिया, जो स्थापित भी हो गया ,लेकिन इस निरूपण ने वनों को जन से काटने की औपनिवेशिक नीति को ही पुख्ता किया और आमजन की भावनाओं और उनके प्रतिनिधियों को हाशिए में धकेल दिया. प्रो. शेखर पाठक की किताब इस उलट दिए इतिहास को सीधा करने का प्रयास है।