अभिषेक सिंह
सोशल मीडिया से साभार
गोस्वामी श्री तुलसीदास जी हिंदुओं के सबसे बड़े रामभक्त संत थे, जिन्होंने श्रीरामचरितमानस लिखकर भगवान श्रीराम के चरित्र को घर-घर पहुंचा दिया। तुलसीदास जी के सबसे अच्छे मित्रों में से एक थे अब्दुल रहीम खानखाना ।
रहीम मुसलमान थे और शहंशाह अकबर के सेनापति और कवि भी थे। तुलसीदास जी के पास एक स्त्री अपनी बेटी की शादी के लिए धन मांगने आयी तो तुलसीदास जी ने कहा कि, “मैं तो संत हूँ । मेरे पास धन कहाँ ?” उन्होंने एक पर्ची लिखी और रहीम जी के पास उसे मदद के लिए भेज दिया। पर्ची में लिखा था–
सुरतिय-नरतिय-नागतिय-अस चाहत सब कोई।
बदले में रहीम जी ने उस स्त्री को खूब सारा धन दिया और दोहा पूरा करके यूं भेजा ;
गोद लिए हुलसी फिरे तुलसी से सुत हो होय।।
मुग़लराज में तुलसीदास जी को अकबर ने कभी नही सताया । बल्कि उन्हें सताया काशी के कट्टर पंडितों ने, जिन्हें शिकायत थी कि उन्होंने रामचरितमानस अवधी भाषा में क्यों लिखी संस्कृति में क्यों नही लिखी (जिससे आम आदमी इसे पढ़ ही नहीं सके) । वास्तव में उनकी ईर्ष्या का कारण था कि तुलसीदास जी जैसे एक हिन्दू संत का महात्म्य तेज़ी से फैल रहा था । लेकिन इससे अकबर को या मुसलमानों को कोई परेशानी नही हुई। तुलसीदास जी और रहीम जी की मित्रता से आपने क्या सीखा?
क्या आपको लगता है कि हवा में तलवार लहरा कर और जबरन “जय श्री राम” बुलाकर तुम भगवान श्रीराम और हिन्दू धर्म का सम्मान कर रहे हो ? तुम मूर्ख लोग हो जो अपनी संस्कृति की जड़ें स्वयं काट रहे हो।तुम्हे न धर्म का पता है न संस्कृति का। तुलसीदास जी ने ही लिखा है ;
रामहि केवल प्रेम पियारा।
और तुम क्या कर रहे हो ? जिस चरित्र में इतना आकर्षण है कि जिससे मुसलमान कवि तक खिंचे चले आते थे उन्हें तुम क्या बना रहे हो ? अमीर खुसरो, रसखान, नजीर अकबराबादी , आलम सहित सैंकड़ों ऐसे मुसलमान कवि हैं जिन्होंने श्रीकृष्ण के प्रेम में डूबकर कविताएं, छंद और पद लिखें हैं ।उन्हें पैगम्बर तक माना है। क्या उन्होंने ऐसा तलवार के डर से किया था ? नही ये सब भगवान श्रीकृष्ण और श्री राम के चरित्र का आकर्षण था, जिसने मुसलमानों को भी उनका भक्त बना दिया।
सैय्यद इब्राहिम से रसखान बन जाते हैं और लिखते हैं कि;
“यदि मैं अगले जन्म में मनुष्य बनूँ तो यही रसखान बनूँ ।
अगर पत्थर बनूँ तो वही पत्थर बनूँ जिसे श्रीकृष्ण ने उंगली पर धारण किया था ।
अगर पशु बनूँ तो वही गाय जिसे श्री कृष्ण चराने जाते थे।”
एक मुसलमान राज-पाट की शान शौक़त को छोड़कर श्री कृष्ण भक्त बन जाता है।वो विरक्त भेष में ब्रज वास करता है अन्तिम सांस वृंदावन में लेता है । क्या उन्हें किसी का डर था जो ऐसा किया ? उस समय तो इस्लामी शासन ही था।
नजीर अकबराबादी ने जाने कितने पद श्रीकृष्ण पर लिखे हैं-
‘तू सबका ख़ुदा, सब तुझ पे फ़िदा, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
हे कृष्ण कन्हैया, नंद लला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी।
तालिब है तेरी रहमत का,
बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा।
तू बहरे करम है नंदलला,
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी।’
वो आगे लिखते हैं ;
‘ क्या क्या कहूँ मैं तुमसे कन्हैया का बालपन ।
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन’ ।।
संभवत: पहली बार अकबर के जमाने में (1584-89) वाल्मीकि रामायण का फारसी में पद्यानुवाद हुआ। शाहजहाँ के समय ‘रामायण फौजी’ के नाम से गद्यानुवाद हुआ। औरंगजेब के युग में चंद्रभान बेदिल ने फारसी में पद्यानुवाद किया। तर्जुमा-ए-रामायन एवं अन्य रामायनों की रचना वाल्मीकि रामायण के आधार पर की गई। मगर जहाँगीर के जमाने में मुल्ला मसीह ने ‘मसीही रामायन’ नामक एक मौलिक रामायण की रचना की, पाँच हजार छंदों वाली इस रामायण को सन् 1888 में मुंशी नवल किशोर प्रेस लखनऊ से प्रकाशित भी किया गया था।
गोस्वामी तुलसीदास जी के सखा अब्दुल रहीम खान-ए-खाना ने कहा है “रामचरित मानस हिन्दुओं के लिए ही नहीं मुसलमानों के लिए भी आदर्श है।”
‘ रामचरित मानस विमल, संतन जीवन प्राण,
हिन्दुअन को वेदसम जमनहिं प्रगट कुरान’
फरीद, रसखान, आलम रसलीन, हमीदुद्दीन नागौरी, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती आदि कई रचनाकारों ने राम की काव्य-पूजा की है। कवि खुसरो ने भी तुलसीदासजी से 250 वर्ष पूर्व अपनी मुकरियों में श्रीराम को नमन किया है।
सन् 1860 में प्रकाशित रामायण के उर्दू अनुवाद की लोकप्रियता का यह आलम रहा है कि आठ साल में उसके 16 संस्करण प्रकाशित करना पड़े।
वर्तमान में भी अनेक उर्दू रचनाकार राम के व्यक्तित्व की खुशबू से प्रभावित हो अपने काव्य के जरिए उसे चारों तरफ बिखेर रहे हैं। अब्दुल रशीद खाँ, नसीर बनारसी, मिर्जा हसन नासिर, दीन मोहम्मद्दीन इकबाल कादरी, पाकिस्तान के शायर जफर अली खाँ आदि प्रमुख रामभक्त रचनाकार हैं।
लखनऊ के मिर्जा हसन नासिर – उन्होंने श्री रामस्तुति में लिखा है –
कंज-वदनं दिव्यनयनं मेघवर्णं सुन्दरं।
दैत्य दमनं पाप-शमनं सिन्धु तरणं ईश्वरं।।
गीध मोक्षं शीलवन्तं देवरत्नं शंकरं।
कोशलेशम् शांतवेशं नासिरेशं सिय वरम्।।
ये सब भाव इन्हें तलवार से डरा कर नही पैदा हुआ था ।संस्कृति रक्षा का मुखौटा लगाकर कुछ लोग इस देश की संस्कृति की जड़े खोद रहे हैं और इनको गुमान है कि ये हिंदुत्व और राम का नाम कर रहे हैं।