प्रभात उप्रेती
पुरोला
तुम्हें मैं जानता हूं
तुम्हें
जिसे प्यार कहते हैं
वह किया है
हर दम हर पल याद किया है
तुम्हारे भोलेपन पर कशीदे गड़े हैं
और
तुम तो थे खेती में कलाकार!
उगाते थे टनों फसल
चावल जिसके पकने से
महकता था घर आंगन
और दूर से आने वाले यात्री की थकान
होती थी तृप्त
मस्ती में गाये जाते थे
वहां हर रात गीत संगीत नाच
वह सब
जो जिंदगी में होते हैं
तो जिंदगी तस्सुवर बन जाती है
तुम प्रसिद्ध थे अपने कृषि पंडितों से
अपनी खूबसूरत बाशिंदों से
जहां प्रेम अनुराग और विरह गीत
पनपते थे हर पल क्षण
और आज तुम प्रसिद्ध हो रहे हो
किसी दहशत की उम्र से!
ये कौन काश्तकार हो गये हैं!
जे उगा रहे हैं जहर की फसल
बो रहे हैं नफरत के बीज
गर कोई दुश्मन है तो दुश्मन की तरह लड़ो
ये क्या है जहर कमल नदी में डाल कर
चहलपहल वाली खाबुली बाजार में
सन्नाटे की दुकानें खोलो!
पुरोला! तुम्हारी नफरत
तुम्हें निगल जाएगी
मोण के मेेले में
मछलियां नहीं
जहर उगलेगी
मेेरे पुरोला!
कविता
यों ही नहीं आती
उसे समय लगता है
जब चोट उभरती है
सीने में
जिंदगी
धडकन के बजाय
दहशत से
धड़कती है
पुरोला!
सम्भल जाओ
नफरत ने तो धज्जियां उड़ा दीं
महान रूसी साहित्य की
मैं शोक गीत लिख रहा हूं
यह मेरे लिए तुम्हारे लिए
आदमियत के लिए ……
गंदा सवाल है
उस वादी को
विवादी न बनाओ।
मजहब
जो भी हो
बैर ही सिखाता है
गैर मजहबी बन
मजहबों से लड़ो
पुरोला