जितेंद्र भट्ट
अस्सी साल के एक कवि से ताकतवर सत्ता खौफ क्यों खा रही है? जब मैंने क्रांतिकारी कवि वरवर राव के बूढ़े और काफी हद तक कमजोर हो चुके चेहरे को सामने रखकर सोचना शुरू किया। तब एकाएक इतिहास के कुछ नाम जेहन में उतर गए।
सत्ता के दंभ की कई कहानियों से इतिहास पटा पड़ा है। पर जिन दो नामों पर दिमाग जाकर टिक गया, उनमें पहला नाम दार्शनिक सुकरात और दूसरा नाम खगोलविद् गैलीलियो का है। सुकरात और गैलीलियो की कहानी आंखों के सामने एक फिल्म की तरह दौड़ने लगी।
निरंकुश सत्ता, दार्शनिक को जहर पिलाती है!
399 ईसवी पूर्व दार्शनिक सुकरात पर एक मुकदमा चलाया गया था। एथेंस राजतंत्र ने सुकरात के खिलाफ जो चार्जशीट दाखिल की, उसमें देवी देवताओं के अपमान और नौजवानों को भड़काने का आरोप सबसे ऊपर था। ईश्वर और राष्ट्रवाद ने हमेशा दंभी और निरंकुश शासकों को ताकत दी है। खैर सुकरात पर मुकदमा चला। सत्ता की गुलाम ज्यूरी जानती थी; दार्शनिक सुकरात जेल में भी रहे, तो लोगों के दिमागों पर असर करेंगे। इसलिए सीधे मृत्युदंड न देकर बूढ़े सुकरात को जहर का प्याला पीने को कहा गया। जिससे खेल जल्दी खत्म हो जाए। चाहने वालों ने सुकरात के सामने एथेंस छोड़कर जाने के विकल्प बनाए थे। पर सुकरात ने जहर का प्याला चुना।
दंभी शासकों की आंखों में खटकते हैं वैज्ञानिक
इस घटना के दो हजार साल बाद एक खगोलविद् ने जब चर्च की मान्यताओं के खिलाफ जाकर एक सिद्धांत का प्रतिपादन किया, तो ये बात चर्च की सत्ता को सहन नहीं हुई। गैलीलियो ने सालों साल से चर्च द्वारा फैलाए गए झूठ को चुनौती दी। उन्होंने उस मिथक को तोड़ दिया, जो कहता था पृथ्वी ब्रह्मांड का केंद्र है। सूर्य सहित तमाम ग्रह और तारे, पृथ्वी के इर्द गिर्द चक्कर काट रहे हैं। चर्च की इस मान्यता को चुनौती देने वाले गैलीलियो को 1633 में 69 साल की उम्र में जेल जाना पड़ा। जेल में डाले जाने से पहले गैलीलियो के सामने माफी मांगकर मामले को रफादफा करने का विकल्प था। पर गैलीलियो ने जेल जाना मंजूर किया।
निरंकुश सत्ता का चरित्र कभी नहीं बदलता
सुकरात और गैलीलियो के बीच करीब दो हजार साल का फासला था। लेकिन इन दो हजार सालों ने सत्ता के चरित्र को नहीं बदला। गैलीलियो और कवि वरवर राव के बीच करीब साढ़े चार सौ साल का फासला है, पर इस बार भी सत्ता का चरित्र कहां बदला है?
न दार्शनिक और खगोलविद् की तरह कवि बदला है।
बीते दो साल के दौरान सरकार, पुलिस, जेल और अस्पताल ने 81 साल के बुजुर्ग बीमार कवि वरवर राव के साथ जिस तरह का व्यवहार किया है; वो सत्ता का असली चरित्र है।
वरवर राव की शारीरिक स्थिति बीते दो साल में लगातार खराब हुई है। परिवार के मुताबिक, वो कोरोनरी आर्टरी डिजीज, हाईपरटेंशन, एसिडिटी सहित कई बीमारियों से जूझ रहे हैं। दो साल के दौरान जेल में रहने से उनकी मानसिक और शारीरिक स्थिति भी कमजोर हुई है। इन दीर्घकालिक बीमारियों के अलावा वो कोरोना जैसी जानलेवा बीमारी से भी जूझ रहे हैं। इतना कुछ होने पर भी न उन्हें जमानत दी गई, न अस्पताल में अच्छा इलाज मिला।
एक बुजुर्ग कवि को सरकार जेल के सींखचों में बंद करके क्यों रखना चाहती है? वो भी तब, जब वो कवि गंभीर रुर से बीमार है।
बार बार वरवर राव की जमानत का पुलिस और एनआईए ने विरोध किया। आखिर क्यों? अस्पताल पहुंचने से पहले वरवर राव की तरफ से कोर्ट में 5 बार जमानत दिए जाने की अर्जी लगाई गई, लेकिन हर बार उनकी अर्जी खारिज कर दी गई।
अस्पताल पहुंचने के बाद वरवर राव की तरफ से स्वास्थ्य का हवाला देते फिर जमानत की मांग की गई थी। सत्ता का ढीठपन देखिए; इशारे पर काम करने वाली जांच एजेंसी एनआईए ने जमानत का विरोध करते हुए कहा, वरवर राव अपनी उम्र और कोरोना का फायदा उठाकर जमानत लेना चाहते हैं। एनआईए ने कोर्ट में एफिडेविट देकर कहा, वरवर राव की स्थिति स्टेबल है; उन्हें मल्टी स्पेशियलिटी हॉस्पिटल में इलाज की जरुरत नहीं है।
क्या वर्तमान सत्ता एक कवि को ‘जहर का प्याला’ देना चाहती है? 81 साल के कवि से सरकार को कितना खतरा हो सकता है? ये जानते हुए कि 81 साल की उम्र में कोरोना जैसी बीमारी को झेलना कितना मुश्किल है; सरकारी एजेंसी बीमार को मिल रहे अच्छे इलाज का विरोध करती है। क्या कहें, शर्मनाक है?
81 साल के बुजुर्ग वरवर राव पिछले दो साल से जेल में हैं। एक ऐसे अपराध के लिए, जिसका अभी तक ट्रायल भी शुरू नहीं हो सका है। ट्रायल क्यों शुरू नहीं हुआ? क्या इसे जानबूझकर लटकाया गया है? जिससे बिलावजह वरवर राव जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं को परेशान किया जा सके?
अंग्रेज भी शरमा जाते, ऐसा व्यवहार देखकर!
वरवर राव के साथ जेल में कैसा व्यवहार किया गया है, ये हाल में तब पता चला; जब 15 जुलाई को उनके परिवारवाले उन्हें देखने पहुंचे। वरवर राव ट्रांजिट वॉर्ड में अपनी ही पेशाब में बेसुध पड़े हुए थे। वहां उन्हें देखने वाला कोई नहीं था। परिवार ने वरवर राव की इस हालत के बारे में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को लिखा। जिसके बाद 16 जुलाई को बीमार वरवर राव को मुंबई के सेंट जॉर्ज हॉस्पिटल पहुंचाया गया। अस्पताल में ही पता चला कि वरवर राव कोरोना से पीड़ित हैं। जिसके बाद उन्हें मुंबई के नानावटी हॉस्पिटल भेजा गया।
पर सत्ता की असंवेदनशीलता देखिए, अस्पताल में इलाज करा रहे वरवर राव के स्वास्थ्य की जानकारी उनके परिवार को नहीं दी गई। जिसके बाद परिवार को एकबार फिर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से शिकायत करनी पड़ी। ये तब हुआ, जब 13 जुलाई को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने जेल प्रशासन को हिदायत दी थी कि वो वरवर राव के स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी परिवार को मुहैया कराए।
1973 से 2005 – 7 साल जेल में रहे कवि वरवर राव
एक कवि के साथ अपने देश में अपनी सरकारों द्वारा अमानवीय और क्रूर व्यवहार दुखी करने वाला है। सत्ता के विरुद्ध उठने वाली आवाजों के साथ यही होता रहा है। वरवर राव पहली बार जेल में नहीं हैं, अलग अलग सरकारों ने उन्हें अलग अलग वक्त में जेल के अंदर डाला।
पहली बार 1973 में मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट यानी मीसा के तहत उन्हें जेल भेजा गया था। तब आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने उन्हें छोड़ने का आदेश दिया। कोर्ट ने कहा कि किसी लेखक को इस तरह जेल नहीं भेजा जा सकता, जब तक कि उनकी लिखी बात किसी अपराध से सीधे न जुड़ती हो।
1973 से 2005 यानी 28 साल के दौरान वरवर राव पर 25 संगीन आरोप लगे, लेकिन कोर्ट ने वरवर राव को सभी आरोपों से बरी कर दिया।
एक कवि के साथ यातनाओं का ये दौर बहुत लंबा है। और ये सब इसलिए हुआ, क्योंकि ये कवि सत्ता की विचारधार से मेल नहीं खाता। सत्ता के विरुद्ध अक्सर डटकर खड़ा हो जाता है।
18 साल पहले कवि वरवर राव से मुलाकात
जब कवि वरवर राव के बारे में सोचना शुरू किया, तो 18 साल पुरानी उनकी एक छवि जेहन में उतर आई। एक पतला दुबला शख्स। बाल तब भी पके हुए थे, यानी सफेद थे। चेहरे पर मूंछ भी उसी तरह उसी अंदाज में सफेद ही थी। मैं कॉलेज का स्टूडेंट था, और नैनीताल समाचार के लिए रपटें लिखा करता था।
साल 2002 के मई महीने की 18 तारीख थी वो। वरवर राव देहरादून में साम्राज्यवादी विरोधी अधिवेशन में हिस्सा लेने के बाद अचानक नैनीताल पहुंचे थे। वो लोक संग्राम मंच के प्रशांत राही के साथ आए थे।
कवि वरवर राव के आने पर नैनीताल समाचार द्वारा सेवाय होटल में एक गोष्ठी रखी गई। इस गोष्ठी में मुझे वरवर राव को देखने सुनने का मौका मिला।
सब जानते हैं कि कवि वरवर राव नक्सलवादी आंदोलन के समर्थक रहे हैं, इस गोष्ठी में भी उन्होंने सशस्त्र संघर्ष की वकालत की। एक छात्र के तौर पर तब जेहन में सवाल गूंजे थे। एक कवि और सशस्त्र संघर्ष की वकालत, ये क्या बात है?
सशस्त्र संघर्ष क्यों? कवि ने ये भी समझाया था। वरवर राव ने कहा था, “जब तक ग्राम शासन का अधिकार प्रत्यक्ष रुप से जनता के हाथों में न आ जाये, तब तक इस प्रकार के संघर्ष चलते रहेंगे।“
यानी ये एक वर्ग संघर्ष है। सत्ता में बैठे लोगों से जनता का संघर्ष।
18 साल पहले की उस गोष्ठी में वरवर राव ने तत्कालीन आयात निर्यात नीति और निजीकरण की प्रक्रिया को देश के लिए खतरा बताया था। आज 18 साल बाद फिर वही सवाल पूरे देश के सामने खड़े हो गए हैं। ये वरवर राव की दृष्टि ही थी, जो बीस साल आगे देख रही थी।
18 साल पहले की उस छोटी सी गोष्ठी में वरवर राव ने जो भी कहा, वो आज भी सही लगता है। उन्होंने खेती किसानी को लेकर कहा था, “नई कृषि नीति बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए बनाई जा रही है। सरकार दावा करती है कि रिकॉर्ड अन्न उत्पादन हो रहा है, लेकिन राजस्थान के 26 जिलों में से 23 जिलों और आंध्र प्रदेश के 17 जिलों (तब आंध्र प्रदेश का बंटवारा नहीं हुआ था) में भीषण आकाल पड़ा है; और लोग अन्न को मोहताज हैं।“
कवि वरवर राव के शब्दों को गौर से पढिए, और सोचिए इन 18 साल में किसानों की हालत कितनी बदली? आज भी विदर्भ में किसान रोज आत्महत्या कर रहे हैं। आज भी मध्य प्रदेश में किसान अपनी फसल के सही दाम की मांग करता है, तो सीने पर गोली खाता है।
इसी गोष्ठी में कवि अशोक पांडे ने वरवर राव की तेलुगु कविता ‘जुबान वाला इंसान’ के हिंदी अनुवाद का पाठ किया।
गर्मी के आते ही कोयल
आम के पेड़ों में छुपे हुए
बसंत ऋतु के गाने गाती है।
हजारों पंख खोले हुए मोर
जंगल के अंधेरे में
सावन को पुकारता नाचता है।
एक कवि – जो सत्ता के आगे कभी नहीं झुका
ये बात सही है कि आज देश में नक्सलवाद का समर्थक होना अपराध है। पर कवि वरवर राव ने कभी ये बात नहीं छिपाई कि वो नक्सल आंदोलन के समर्थक हैं। वो सत्तर के दशक में आध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम में चल रहे नक्सली आंदोलन में सक्रिय रहे। 1970 में वरवर राव विपल्वी रचियता संघ (विरसम) के संस्थापक सदस्य रहे। जानेमाने लोकगायक गदर इस संस्था के सचिव थे। 1983 से 1999 तक वरवर राव अखिल भारतीय क्रांतिकारी संघ के महासचिव रहे। उन्होंने अपनी विचारधारा को कभी नहीं छिपाया, न उससे समझौता किया।
कवि वरवर राव ने हमेशा वैचारिक लड़ाई लड़ी है। चाहे जेल में रहे हों, या जेल से बाहर। उन्होंने मानवीयता के लिए सत्ता से टक्कर ली। अपने लिए नहीं। अपने लाभ के लिए वो नहीं लड़े, हमेशा समाज के सबसे निचले तबके के लिए लड़ते रहे।
आज इतिहास में रुचि रखने वाला कोई भी बताएगा कि सुकरात पर सत्ता के आरोप झूठ का पुलिंदा थे। गैलीलियो पर लगाए गए आरोप गलत थे। पर देवी देवताओं और राष्ट्र को ढाल बनाकर सत्ता इसी तरह के आरोप अपने आलोचकों पर लगाती रही है। यही कवि वरवर राव के साथ भी हो रहा है।
वरवर राव की एक तेलुगु कविता का हिंदी अनुवाद है, जिसमें वो कहते है।
सपना कभी अकेला नहीं आता
व्यथाओं का सो जाना होता है।
सपनों को आंत तोड़ कर
उखड़ कर गिरे सूर्य बिम्ब की तरह
जागना नहीं होता।
आनंद कभी अलग नहीं आता
पलकों की खाली जगहों में
वह कुछ भीगा सा वजन लिए
इधर उधर मचलता रहता है।
संविधान के बहाने कुछ सवाल हैं…
कुछ सवाल हैं। क्या आजाद हिंदुस्तान सत्ता के इशारे पर चलेगा? या संविधान में लिखे आर्टिकल से? संविधान का आर्टिकल 21 कहता है, “किसी शख्स को उसके जीवन और निजी आजादी से वंचित नहीं किया जा सकता, जब तक कि कानून में वर्णित प्रक्रिया का पालन न किया जाए।“
81 साल के कवि वरवर राव को पिछले दो साल से लगातार जीवन और निजी आजादी से वंचित किया गया है, वो भी बिना आरोप साबित हुए।
अंत में केरल के 92 साल के लेखक टीजेएस जॉर्ज की बात से खत्म करता हूं।
हाल ही में टीजेएस जॉर्ज ने वरवर राव पर एक लेख लिखा है। उनके लेख की दो पंक्तियां दिलो दिमाग पर छप गई हैं। टीजेएस जॉर्ज लिखते हैं, “न ही ये कॉमन सेंस है, न पॉलिटिकल सेंस कि एक कवि को बिना ट्रायल और जमानत दो साल जेल में रखा जाए।“
पर कॉमन सेंस, पॉलिटिकल सेंस या किसी और सेंस यानी समझ के मायने तब होते हैं, जब सत्ता का दृष्टिकोण मानवीय हो। दंभ और निरंकुशता से भरी सत्ता के लिए इन शब्दों के कुछ मायने नहीं हैं।
जितेंद्र भट्ट