रवि चोपड़ा
अनुवाद – विनीता यशस्वी
दुनिया की कुल आबादी में से 6.5 अरब लोगों, या कहा जाये कि कुल आबादी के 81 प्रतिशत लोगों ने जुलाई 2023 में मानव इतिहास की अब तक की सबसे ज्यादा गर्मी को महसूस किया। इस बार जुलाई में जलवायु परिवर्तन का असर औसत दैनिक तापमान पर स्पष्ट नजर आया। यह निष्कर्ष प्रिंसटन स्थित गैर-लाभकारी संस्था ‘क्लाइमेट सेंट्रल’ द्वारा जारी किया गया।
इसी बीच हमने उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में अतिवृष्टि की घटनाओं को भी देखा। 7 से 10 जुलाई के बीच हिमाचल प्रदेश में 223 मिमी बारिश हुई, जो सामान्य 41.6 मिमी से 436 प्रतिशत अधिक है। 13-14 अगस्त के बीच, देहरादून जिले में 24 घंटों में 254 मिमी बारिश हुई, जिसने 22 अगस्त, 1951 के 72 साल पुराने रिकॉर्ड को भी तोड़ दिया। बारिश के प्रकोप ने हिमाचल और उत्तराखंड में अब तक लगभग 381 लोगों की जान ली है। इसके अलावा पशुधन और पालतू जानवरों आदि का नुकसान तो हुआ ही।
जलवायु परिवर्तन की यह वास्तविकता हम सिर्फ मीडिया रिपोर्ट्स से ही नहीं जान रहे हैं, बल्कि हम स्वयं भी इन भीषण घटनाओं को अनुभव कर रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन पर आम सहमति का बनना
पृथ्वी की जलवायु जमे हुए हिमयुगों और गर्म ग्रीन हाउस अवधि के बीच घूमती रही है। उस दौरान पृथ्वी पर कोई ग्लेशियर नहीं होगा। वर्तमान गर्म अवधि, जिसे होलोसीन युग के नाम से जाना जाता है, लगभग 11,700 वर्ष पुरानी है। यह अवधि अंतिम प्रमुख हिमयुग के बाद आती है। मोटे तौर पर यह दौर मानव सभ्यताओं के विकास के साथ-साथ भाषा, कृषि, लिखित इतिहास और प्रौद्योगिकियों के विकास से जाना जाता है।
स्कूल में हम सीखते हैं कि सूर्य की किरणें (विकिरण ऊर्जा) पृथ्वी की सतह को गर्म करती हैं। भूमि और पानी पृथ्वी की सतह पर आने वाले विकिरण या ऊर्जा का एक हिस्सा सोख लेते हैं और गर्म हो जाते हैं। भूमि और पानी जिस ऊर्जा को नहीं सोखते, उसे वे वायुमंडल में वापस छोड़ देते हैं या प्रतिबिंबित करते हैं। इसे अवरक्त विकिरण भी कहा जाता है।
19वीं शताब्दी में, यूरोपीय भौतिकविदों और एक अमेरिकी वैज्ञानिक, यूनिस न्यूटन फुट ने सबसे पहले यह परिकल्पना की और फिर प्रयोग कर सिद्ध किया कि वायुमंडल में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, ओजोन और जल वाष्प जैसी विभिन्न गैसें उस ऊर्जा या गर्मी को अवशोषित करती हैं, जिसे पृथ्वी की सतह से वापस परावर्तित किया जाता है और इस परावर्तित उष्मा को वायुमंडल में ही रोक कर इसे अंतरिक्ष में जाने से रोका जाता है। ग्रीनहाउस प्रभाव और ग्लोबल वार्मिंग का यह एक मुख्य कारण है। नोबेल पुरस्कार प्राप्त स्वीडिश भौतिक रसायनशास्त्री स्वंते अरहेनियस ने 1896 में अपनी खोज में पाया कि वायुमंडल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की सांद्रता बढ़ जाने के कारण पृथ्वी की सतह के तापमान में वृद्धि हुई है।
20वीं सदी की शुरुआत में जलवायु परिवर्तन के कई अन्य कारण भी सुझाये गये। 1920 के दशक में अमेरिकी खगोल भौतिकीविद् चार्ल्स एबॉट ने कहा कि सूर्य के सौर धब्बों की गतिविधियों में आये बदलाव भी पृथ्वी पर होने वाले ग्लोबल वार्मिंग का कारण हैं।
1930 के दशक के मध्य में सर्बियाई गणितज्ञ मिलुटिन मालिनकोविच ने पता लगातया कि बड़े हिमयुगों की तुलना में छोटे हिमयुग या जलवायु चक्र थे। छोटे हिमयुग होने के तथ्य को 1960 के दशक में इतालवी-अमेरिकी पैलियो-समुद्र विज्ञानी सीज़र एमिलियानी ने गहरे समुद्री तलछट में और अमेरिकी भूरसायन शास्त्री वालेस ब्रॉकर ने प्राचीन मूंगों पर अध्ययन करके प्रमाणित किया।
अंग्रेजी इंजीनियर और शोधकर्ता गाइ कॉलेंडर ने सबसे पहले ग्लोबल वॉर्मिंग को मानवीय गतिविधियों के साथ जोड़ा, जिसे कभी-कभी “कॉलेंडर प्रभाव” भी कहा जाता है। 1938 के एक शोध पत्र में उन्होंने 1901-1930 के बीच प्रकाशित हुए तापमान के आँकड़ों और दुनिया भर के लगभग 150 स्टेशनों से सीओ2 सांद्रता का डेटा तैयार किया और निष्कर्ष निकाला कि ‘‘कार्बन डाइऑक्साइड के कृत्रिम उत्पादन के कारण औसत तापमान में वृद्धि हुई थी।’’ उनका मानना था कि भट्टियों, कारखानों और मोटर वाहनों में जीवाष्म ईंधन के जलने के कारण वायुमंडल के सीओ2 सांद्रण में वृद्धि हुई। कॉलेंडर के अनुसार 1938 में लोगों द्वारा वायुमंडल में लगभग 4.3 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ाई गयी। हालाँकि शौकिया वैज्ञानिक होने के कारण कॉलेंडर की यह खोज उनके जीवनकाल के दौरान विवादों में घिरी रही, लेकिन वर्तमान निष्कर्ष 1938 के उनकी खोज से मेल खाते हैं।
स्क्रिप्स इंस्टीट्यूसन ऑफ ओशनोग्राफी के चार्ल्स कीलिंग ने 3,000 मीटर की ऊँचाई पर मोना लोआ (हवाई, अमेरिका) में स्थित एक प्रायोगिक स्टेशन पर वातावरण में कार्बन डाइ ऑक्साइड सांद्रता को मापा। यह स्थान ऐसे शहरों से काफी दूर था, जो सीओ2 के प्रमुख स्रोत थे। 1961 में उन्होंने अपना डेटा प्रस्तुत किया, जिसमें मौसमी और वार्षिक चक्रीय बदलाव और सीओ2 सांद्रता में वृद्धि पायी गई। उनके इस काम को मोना लोआ में अन्य लोगों ने आगे बढ़ाया।
मोना लोआ का यह डेटा दुनिया में वायुमंडलीय सीओ का अभी तक का सबसे लम्बे दौर का यांत्रिक रिकॉर्ड है। यह वायुमंडलीय सीओ2 सांद्रता में निरंतर होती वृद्धि को दर्शाता करता है। वायुमंडलीय सीओ2, जो 1958 में 315 भाग प्रति मिलियन (पीपीएम) था, 2005 में बढ़ कर 380 पीपीएम हो गया। 2022 में यह 419 पीपीएम हो गया। 1960 से 2022 के बीच, जीवाष्म ईंधन जलाने से वैश्विक सीओ2 उत्सर्जन की कुल मात्रा तीन गुना से अधिक हो गई। 2022 में कुल ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन लगभग 58 बीटी होने का अनुमान लगाया गया था।
1965 में अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन की विज्ञान सलाहकार समिति ने मोनालोआ प्रयोगशाला और वैश्विक तापमान डेटा का उपयोग करके जीवाष्म ईंधन उत्सर्जन के हानिकारक प्रभावों के बारे में चेतावनी दी थी।
स्टैनफोर्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट ने 1968 के एक अध्ययन में ग्लोबल वार्मिंग के कुछ महत्वपूर्ण संभावित प्रभावों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि, ‘‘यदि पृथ्वी का तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो अंटार्कटिक बर्फ की सतह का पिघलना और समुद्र के स्तर में वृद्धि होना, महासागरों का गर्म होना और प्रकाश संश्लेषण में वृद्धि होना जैसी घटनाओं को होना संभव हैं। माना जा रहा है कि वर्ष 2000 तक तापमान में ये महत्वपूर्ण परिवर्तन होने लगभग तय हैं और ये जलवायु परिवर्तन का कारण बन सकते हैं।’’
हालाँकि 1970 के दशक की शुरुआत में, दुनिया भर में एरोसोल (क्लोरो फ्लोरोकार्बन, सीएफसी) का उपयोग बढ़ने के कारण वैश्विक तापमान में ठंडक आने जैसे तथ्य भी सामने आये। उपग्रह रिकॉर्ड देखने से पता चला कि उत्तरी गोलार्ध में बर्फ और बर्फ का आवरण बढ़ रहा है। इसके बाद कुछ जलवायु वैज्ञानिकों ने आशंका जताई कि वैश्विक स्तर पर ठंड बढ़ सकती है। 1975 की ‘न्यूजवीक’ पत्रिका की कवर स्टोरी में चेतावनी दी गई थी कि ‘‘यह पृथ्वी के मौसम में बदलाव आने के अशुभ संकेत हैं।’’
इन परस्पर विरोधी रिपोर्टों से भ्रम पैदा होने लगे। लेकिन कारगर पर्यावरण कानून के कारण एयरोसोल प्रदूषण में गिरावट आ गई और इन कानूनों के कारण 1945 से 1975 तक बढ़ रही शीतलन की प्रक्रिया 1980 का दशक आते-आते समाप्त हो गई। जैसे-जैसे ग्लोबल वार्मिंग के प्रमाण सामने आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन को न मानने वाले वैज्ञानिकों का दायरा सिमटता जा रहा है। 23 अक्टूबर 2006 को जारी एक अपडेट में ‘न्यूजवीक’ ने माना कि उसकी पहली चेतावनी गलत थी।
नासा-लैंगली रिसर्च सेंटर में भारतीय वैज्ञानिक वी. रामनाथन द्वारा प्रकाशित शोध ने सीएफसी द्वारा ठंड के बढ़ने के खिलाफ सबूत प्रदान किए। उन्होंने पाया कि एक सीएफसी अणु अवरक्त विकिरण को सोखने में सीओ2 अणु की तुलना में 10,000 गुना ज्यादा प्रभावी था। 1985 तक रामनाथन और अन्य वैज्ञानिकों ने यह साबित किया कि सीएफसी, मीथेन और अन्य ट्रेस गैस सीओ2 के साथ मिलकर वार्मिंग प्रभाव को लगभग दोगुना कर देतें है।
ध्रुवीय और हिमानी बर्फ पुराने भूवैज्ञानिक काल के पराग, धूल और हवा के बुलबुले को अपने में समेट कर रखती है। यदि उनकी परतों की गहराई में खुदाई की जाये तो लाखों वर्ष पुरानी जलवायु के आंकड़े और साक्ष्य मिल जाते हैं। फ्रेंको-रशियन वैज्ञानिकों ने वोस्तोक स्टेशन में अंटार्कटिका की आइस शेल्फ की आइस कोर में 400 मीटर से 3,600 मीटर गहराई तक खुदाई की। इसमें उन्होंने सीओ2 और तापमान के बीच सीधा संबंध पाया। इसी तरह, ग्रीनलेंड आइस कोर में डेनिश और जर्मन सहयोगियों द्वारा अध्ययन किया गया, जिसमें उन्होंने एक सदी के अंदर ही तापमान में काफी उतार-चढ़ाव पाये। ये सब अध्ययन इशारा कर रहे थे कि मानव जीवनकाल में ही जलवायु में भयंकर परिवर्तन हो सकते हैं। कोलंबिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक जेम्स हैनसेन ने 1988 में ऐसे ही एक अध्ययन के बाद अमेरिकी कांग्रेस को चेताया कि जलवायु परिवर्तन का समय आ चुका है। इसी वर्ष विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के साथ मिलकर जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से लेते हुए इंटर्गेवर्मेंटल पैनल (आईपीसीसी) की स्थापना की। संयुक्त राष्ट्र द्वारा इसका अनुमोदन किया गया. आईपीसीसी 195 सदस्य देशों द्वारा शासित है। इस पैनल ने अब तक छह मूल्यांकन रिपोर्ट प्रकाशित की हैं जो दो रिपोर्टों के बीच की अवधि में वैज्ञानिक अध्धयनों का सारांश प्रस्तुत करती हैं।
आईपीसीसी द्वारा तेजी से बढ़ते जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में निम्न मुख्य बिंदु बतलाये हैं :-
1. वैश्विक तापमान बढ़ रहा है। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से पृथ्वी की सतह का औसत तापमान 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, जिसका मुख्य कारण है मानव गतिविधियों से जीएचजी उत्सर्जन में वृद्धि। पिछले 40 वर्षों में तापमान में अधिक वृद्धि दर्ज की गयी। उसमें भी हाल के 7 वर्ष सबसे ज्यादा गर्म रहें। 2022 से 2027 के बीच औसत वार्षिक वैश्विक तापमान वृद्धि कम से कम एक बार 1.5 डिग्री सेल्सियस के खतरे के निशान को छू जाएगी।
2. महासागर गर्म हो रहे हैं। पृथ्वी अपनी 90 प्रतिशत तक की अतिरिक्त गर्मी को महासागरों में इकट्ठा करती है। 1969 के बाद से समुद्र की 100 मीटर तक की सतह 0.33 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो चुकी है।
3. बर्फ का आवरण घट रहा है। उपग्रह से देखने पर पता चलता है कि पिछले पांच दशकों के दौरान उत्तरी गोलार्ध में वसंत के मौसम से पहले ही बर्फ पिछलने लगी है।
4. ग्लेशियर पीछे खिसक रहे हैं। हिमालय, आल्प्स, एंडीज, रॉकीज, अलास्का और अफ्रीका समेत पूरी दुनिया में ग्लेशियर पीछे खिसके हैं।
5. ध्रुवीय बर्फ पिघल रही है। ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका की बर्फ की मात्रा में कमी आयी है। नासा के आंकड़े बताते हैं कि 1993 से 2019 के बीच ग्रीनलैंड में प्रति वर्ष लगभग 279 बिलियन टन बर्फ पिघली, जबकि अंटार्कटिका में एक साल में 148 बिलियन टन बर्फ पिघली।
6. आर्कटिक में समुद्री बर्फ में कमी हो रही है। पिछले कई दशकों में आर्कटिक की समुद्री बर्फ का क्षेत्रफल और मोटाई दोनों में तेजी से कमी आई है।
7. समुद्र का स्तर बढ़ रहा है। पिछली शताब्दी में विश्व भर के समुद्र के स्तर में लगभग 20 सेमी की बढ़ोतरी हुई है। 20वीं सदी के औसत में पिछले दो दशकों समुद्र में पानी के स्तर बढ़ने की गति में लगभग दोगुनी वृद्धि हुई है और यह वृद्धि हर साल बढ़ रही है, जिससे छोटे द्वीप राष्ट्रों और समुद्र किनारे बसी बस्तियों का अस्तित्व खतरे की जद में है।
8. प्रलयकारी घटनाओं में लगातार तेजी आ रही है। रिकॉर्ड तोड़ गर्मी, अत्यधिक वर्षा और तूफान, जिसके कारण पूरे विश्व में भयंकर बाढ़ और जंगलों की आग की घटनायें बढ़ गयी हैं। इसके विपरीत प्रतिवर्ष न्यूनतम तापमान के रिकॉर्ड में कमी आ रही है।
9. समुद्र का अम्लीकरण बढ़ा है। जबसे औद्योगिक क्रांति की शुरूआत हुई, तबसे समुद्र में अतिरिक्त सीओ2 जाने के कारण समुद्री सतह के पानी में अम्ल की मात्रा 30 प्रतिशत बढ़ी है। इस प्रदूषण और तटों के बेतरतीब विकास से प्रवाल भित्तियों के अस्तित्व पर भी खतरा मंडराने लगा है।
प्रत्येक आईपीसीसी एसेसमेंट रिपोर्ट (एआर) जलवायु परिवर्तन पर लगातार वैज्ञानिक सहमति बढ़ाती है। सभी सदस्य राष्ट्रों के बीच महत्वपूर्ण समझौते को विकसित करने के लिए भी इस रिपोर्ट का उपयोग किया जाता है। मूलभूत संधि, ‘द यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमट चेंज’ (यूएनएफसीसीसी) पर 1992 में हस्ताक्षर किए गए थे। यह क्योटो प्रोटोकॉल (1997) और पेरिस समझौते (2015) जैसी अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ता के लिए आधार बनाता है। पूर्व प्रतिबद्ध राष्ट्रों को जी.एस.जी उत्सर्जन को कम करके ग्लोबल वार्मिंग की गति को कम करने के लिए प्रतिबद्ध करता है। पेरिस समझौता कानूनी रूप से 195 सदस्य देशों को बाध्य करता है कि वे ‘‘वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने’’ और तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिये काम करें।”
अंततः, यह स्पष्ट है कि ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के बुनियादी विज्ञान पर एक अंतर्राष्ट्रीय समझ बनाने में प्रत्यक्ष भौतिक माप और अप्रत्यक्ष पैलियो (प्राचीन) रिकॉर्ड द्वारा मौसमी घटनाओं और परिवर्तनों को समझने में मदद मिली है।
फोटो इंटरनेट से साभार