ये किताब हिमालय में रहने वाली राजी जनजाति की परंपरागत जीवन शैली की अंतिम सांसे गीनने और उनकी पहचान मिटने की कहानी है।
तीसरे खण्ड में इसकी कहानी बहुत तेज़ी के साथ बढ़ती लगती है, उसे पढ़ते पाठक ऐसा महसूस करेंगे मानो वह किसी मरुस्थल घूमते-घूमते हिम प्रदेश में प्रवेश कर गए हैं।
किताब पूरी पढ़ने के बाद आपको यह पता चल जाएगा कि पृथ्वी में कोई सभ्यता कैसे खुद को बचाए रखने के लिए अनवरत संघर्ष ज़ारी रखती है।
किताब के आवरण चित्र को देखें तो हिमालय के तले बैठे लोग आपको रहस्मयी लग सकते हैं, पिछले आवरण पर लेखक का परिचय है। लेखक ने उत्तराखंड की संस्कृति पर बहुत काम किए हैं जो महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक हैं।
किताब की शुरूआत ‘समर्पण’ से होती है जो छोटे-छोटे आदिम समुदायों के लिए लिखा गया है।
‘भूमिका जैसा कुछ’ में ‘जंगल के बेदखल’ राजा शीर्षक है। यह साल 1962 , भारत-चीन सीमा संघर्ष के दिनों से शुरू होता है। लेखक इसमें बताते हैं कि कैसे उन्हें काली नदी के आर-पार उत्तराखंड और नेपाल के जंगलों में रहने वाली राजी नामक अल्पसंख्यक जनजाति की बोली पर शोध करने की प्रेरणा मिली। लेखक ने इसमें उनसे अपनी पहली मुलाकात, उनके शारीरिक बनावट और उनकी बोली पर अपने विचार भी रखे हैं।
तीन खण्डों में बंटी इस क़िताब का पहला खण्ड ‘काली-वार’, दूसरा खण्ड ‘काली-आर-पार’ और तीसरा खण्ड ‘काली-पार’ है।
अलग-अलग कालखंड में राजी जनजाति के अलग-अलग परिवारों की कहानी को तरीके से सम्पादित कर यह किताब लिखी गई है।
पहले खण्ड में राजी का इतिहास ‘इनरुआ’ द्वारा मंडुवा खोजने की कहानी के साथ शुरू होता है। भाषा सरल है पर यहीं किताब की पहली और आखिरी गलती दिखती है खुराक को खूराक लिखा गया है।
मानव प्रकृति के साथ-साथ एक दूसरे से दोस्ती कर कैसे समृद्ध होता गया यह किताब में बखूबी बताया गया है। रोटी के अविष्कार की कहानी और ‘अपने तार के सहारे दो पेड़ों की दूरी नापती एक मकड़ी को देखा’ पंक्ति इसका उदाहरण हैं।
यह सब क़िताब के प्रति आपकी रुचि को भी जगा देगा।
नराई की मां बनने की कहानी को लेखक ने बड़े ही मर्मस्पर्शी तरीके से लिखा है।
‘धरती तो हम सब की मां है, उस पर अकेला अपना हक जता कर जो खूनी खेल खेला जाता है, हम जंगल वासियों को कभी रास नही आया’ पंक्ति रूस-यूक्रेन के बीच चल रहे वर्तमान युद्ध की याद दिला देती है।
‘भलमन साहत’ , ‘दंत-क्षतों’ जैसे कम दिखने वाले शब्द समझने में दिमाग पर ज़ोर तो पड़ेगा पर वह किताब का आकर्षण भी बढ़ाते हैं।
राजी के साहसिक और बुद्धिमानी भरे कारनामों की कहानी लिए किताब आगे बढ़ी है।
दूसरा खण्ड ‘काली-आर-पार’ राजी जनजाति के बर्तन के बदले अनाज वाले रिवाज़ से शुरु होता है। काखड़ के शिकार को ऐसे लिखा गया है जैसे वो सामने ही घटित हो रहा हो।
गुफा में ठंडी से ठिठुरते गमेर का ‘बाप रे! ये हाल तो हमारा है, बेचारे गरीब-गुरबों का क्या होगा’ कहना राजी जनजाति का अपनी दुनिया में मग्न रहना दर्शाता है।
किताब पढ़ते आप उत्तराखंड के इतिहास से भी परिचित होते चले जाएंगे।
अंग्रेज़ों के दौर में कहानी पहुंचने पर यह पता चलता है कि राजी जनजाति संख्या में बढ़ते हुए महापंचायत भी कराने लगी थी।
बिरमा और नरुवा की मुलाकात फ़िल्मी है और किताब पहली बार एक अलग पहलू को छूती है।
जमीन को लेकर दिया गया नोटिस और उसमें लिखी भाषा पढ़ने लायक है। किताब में राजी जनजाति की कहानी अब आगे बढ़ते हुए अंग्रेज़ों के ज़माने से आज़ादी के बाद पहुंचती है।
धमुवा रौत और मथुरा रौत के बीच का वार्तालाप बड़े ही निराले अंदाज में लिखा गया है।
मथुरा बणरौत के द्वारा अदालत में कहे शब्द वन संपदा के अधिकारों को लेकर सवाल खड़े कर देते हैं, यह आज की वन नीति पर भी सवाल हैं। उन्हें पढ़ने मात्र के लिए ही किताब खरीदी जा सकती है।
पृष्ठ 146 में लेखक ने आपदा वाली रात को जिस तरह से लिखा है वह वाकई में पहाड़ में घटित होने वाली किसी आपदा का सजीव प्रसारण जान पड़ता है।
शेर सिंह की कहानी के ज़रिए लेखक ने राजी जनजाति के बीच की सामाजिक कुरीतियों को लिखा है।
‘पटौवा परिवार को हमारी सात वर्षीय बहन भा गई। उन्होंने अपने लड़के के लिए प्रस्ताव किया तो पिताजी ने स्वीकार कर लिया’ पंक्ति इसका उदाहरण है।
पंचाक की जड़, अपामार्ग, रतपतियां जड़ीबूटियों के बारे में बताया गया है जिनका इस्तेमाल राजी जनजाति द्वारा किया जाता था, आज अगर उत्तराखंड के बेरोजगार युवा इन जड़ी बूटियों से स्वरोज़गार प्राप्त करना चाहते हैं तो उन्हें ऐसी ही किताबों से जानकारी जुटानी चाहिए।
जंगल पर जनता के अधिकार की कहानी लिए किताब तीसरे खण्ड ‘काली-पार’ पर पहुंचती है। यह खण्ड किताब का सबसे बेहतरीन हिस्सा है।
लेखक ने हर घटना को बड़ी बारीकी से लिखा है जैसे ‘जैसिंह ने चूल्हा जलाया, पानी से भरी पतीली चूल्हें पर रखी। मानसिंह मुर्गों के सिर और पंजे काटकर अलग करने लगा, फिर साबुत मुर्ग़े खोलते पानी में डाले। जैसिंह मसाले घोट चुका था’।
पृष्ठ 187 और 188 ज्ञान का अनमोल खज़ाना लिए हैं, अब आप किताब के उस हिस्से में हैं जहां उसका एक शब्द छोड़ना भी बहुत कुछ छोड़ने जैसा है। नेपाली मज़दूरों का संवाद पढ़ने के बाद मेरी ये गारंटी है कि आपका उनके प्रति नज़रिया बदल जाएगा। विश्व के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर यह संवाद सटीक बैठता है।
मर्डर कर भागे हुए जैसिंह का अपनी जनजाति के बारे में इतनी गहराई से सोचना अचम्भित करता है।
‘नई-नई कोमल पंक्तियों से ढकी वानावलि हवा के झोंकों में जैसे झूला झूल रही थी। फ्यूली के पीले-पीले और गुलबनफ्शां के किंचित हल्के नीले फूलों से लगता था कि जैसे धरती ने रंग-बिरंगी ओढ़नी ओढ़ ली हो’ पंक्ति किताब पढ़ते-पढ़ते ही पाठकों को प्रकृति की अद्वितीय सुंदरता की अनुभूति दे देती है।
कहानी में आगे बढ़ते विधवा पुनर्विवाह की कहानी समाज के लिए एक सबक है।
बहुत सी कहानियां साथ पढ़ते पाठक उलझ न जाएं, इसके लिए लेखक फिर से कहानी याद दिला देते हैं और यह पुनरावृत्ति भी नही लगता।
जैसिंह का सालों बाद भारत वापस आना और बसावट पर उस क्षेत्र की स्थिति का वर्णन करना पढ़ने योग्य है।
अपने आखिरी हिस्से में किताब मेहनतकशों और रईसों का बीच की जो लड़ाई दिखाती है, वही आज के समाज की सच्चाई है, पृष्ठ 264 पढ़ते आपको फिर से रूस-यूक्रेन याद आ जाएंगे। आपकी आंखों के सामने युद्ध में वीरगति प्राप्त कर रहे सैंकडों सैनिकों की सोशल मीडिया पर घूम रही तस्वीरें घूमने लगेंगी।
किताब शुरुआत में जैसी लगती है उतनी साधारण है नही, यह बहुत ही बड़ा विषय खुद में समेटे हुए है।
पूंजीपतियों की वज़ह से आम नागरिक दबा हुआ है और उनके लिए उम्मीदों की किरण ढूंढती किताब समाप्त होती है।
पुस्तक- काली-वार काली-पार (उपन्यास)
लेखक- शोभाराम शर्मा
प्रकाशक- न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन
मूल्य- 350
लिंक- https://www.amazon.in/dp/9393241082/ref=cm_sw_r_apan_glt_i_X2B0NZCFH81YHA7V9YX5
मेल- newworldpublication14@gmail.com
समीक्षक- हिमांशु जोशी।