विनोद पाण्डे
जहां जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के यक्ष प्रश्नों के बीच परेशान दुनियां में वनों बेहतर बनाने और वन क्षेत्र बढ़ाने के तरीके ढूंढे जा रहे हैं वहीं उत्तराखण्ड सरकार ने जंगलों के बारे में एक बहुत ही विवादस्पद अधिसूचना जारी कर दी है। इस अधिसूचना के अनुसार अवर्गीकृत जंगल अगर वे 10 हैक्टर क्षेत्रफल से अधिक हों और उनका छत्र 60 प्रतिशत से अधिक हो तभी उन्हें विधिक रूप से जंगल माना जायेगा। बात खतरनाक वह है जो इसमें नहीं कही गई यानी इसका उल्टा यदि कोई 10 हैक्टर से कम की जमीन पर अवर्गीकृत जंगल हैं और उनका छत्र 60 प्रतिशत से कम है तो ये जंगल की परिभाषा में नहीं आयेगें। इसलिए वन संरक्षण अधिनियम की परिधि में भी नहीं आयेंगे।
इस परिभाषा की जरूरत की पृष्ठभूमि 1980 के वन संरक्षण अधिनियम से शुरू होती है। जिसमें कहा गया है कि किसी भी वन भूमि पर बिना केन्द्र सरकार की अनुमति से गैर वानिकी कार्यों नहीं किये जायेंगे। इस कानून की 1996 में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक व्याख्या करते हुए कहा था कि वन का अर्थ वन शब्द का शब्दकोशीय अर्थ माना जायेगा। जिसका अर्थ यह होता है कि किसी जमीन पर यदि प्राकृतिक रूप से वृक्ष उगे हैं तो उस भूमि को वन संरक्षण अधिनियम के उपयोग के लिए वन भूमि ही माना जायेगा या उसमें गैर वानिकी कार्य नहीं किया जा सकेगा। इसका परिणाम यह हुआ कि देष के अवर्गीकृत वनों में गैर वानिकी कार्य नहीं हो सकते थे। यही नहीं सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों को आदेष दिया था कि वे समस्त अवर्गीकृत वनों की पहचान करे। जिस आदेश का वन विभाग ने आमतौर पर पालन नहीं किया। यह व्यवस्था करीब 23 साल तक चलती रही। पर एकाएक इस नीति पर परिर्वतन के निहितार्थ ढूंढना जरूरी जान पड़ता है।
प्राप्त सूचनाओं के अनुसार उत्तराखण्ड की वर्तमान सरकार ने केन्द्र सरकार से इस तरह के वनों के संबध में स्पष्ट व्याख्या करने की मांग की। मैच फिक्सिंग की तर्ज पर केन्द्र सरकार ने बहुत चतुराई से आदेश जारी किया कि क्योंकि हर प्रदेश की परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं, इसलिए राज्यों को यह अधिकार दे दिया कि वे अपने राज्यों के लिए वनों के संबध में मानदंड स्वयं ही तय कर लें। उत्तराखण्ड ने इस आदेश के अनुपालन में ये परिभाषा तय कर दी है।
इस तरह की अधिसूचना का उत्तराखण्ड जैसे वन बहुल प्रदेश के बहुत मायने हैं। प्रदेश में कई जगहों पर सरकारी वनों के नजदीक कई छोटे बड़े इलाकों में अवर्गीकृत जंगल हैं जिनकी मिल्कियत निजी हाथों में है। 10 हैक्टर का अर्थ 500 नाली होता है। इसलिए 500 नाली पहाड़ों के लिए बड़ी जमीन है। ऐसी जमीनों के पहाड़ों में होने और वनों के नजदीक होने के कारण ये जमीनें बहुत कीमती हो गयी हैं। पर्यटन से लेकर रिहायसी उद्देश्य के लिए भूमाफिया इस पर नजर गढ़ाये रहते हैं। 500 नाली से भी बड़ी जमीनों को बाजीगरी कर टुकड़ों में बांट देना हमारी राजस्व व्यवस्था में आसान काम है। इसलिए यह माना जा सकता है कि ये सभी निजी व अवर्गीकृत वनों को भू-माफियाओं को सौंपने का कानूनी रास्ता तैयार कर दिया गया है।
इस निर्णय के पीछे कोई साजिश की बू इसलिए आती है क्यांकि ये निर्णय न केवल अवैज्ञानिक है बल्कि पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से भी बुरा है। इस अधिसूचना के विरोध में कई तर्क दिये जा सकते हैं। मसलन 10 हैक्टर ही क्यों 1,2,5,25 या 50 हैक्टर क्यां नहीं? क्या जंगल में केवल पेड़ ही होते हैं? जंगलों में लंबे-चौड़े घास के मैदानों का होना सामान्य बात है। बुग्यालों में तो पेड़ होते ही नहीं तो क्या वे वन भूमि नहीं होगें? कई जगहों पर किसी ढ़ाल में ज्यादा वनस्पति होती है किसी में कम। कई पेड़ों का छत्र कम फैला होता है किसी का ज्यादा तो छत्र को आधार कैसे माने? जहां पेड़ कम हैं यानी छत्र कम हो गया है वे तो अवनत वन हैं उनका सुधार करने के बजाय उन्हें वन ही न मानना तो अच्छा नहीं है। और इन सबसे उपर आज जब दुनियां में जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण मानवता के अस्तित्व पर संकट पैदा कर रहे हैं। इन हालातों में तो वन के एक-एक हिस्से की हिफाजत होनी चाहिये, तो जिन क्षेत्रों को अबतक वन क्षेत्र माना गया था उन्हें गैर वन बना देना क्या विनाशकारी कदम नहीं है। तो ऐसा विनाषकारी आदेश क्यों दिया जा रहा है।
उत्तराखण्ड सरकार ने यह तक नहीं सोचा कि भारतीय वन सर्वेक्षण के आंकड़ों के संकलन के लिए सरकार 1 हैक्टर के वन क्षेत्र को भी वनों के रूप में गिनती होती है और 10 प्रतिशत छत्र को भी वनों में शामिल करती है। यही नहीं भारत सरकार विभिन्न अंर्तराष्ट्रीय संस्थाओं जैसे जलवायु परिवर्तन के प्रति अपने प्रयासों के लिए भारतीय वन सर्वेक्षण की रिर्पोटों को ही आधार बनाती है। अतः यह कैसे संभव है कि आप विश्व को सूचित करने के लिए और अपने देश में अलग-अलग मानदंडों को अपनाती है। इस तरह के दोहरे मानदंड सरकार की विश्वसनीयता व निष्ठा पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती है।
लोकतांत्रिक सरकारों में इस तरह के व्यापक जनहित को प्रभावित करने के निर्णयों पर सरकारें जनमत संग्रह करवाती हैं लेकिन हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के बाबजूद भी यह मान लिया जाता है कि ये अधिकार जनता के प्रतिनिधियों के पास हैं। हालांकि सरकार वनों व प्राकृतिक संसाधनों की मालिक नहीं बल्कि रखवाला है। इसकी असली मालिक तो जनता ही है। रखवाले और मालिक में बहुत बड़ा फर्क है। जब मालिक लापरवाह हो जाता है तो रखवाला ही मालिक बन बैठता है। यह हमें समझना होगा।
हमेशा की तरह ख्याति प्राप्त पर्यावरणविद इस मामले में अब तक चुप्पी साधे हैं। उनकी सक्रियता अब समारोहों और पुरस्कारों के समय ही दिखती है। हलांकि इस प्रकरण में कुछ संवेदनशील रिटायर्ड वनाधिकारियों की प्रतिक्रिया आयी है। वनसेवा में अनेकों आदर्श स्थापित करने वाले ईश्वरी दत्त पाण्डे जो राज्य के प्रमुख वन संरक्षक भी रह चुके हैं का कहना है कि जब वनों की परिभाषा के संबध में पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है अब राज्य सरकार द्वारा कोई भी बदलाव अनुचित है और इस अधिसूचना को तुरंत वापस लिया जाना चाहिये। पूर्व राज्य जैवविविधता बोर्ड के अध्यक्ष व पूर्व प्रमुख वन संरक्षक राकेश साह ने कहा है कि ये 10 प्रतिशत और 60 प्रतिशत कहां से आया? इस अधिसूचना के बाद हम अपने कई प्राकृतिक सुदंरता के अप्रतिम वनों को खो सकते हैं। इससे मानव व वन्यजीव संघर्ष बढ़ेगा और वनों का विघटन होगा। उन्होंने यह भी कहा है वन विभाग ने यदि उनके द्वारा ये सुझाव नहीं दिये गये हैं तो उन्हें इस अधिसूचना पर तुरंत प्रतिक्रिया देनी चाहिये। इसी तरह प्रकाश भटनागर पूर्व प्रमुख वन संरक्षक ने कहा है कि निजी वनों का छत्र का इतना घना होना तो सोचा ही नहीं जा सकता है, यह केवल वन संरक्षण अधिनियम को शिथिल करने का प्रयास है। ईश्वरी दत्त पाण्डे ने कहा है कि सभी अवकाश प्राप्त व वर्तमान वनाधिकारियों से अपील की है कि वे इस विनाशकारी आदेश को लागू करने से रोकने के लिए आगे आयें। श्री पाण्डे सोसायटी ऑफ रिटायर्ड फॉरेस्ट ऑफिसर के क्षेत्रीय अध्यक्ष भी हैं।