राजीव लोचन साह
जोशीमठ मामले में उत्तराखंड सरकार की उदासीनता, अनिर्णय और अकर्मण्यता अभूतपूर्व है। इसकी जितनी भी निन्दा की जाये, कम है। एक शहर बर्बादी के रास्ते पर जा रहा है और एक निर्वाचित सरकार के कानों पर जूँ नहीं रेंग रही है। एक साल से अधिक समय से जोशीमठ के जागरूक नागरिक इस आपात्काल की ओर सरकार का ध्यान खींच रहे हैं। उन्होंने अपनी पहल पर निष्पक्ष वैज्ञानिकों से इस बारे में अध्ययन करवा के सरकार को रिपोर्ट भी सौंपी। सरकार गम्भीर होती तो उसने समय पर निर्णय लेकर ऐसे उपाय किये होते कि लोगों को ये दुर्दिन न देखने पड़ते। मगर सरकार ने उस रिपोर्ट की भी उपेक्षा ही की। अब जब कि स्थितियाँ हाथ से निकल रही हैं, तब भी सरकार लीपापोती से अधिक कुछ नहीं कर पा रही है। उसे इतना ही समझ में आ रहा है कि इमारतों में पड़ रही दरारों को पाट दो और जो मकान धराशायी होने की कगार पर हैं, उनमें रहने वालों को किसी सुरक्षित मकान में रख दो। जबकि सम्पूर्ण जोशीमठ में सुरक्षित जैसा अब कुछ नहीं रहा। कुछ ही समय में पूरा जोशीमठ ही अलकनन्दा में समा जाना है। एन.टी.पी.सी. की जल विद्युत परियोजना ने इस विनाश की पुख्ता बुनियाद रख दी है। मगर न तो सरकार एन.टी.पी.सी. को इस मामले में दोषी ठहराने को तैयार है और न ही एक नया जोशीमठ नगर बसाने की दीर्घकालिक योजना पर विचार करने, जैसा कि जोशीमठ के लोग माँग कर रहे हैं, को तैयार है। मुख्यमंत्री इस आपदा के शहर के एक हिस्से तक सीमित होने के गैर जिम्मेदाराना बयान दे रहे हैं। उनसे इतना भी नहीं हो रहा है कि कम से कम युद्ध स्तर पर ‘प्रिफैब्रिकेटेड हट’ ही बनवा दें, ताकि विस्थापित हो रहे लोग एक कमरे में समूह में रहने से होने वाली मनोवैज्ञानिक समस्याओं से बच सकें। जोशीमठ और आसपास के हजारों लोगों ने 27 जनवरी को एक बहुत बड़ा प्रदर्शन कर सरकार की हीलाहवाली को चुनौती है। मगर सरकार की नीयत जनता को धीरे-धीरे थकाकर निष्क्रिय करने की ही दिखाई दे रही है।
फोटो इंटरनेट से साभार