एक ऐसा दिन भी आ सकता है कि जब हम दिल व मस्तिष्क से लेकर अंग प्रत्यारोपण के जटिल आॅपरेशन तो कर लेंगे, परन्तु ऐंटीबायोटिक्स की निष्क्रियता के कारण हम आॅपरेशन के बाद मरीज को नहीं बचा पायेंगे। वे कहते हैं कि यदि हम इस समस्या का समाधान न खोज पाये तो पेनिसिलीन की खोज से पहले के उस युग में पहुँच जायेंगे, जब मामूली चोटें भी जानलेवा हो जाती थीं।
चिकित्सा जगत की एक बड़ी ताकत एंटीबायोटिक्स हैं। ये न केवल कई संक्रामक रोगों में कारगर साबित हुए हैं, बल्कि शल्य चिकित्सा के बाद घावों को भरने में इनकी अहम भूमिका है। बीसवीं सदी की शुरूआत तक साधारण से साधारण घावों से मृत्यु हो जाना सामान्य बात थी। क्योंकि इन घावों में जीवाणुओं का संक्रमण हो जाता था और घाव सड़ते जाते थे। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान सेना के जवानों की बड़ी संख्या में मृत्यु का कारण सामान्य घाव थे। सन् 1928 में एलेक्जेन्डर फ्लेमिंग द्वारा पैनिसिलीन की खोज जीवाणुजनित बीमारियों के लिए रामबाण सिद्ध हुई। यह पहली ऐंटीबायोटिक दवा थी, जिसे पैनसीलियम नामक के फफूँद से बनाया गया था। इसके प्रभाव से कई किस्म के जीवाणुओं को नष्ट किया जा सकता था। कई प्रकार की बीमारियों को दूर करने से लेकर शल्य चिकित्सा में घावों को भरने में इसने जादू जैसा काम किया। इसके बाद कई प्रकार के एंटीबायोटिक बनते गये और आज तक बनते जा रहे हैं। मगर इनके दुष्प्रभाव भी सामने आने लगे हैं। किसी प्रकार के जीवाणुओं को जब लंबे समय तक प्रयोग में लाया जाता है तो सम्बन्धित जीवाणु उसे लेकर एक प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं। यह प्रतिरोधक क्षमता उनमें एंटीबायोटिक प्रतिरोधक जीन के कारण विकसित होती है। तब वैज्ञानिक और अधिक क्षमतावान एंटीबायोटिक की खोज करते हैं। कुछ समय बाद जीवाणु उसके प्रति भी निष्क्रियता विकसित कर लेते हैं। यह अंतहीन क्रम लगातार चल रहा है, जिसे विज्ञान जगत में ए.एम.आर. या एंटीमाइक्रोबिल रेजिस्टेंस का नाम दिया गया है। हिन्दी में इसे जीवाणु प्रतिरोधहीनता कहा जा सकता है।
सामान्यतः माना जाता है कि व्यक्ति विशेष के शरीर पर एंटीबायोटिक दवाएँ असर नहीं कर रही हैं। यह बात सही नहीं है। तथ्य यह है कि जीवाणु एंटीबायोटिकों से लगातार जूझने के कारण ऐसी जीन विकसित कर लेते हैं, कि उन पर एंटीबायोटिकों का असर नहीं होता। हमें इस भ्रम से दूर रहना चाहिये कि प्रतिरोधक जीवाणु अधिक एंटीबायोटिक्स लेने वाले व्यक्ति को ही संक्रमित कर सकते हैं। दरअसल एंटीबायोटिकों के अनियंत्रित प्रयोग के कारण जीवाणुओं में विकसित प्रतिरोधक जीन के कारण वे अपराजेय शक्ति विकसित कर लेते हैं। इसलिए समस्या बहुत व्यापक है व इसके समाधान के लिये चिकित्सा से लेकर तमाम उत्पादन पद्धतियों का समावेश होना चाहिये।
एंटीबायोटिक्स का उपयोग मानवीय औषधियांे में ही नहीं, बल्कि मुर्गीपालन, डेरी उद्योग, सुअर पालन, मौनपालन व मत्स्य पालन आदि में भी होता है। यहाँ इनका उपयोग दवा के रूप में ही नहीं, बल्कि उत्पादन बढ़ाने के लिए भी होता है। इन उत्पादों का प्रचुर रूप से हमारे भोजन में भी उपयोग हो रहा है, जहाँ से ये एंटीबायोटिक युक्त भोज्य पदार्थ मानव शरीर में वही प्रभाव पैदा कर देते हैं जो कि इन एंटीबायोटिक को लेने से होता। यानी कि हम एंटीबायोटिक का सीधे उपयोग किये बिना ही उनके दुष्प्रभावों से ग्रसित हो जाते हैं और हमारे सम्पर्क में आने वाले जीवाणु इन दवाओं की प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं। किसी व्यक्ति में जब ये रोगाणु संक्रमित होते हैं तो फिर एंटीबायोटिक दवाओं का उस पर कोई असर नहीं होता और उसका मर्ज लाइजाज हो जाता है। इस समस्या पर अब विश्व स्तर पर चिन्ता व्यक्त की जाने लगी है। इस वर्ष 19-20 मई को सम्पन्न जी-20 देशों की बैठक में भी जीवाणु प्रतिरोधहीनता पर चिंता व्यक्त की गईं।
नारायणा कार्डियाक सेंटर के प्रमुख डाॅ. देवी शेट्टी कहते हैं कि हमारे पास सुदूर क्षेत्रों से ऐसे ग्रामीण आते हंै, जिन्होंने पहले कभी एंटीबायोटिक का प्रयोग नहीं किया होता। पर अनेक बार ऐसे लोगों पर भी एंटीबायोटिक का असर नहीं होता। वे कहते हैं कि एक ऐसा दिन भी आ सकता है कि जब हम दिल व मस्तिष्क से लेकर अंग प्रत्यारोपण के जटिल आॅपरेशन तो कर लेंगे, परन्तु ऐंटीबायोटिक्स की निष्क्रियता के कारण हम आॅपरेशन के बाद मरीज को नहीं बचा पायेंगे। वे कहते हैं कि यदि हम इस समस्या का समाधान न खोज पाये तो पेनिसिलीन की खोज से पहले के उस युग में पहुँच जायेंगे, जब मामूली चोटें भी जानलेवा हो जाती थीं।
इस समस्या के पीछे सिर्फ एक ही कारण है, एंटीबायोटिक दवाओं का अनियंत्रित उपयोग। इनकी बेरोकटोक उपलब्धता, इनके बारे में अज्ञान और आसानी या जल्दी परिणाम पाने के लिए चिकित्सकों द्वारा इनका दुरुपयोग। कई बार दवा विक्रेता ही यह तय कर लेते हैं कि कौन सी एंटीबायोटिक और कितनी लेनी है तो कई बार सामान्य व्यक्ति ही यह तय कर लेते हंै। ऐसा ही पशुओं में एंटीबायोटिकों के प्रयोग के संबध में भी होता है। इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एंटीबायोटिकों को तीन श्रेणियों में बाँटा है- आसानी से उपलब्ध, निगरानी के अन्तर्गत प्रयोग व रिजर्व। पहली श्रेणी में आसान किस्म की, एमोक्सिलीन जैसी दवाओं को रखा गया है, जिनके दुष्प्रभाव नगण्य हैं। दूसरी श्रेणी में सिप्रोफ्लोक्सिन वर्ग की दवाएँ हैं, जिनका प्रयोग किसी अनुभवी चिकित्सक की निगरानी में ही होना चाहिये। तीसरी श्रेणी में काॅलिस्टीन जैसी दवाइयाँ हैं, जिनका प्रयोग अंतिम विकल्प के रूप में होना चाहिये। पर इन दवाओं के आसानी से उपलब्ध हो जाने के कारण इनका मनमाना प्रयोग हो रहा है। इसी कारण विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग पर चिन्ता जाहिर करते हुए अब जीवाणु प्रतिरोधहीनता को मानवता के लिए एक बड़ा खतरा करार दिया है। उसकी रिपोर्ट में कहा गया है कि निमोनिया, टी.बी. गोनोरिया जैसे जीवाणुजन्य रोगों में एंटीबायोटिक दवाएँ लगातार प्रभावहीन होने लगी हैं, जिस कारण इलाज का खर्च और मृत्यु दर बढ़ रहे हंै।
जीवाणु प्रतिरोधहीनता का खतरा मानव शरीर तक ही सीमित नहीं है। इसकी शक्ति से युक्त जीवाणु अन्य जीवाणुओं के संपर्क में आकर उन्हें भी यह शक्ति प्रदान कर देते हैं। इससे धीरे-धीरे पूरा पर्यावरण ही इन जीवाणुओं से प्रदूषित हो सकता है। इस खतरे से निबटना असंभव होगा। इस संक्रमण में पशु फार्मों, बूचड़खानों और अस्पतालों आदि के कचरे तथा अप्रयुक्त एंटीबायोटिक दवाओं के अवैज्ञानिक निस्तारण की प्रमुख भूमिका है। फिलहाल विश्व भर की संस्थाएँ इस समस्या के समाधान के लिये गंभीरता से जुटी हुई हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन, खाद्य व कृषि संगठन जैसे संगठनांे की अगुवाई में जागरूकता और सूचनाओं के आदान प्रदान का कार्य चल रहा है। यह सहमति बनी है कि सभी जीव-जन्तुओं व पारिस्थितिकी के साथ जोड़ कर ही मानव स्वास्थ्य की सुरक्षा की जा सकती है। जब तक सभी प्राणी स्वस्थ नहीं हांेगे, मनुष्य भी स्वस्थ नहीं रह सकता।
जीवाणु प्रतिरोधहीनता को लेकर अमेरिका में बढ़ती चिन्ता के चलते वहाँ के भोजन एवं औषधि प्राधिकरण (एफ.डी.ए.) ने मौनपालन में तक एंटीबायोटिक्स के प्रयोग को लेकर कठोर नियम बना दिये हैं, क्योंकि मौनपालन से एंटीबायोटिक्स का दुष्प्रभाव पर्यावरण में संचारित हो सकता है। वहाँ अब पशु चिकित्सक रोगग्रस्त मौनालयों के लिए दवाएँ बतायेंगे। इसके लिए पशु चिकित्सकों को अलग से प्रशिक्षण दिया जायेगा, क्योंकि उनके पास मौनपालन की विधिवत् शिक्षा नहीं होती।
भारत में स्थिति एकदम विपरीत है। यहाँ खाद्य पदार्थों के मानक के निर्धारण व नियंत्रण की जिम्मेदारी एफ.एस.एस.ए.आई. यानी फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड अथाॅरिटी आॅफ इंडिया यानी खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकरण की है। इस संस्था ने यों तो सन् 2012 में ही परामर्श पत्र (एडवाइजरी) जारी कर दिया है, किन्तु सरकारी स्तर पर जीवाणु प्रतिरोधहीनता के लिये कोई ठोस प्रयास होते नजर नहीं आते। आँकड़ों की कमी के कारण नीतिगत निर्णय, नियंत्रण व कार्यक्रम संभव नहीं हो पा रहे हैं। भारत में जिस तरह उद्योग व व्यापार जगत सरकार से अपनी मनमर्जी की नीतियाँ को बनवाता रहता है, वह इस मामले में भी किसी प्रकार के प्रतिबंध नहीं चाहता, क्योंकि उससे सम्बन्धित उद्योग की लागत बढे़गी और लाभ घटेगा। जाहिर है भारत सरकार ऐसे मानकों को सख्ती से लागू करने में ज्यादा रुचि नहीं दिखायेगी।
भारत में परंपरागत कृषि भले ही जबर्दस्त संकट से गुजर रही हो और किसानों की आत्महत्या रोजमर्रा की बात हो, परन्तु एग्रो बिजनेस यहाँ भारी मुनाफा कमा रहे हैं। मुर्गीपालन ऐसा ही एक प्रमुख उद्योग है। सेंटर फाॅर साइंस एंड एनवाइरनमेंट की एक रिपोर्ट के अनुसार मुर्गीपालन में बहुत बड़ी मात्रा में एंटीबायोटिक दवाओं व वैक्सीनों का प्रयोग होता है, ताकि मुर्गे जल्दी व अधिक वजनदार बनें। मुर्गों का एक अनियंत्रित बाजार है। मेकडोनाल्ड, के.एफ.सी. व पिज्जा हट जैसी कई बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ मुर्गे के मीट के रेस्टोरंेट चलाते हैं। इनमें प्रयुक्त मुर्गांे के उत्पादन में किसी प्रकार के मानकों का पालन नहीं होता। यूरोप व अमेरिका में ऐसी मुर्गीपालन कंपनियों द्वारा या तो प्रतिबंधित दवाओं का प्रयोग बंद कर दिया है या 2018 तक पूर्ण रूप से बंद कर देने की प्रतिबद्धता जाहिर की है। भारत में अभी यह दूर की कोड़ी है।