नवीन जोशी
भूपेंद्र बिष्ट की कविताएं पढ़ते हुए मीठी ‘नराई’ घेर लेती है। वे बहुत सारी चीजें जो हमसे छूट गई हैं और अब भी छूटती चली जा रही है, मन को विह्वल भी करने लगती हैं। गांवों-कस्बों के बिसराए चित्र, मंथर गति से चलते जीवन के कुछ मोहक बिम्ब, कुछ सहज मानवीय क्रियाकलाप, कोई सौंधी खुशबू, उड़ता कोहरा, परिचित-सी कोई गंध, कोई टर्रा स्वाद, लोकाचार और कहा-अनकहा रह गया प्रेम, कोई किस्सा, कुछ रिश्ते, मानव मन की कोमल संवेदनाएं, कोई उल्लास, कोई उदासी, वगैरह-वगैरह से मन भीगने लगता है। कोई मीठी कसक सी बनी रह जाती है। कवि के भीतर जम कर बैठा पहाड़ रह-रह कर टेरता है और अगर उस पहाड़ से आपका रिश्ता रहा है तो पत्थर और मिट्टी पात्रों की तरह आपसे बतियाने, सुख-दुख सुनाने करने बैठ जाते हैं।
भूपेंद्र बिष्ट लम्बे समय से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं लेकिन ‘गोठ में बाघ’ (अंतिका प्रकाशन, 2023) उनका पहला ही कविता संग्रह है। यहां गोठ यानी गोशाला में घुस आया बाघ भी आतंक की तरह नहीं, एक सामान्य घटना या स्मृति की तरह आता है-
“दिवाली भी हो गई/ और चले गए बच्चे, जो आए थे छुट्टियों में/ घर-गांव सुनसान हो गया ….. किसी जाने वाले के हाथ ही भेजेगी/ ईजा कुछ खबर/ कि परसों गोठ में आ गया था बाघ/ इस बार लाही बहुत हुई/ और इतनी झक्क भी…”।
इन कविताओं में कथाएं गुंथी हुई हैं और कथाओं में उस जीवन की खुशबू महकती रहती है जो बीत-छीज रहा है, एक बीत रही पीढ़ी की स्मृतियों में ‘अफगान स्नो’ की डिब्बी की अलोप छवि की तरह रिस रहा है-
“कुछ सब्जियां/ जिन्हें पिता पता नहीं कहां से लाते थे/ और माँ ही बनाना जानती थी उनको/ अब दिखाई नहीं पड़तीं …../ माँ के साथ ही खत्म हो गई कुछ चीजें/ पर मैंने उनकी याद को बनाए रखने का जतन किया है/ मुकम्मल/ अफगान स्नो की के पुरानी डिबिया/ साफ कर /उसमें रख छोड़ा है जीरा/ माँ की पिटारी में भीमसेनी काजल की डिबिया/ और भृंगराज केश तेल की एक शीशी के साथ…।”
‘सूटकेस’, ‘तलघर’, ‘रेडियो’, ‘इज्जतनगर बरेली:1986’, जैसी कविताएं में ऐसी ही स्मृतियां दिप-दिप करती हैं। कवि अत्यंत संवेदनशील तो है ही, अपनी स्थानीयता से गहन रूप से स्मृति-बद्ध भी है। उसके पास कविता का कोई जटिल, अबूझ तानाबाना नहीं है। बहुत सरल, सहज किस्सागोई की तरह उसकी कविताओं में जीवन बोलता है। वह घर-गांव, विशेष रूप से पहाड़ के रोजमर्रा जीवन से, प्रकृति से, चीजों के स्वाद से, रिश्तों से, हँसी से, लोकरीति से और स्थानीय विशिष्टता से छोटे-छोटे बिम्ब उठा लेता है और कुछ सूत्र-वाक्यों की तरह प्यारी-सी कविता खिल उठती है। ज्गत में आ रहे बदलावों पर कवि की नज़र ठहरी रहती है लेकिन उसमें नएपन का स्वागत एवं उल्लास उतना नहीं दिखता, जितना बीतती-बिसरती चीजों का मोह झलकता है। अब जब चिट्ठियां नहीं लिखी जा रहीं तो कवि को प्यार किए जाने पर भी संशय होता है, हालांकि वह कहता है कि ‘लोग प्यार करते हैं अब भी’-
“यह उस जमाने की बात है/ जब लेटर बॉक्स का जंक खाया, धूसर रंग भी/ मुझे लगता था गुड़हल के फूल से भी ज़्यादा सुर्ख/ स्वाद की जुबान में कहूं तो/ अधिक पक चुकी रक्ताभ किल्मोड़ी से भी सुस्वादु/ …चिट्ठियां नहीं लिखते एक-दूसरे को प्रेमीजन/ इसलिए संशय होता है प्यार किए जाने की बात पर…”
आजमगढ़ की बेटी ब्याह कर अल्मोड़ा क्या आ गई, दो अलग-अलग क्षेत्रों की मिट्टी-हवा-पानी का स्वाद कविता में अद्भुत ढंग से गमकने लगता है-
“जंघई आए हैं रानी से मिलने/ कहने/ तेहार सेनुल बनल रहो/ ढेर सत्तू और खूब कच्चे कुंदरू परोरा लेकर/ …आज लौट रहे हैं बाबूजी/ भोर वाली बस से/ बेटी ने बांध दिए कुछ गहत और भट की पोटलियां/ अम्मा के वास्ते…”
यहां वीरेन डंगवाल और मंगलेश डबराल याद आने लगते हैं, जिन्हें कवि भी अपनी कविताओं में याद करता रहता है। यह स्वाद ही है, और ‘शील्ह लोढ़ा कुटवा लो’ की पुकार भी, जिसके कारण कवि को सिलबट्टे का बेदखल हो जाना भी आहत करता है कि
“… लेकिन पशेमां है मेरा मन/ कि किसी दिन चारपाई के नीचे से निकालकर/ इस सिलबट्टे को नई पीढ़ी/ कहीं ड्रॉइंग रूम में न कर दे आरास्ता/ बतौर एंटीक पीस।”
यह अलग बात है कि नया नारीवाद ‘साड़ी के सौंदर्य’ की तरह ही ‘सिलबट्टे के स्वाद’ को भी मर्दवादी जकड़न का प्रतीक करार दे चुका है। बहरहाल, स्त्री, विशेष रूप से पहाड़ की स्त्री, इन कविताओं में अपने कष्टों, संघर्षों और अनकहे दर्दों के साथ अपने मोर्चे पर डटी हुई उपस्थित है-
“पहाड़ की औरत पर/ जब दुख पड़ते हैं भारी/ वह कपड़े के एक टुकड़े में/ चावल, मास की दाल और एक रुपए का सिक्का/ बांध कर रख देती है/ गोल्ल देवता के नाम।” (पहाड़ की औरत) “वे ज़िंदगी भर गोठ से नौले तक/ बाखली से जंगली वीथिकाओं तक महदूद रही/ डामर की पक्की सड़कों पर चलना/ वे क्या जानें/ दौड़कर हल्द्वानी के लिए मोटर पकड़ने का /शऊर भी तो नहीं उन्हें” (स्त्री की बीमारी) “बचपन में छिपा दी गई/ उसकी तख्ती और दवात/ और इस तरह दूर रखा गया/ उसे वर्णमाला सीखने से/ बाद में/ लकड़ी और घास के बड़े-बड़े गट्ठर/ रख दिए गए सिर पर/ ताकि स्वप्न-वय की कोई उमंग उठ न सके/ यह माँ थी मेरी” (माँ का नाम) “हँसने को एक पर्दे की मानिंद प्रयोग में लाना/ स्त्रियों का आदिम स्वभाव है/ इसीलिए दुख में भी हँस सकती हैं स्त्रियां/ अपितु स्त्रियां जब-तब हँसी के पीछे ही/ छुपाती हैं अपना दुख” (हेमंत स्त्रियों के हँसने की ऋतु है)
भूपेंद्र बिष्ट के इस कविता संग्रह में प्रेम की जो छ्टा कौंधती है वह अत्यंत मधुर, रससिक्त और मद्धिम आंच-सी तपती हुई है और साथ बनी रह जाती है-
“तुम तो हंसो/ कोहरे को जीतती इन सूर्य रश्मियों के बीच/ जैसे हंसी थी सूर्यास्त की बेला में कल/ और आज भिनसारे भी जरा/ उतने मोहक ढब से / माँ हँसी।”
बिना किसी प्रचलित वाद और नारे के लिखी गई ये कविताएं गहरी संवेदना से भरपूर और अलग-सा आस्वाद लिए हैं। अपने दिल को तो बहुत करीब से स्पर्श कर गया यह कविता संग्रह्। भूपेंद्र जी को बधाई और शुभकामनाएं।