डॉ अरुण कुकसाल
स्वाधीनता संग्रामी, डोला-पालकी और आर्यसमाज आन्दोलन के अग्रणी ‘जयानंद भारती’ का जन्म ग्राम- अरकंडाई, पट्टी- साबली (बीरोंखाल), पौड़ी (गढ़वाल) में 17 अक्टूबर, 1881 में हुआ था. पिता छविलाल और माता रैबली देवी का परिवार कृषि और पशुपालन के अलावा जागरी के काम से जुड़ा था. जयानन्द भी किशोरावस्था तक इन्हीं पैतृक कार्यों को किया करते थे. बाद में बेहतर रोजगार के लिए नैनीताल, मसूरी, हरिद्वार और देहरादून में उनका रहना हुआ.
बचपन से ही अंधविश्वासों के प्रति संशय रखने वाले जयानंद सन् 1911 में आर्य समाजी विचारधारा से जुडकर उसके प्रचारक बन गए. सन् 1914 से 1920 तक वे सेना में रहते हुए फ्रांस और जर्मन भी हो आये थे. सेना से सेवा-निवृत होने के बाद वे आर्यसमाज के पूर्णकालिक प्रचारक के रूप में कार्य करते हुए उत्तराखंड में सामाजिक जागृति के लिए कार्य करने लगे. वैचारिक दासता और व्यवहारिक दंभ में जकड़े समाज से उन्हें अनेकों बार अपमानित होना पडत़ा था. परन्तु संयम, धैर्य, दूरदृष्टि और साहस के धनी भारतीय जी ने अपने जीवनीय प्रयासों को किसी भी रूप में कमजोर और शिथिल नहीं होने दिया.
गढ़वाल में सन् 1923 से सामाजिक समानता के लिए तकरीबन 20 वर्षों तक निरंतर लड़ा गया डोला-पालकी आंदोलन का नेतृत्व जयानन्द ‘भारती’ ने किया था. तब के समय में शिल्पकार परिवार की बारात में डोला-पालकी का प्रयोग करना वर्जित था. भारती जी ने जब इस कुप्रथा का सार्वजनिक विरोध किया तो सर्वणों ने उन्हें अनेक तरीकों से प्रताड़ित किया.
जयानन्द भारती ने महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय और भी अनेकों बड़े नेताओं तक यह बात पहुंचाई. साथ ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सर्वणों की इस ज्यादती के खिलाफ मुकदमा दायर किया. निर्णय भारती जी के पक्ष में आने के बाद सरकारी कानून के माध्यम से शिल्पकारों के लिए वर्जित डोला-पालकी प्रथा का अंत हुआ था.
देश की स्वाधीनता लड़ाई में जयानन्द भारती की सक्रियता हमेशा बनी रही. 28 अगस्त, 1930 को राजकीय विद्यालय, जहरीखाल में तिरंगा झंडा फहराकर उन्होने आजादी के लिए विद्यार्थियों को प्रेरित किया था. तीन माह के कारावास से रिहा होकर वे फिर इन गतिविधियों में शामिल होते रहे. 1 फरवरी, 1932 को दुगड्डा में प्रतिबन्ध के बावजूद जनसभा करने के कारण उन्हें 6 माह के लिए पुनः जेल जाना पड़ा. कोटद्वार में 11 अक्टूबर, 1940 को सैनिक टुकड़ी के सम्मुख सत्याग्रह करने के आरोप में उन्हें चार माह की सजा हुई. भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लेने के कारण 22 अप्रैल, 1943 को भारती जी को दो वर्ष का कठोर कारावास हुआ था. बरेली जेल में रहते इस सजा को भारतीय जी ने स्वः अध्ययन में गुजारा था.
देश की आजादी के बाद जयानन्द भारती पूर्णतया समाजसेवा के कार्यों को समर्पित हो गये. उनके प्रयासों से कई स्थलों में धर्मशाला, अस्पताल और विद्यालयों की स्थापना हुई थी. अत्यधिक सामाजिक सक्रियता और अनियमित जीवन-चर्या के कारण वे अपने स्वास्थ पर समुचित ध्यान नहीं दे पाये. उन्होने जीवन के अतिंम समय में अपनी अस्वस्थता को जानते हुए भी पैतृक गांव अरकंड़ाई में कठिनाईयों के साथ रहने का फैसला लिया. और, अरकंड़ाई गांव में 9 सितम्बर, 1952 को जयानन्द ‘भारती’ जी का 71 वर्ष की आयु में देहान्त हो गया.
उत्तराखंडी समाज के लिए जयानन्द ‘भारती’ जी का योगदान एक समाज सुधारक, आर्यसमाज के प्रचारक, स्वतन्त्रता संग्रामी और सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले जुझारू व्यक्तित्व के रूप में हमेशा याद किया जाता रहेगा. यह बात अलग है कि उत्तराखंड के राजनेताओं, सरकारों और आम जनता ने ऐसी अनेकों महान विभूतियों और उनके अमूल्य सामाजिक योगदान को हमेशा नजर-अदांज़ ही किया है.