प्रमोद साह
पिछले कुछ सालों से अप्रैल -मई के महीने में उत्तराखंड के जंगलों में लगने वाली आग उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा का रूप धारण कर चुकी है। इसमें न केवल लाखो हैक्टेयर क्षेत्र में वन व वन्य जंतु नष्ट हो रहे हैं बल्कि यह आग मिश्रित वनों के लिए एक बड़ा खतरा बन गई है। जिससे वनों की जैव विविधता, ऊर्वरा शक्ति और पर्यावरण पर गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है ।
वनों में लगने वाली यह आग साल दो साल या दस साल में जंगलों के प्रति बरती गई हमारी बेरुखी का परिणाम नहीं है, बल्कि अंग्रेजों के समय से जंगल और स्थानीय समाज के अंतर्संबंधों को बदलने का जो प्रयास अंग्रेजों ने प्रारंभ किया वह जंगलात के माध्यम से आज भी जारी है । परिणाम स्वरूप हम वनवासी जो की अपने जीवन और आजीविका के लिए वनो पर ही निर्भर थे। धीरे धीरे पूरा पर्वतीय समाज जंगलों से बेदखल कर दिया । जिसके परिणाम स्वरूप ग्रामीण भी जंगल के प्रति निर्मोही बन गए ।
बीसवीं सदी के प्रारंभ तक उत्तराखंड के ग्रामीण समाज का जंगलों से त्रि-चक्रीय संबंध था ।
1- हम पशुपालक समाज हैं, जंगल में पशुओं का खुला प्रवेश था और जरूरत की चारा पत्ती भी जंगल हमें देता था।
2- जंगल के उप -उत्पाद शहद, बेल, तरुड आदि पर भी हमारा हक था।
3- पहाड़ के जिन खेतों में बंदर और सूअर का रोना छोड़ कर अब खेती छोड़ी जा रही है वहां जंगल के बीच अपनी जरूरत भर की खेती का भी हमें जंगल में अधिकार प्राप्त था।
जैसे ही रेल के विस्तार के साथ वनों के व्यावसायिक दोहन का रास्ता खुला 1864 में वन महकमे की स्थापना के साथ ही अंग्रेजों ने वनों पर अपने नियंत्रण की कवायद तेज कर दी । जंगल खेत के मुहाने तक पहुंच गया पशुपालन और कृषि दोनों दुष्कर हो गई।
टिहरी के कुंजणी, सकलाना आदि के वन विद्रोह के साथ ही, बीसवीं सदी के प्रारंभ में कोटद्वार से टनकपुर तक की तराई में जंगलों के प्रति स्थानीय जनता का आक्रमक हो जाना ,जंगलों को स्वाह कर देना आदि जंगल के अधिकार से वंचित किए जाने का ही परिणाम था।
इन जन विद्रोह का अंग्रेजों ने 1926 के वन अधिनियम से समाधान करने का प्रयास किया उससे पहले वन पंचायतों के माध्यम से ग्रामीणो को जंगल में आवश्यक और नियंत्रित अधिकार पुन: दिए गए तब से ही जंगलों के व्यवसायिक छपान के साथ, चारा पत्ती, जलोनी लकड़ी और चक्रवार गांवो के इमारती लकड़ी के हक भी सरकार ने स्वीकार किए, इस सब से जंगल के प्रति ग्रामीण समाज का फिर से प्रेम जागा और समुदाय द्वारा आग आदि से बनो की रक्षा भी की जाने लगी, साथ ही वन विभाग द्वारा सिल्वीकल्चर के प्रयोगों से पुराने जंगलों को काटने नए जंगलों को लगाने के प्रयोग में जंगलों को युवा और खुशहाल रखा।
लेकिन 1981 का साल जिसे चिपको आंदोलन की कामयाबी के रूप में देखा जाता है । जंगलों में सिल्विकल्चर के तहत किए जा रहे आधे हरे वृक्षों के पातन पर रोक लगा दी जिससे जंगलों में बुजुर्ग और पुराने चीड़ के पेड़ों का राज हुआ, मोनोकल्चर बड़ा। जिसने धीरे-धीरे पर्वतीय क्षेत्र के मिश्रित और चौडी पत्ती के वन को समाप्त कर दिया जो जलवायु नियंत्रण में ज्यादा कारगर भूमिका निभाते हैं। पहले चीड़ के जंगल के साथ कांफल, उतीस, बुंरास आदि के पेड़ भी बड़ी मात्रा में पाए जाते थे। वनो के भीतर विविधता के साथ रहने की प्रवृत्ति थी।
चिपको आंदोलन की कामयाबी ने सिल्वीकल्चर तथा वैज्ञानिक पद्धति से किए जा रहे पातन को प्रतिबंधित किया, जिससे जंगलों में चीड़ का एकाधिकार हुआ, अधिक पानी खींचने और कम पानी में जिंदा रहने की चीड़ प्रवृत्ति ने पहाड़ में जल संकट भी पैदा किया. गांव के पुराने जलस्रोत सूख गए । साथ ही वन महकमे द्वारा संरक्षित और आरक्षित वनों के नाम पर ग्रामीणों के जंगल में प्रवेश के अधिकार को बहुत सीमित कर दिया वनों की सामुदायिक पहुंच समाप्त हो गई।
वनाग्नि तथा वन पर अन्य संकट के वक्त अब ग्रामीण समाज जंगल के साथ खड़ा नहीं होता है । जंगल की आग पर अकेले काबू पाना वन महकमे के बस में भी नहीं है । जिस प्रकार जंगल में गांव की भागीदारी को खत्म किया गया, गुणवत्तापूर्ण जरूरी सिल्वीकल्चर समाप्त हुआ, जिससे सामुदायिक वानिकी का विचार ही नष्ट कर दिया गया । ऐसे में जंगलों के प्रति समाज की चिंता और चेतना कैसे बड़े ? यह एक यक्ष प्रश्न है। इस यक्ष प्रश्न का समाधान हम अपनी वन नीति में समग्र वैज्ञानिक परिवर्तन के साथ ही कर सकते हैं ।
वनो पर वैज्ञानिक शोध और सिल्वीकल्चर को बढ़ाने के लिए , वन विभाग के ढांचे और नीति में आमूल चूल परिवर्तन करना होगा ,वन विभाग को मिले जब्ती, प्रवेश और एकतरफा सजा के पुलिस अधिकारो को कम करना होगा. इन पुलिस अधिकारों के कारण वन महकमे की रूचि वानिकी से अधिक पुलिस कार्यो में हो गई है। जंगलों को तत्काल ग्रामीण जरूरतों का नियंत्रित केंद्र बनाया जाए, फिर से जंगलों के बाह्य भाग को , ग्रामीण बन के रूप में चिन्हित कर सामुदायिक वानिकी को प्रोत्साहित करना होगा. साथ ही चिपको आंदोलन के दबाव में एक तरफा बन नीतियों में जो संशोधन हुए जिसे मोनोकल्चर बड़ा उस पर भी पुनर्विचार किए जाने की आवश्यकता है।
उससे भी ज्यादा जरूरी है कि वनों की आग को सिर्फ आपदा के रूप में ना देख कर, इसे समाज से दूर होती है वन नीति के परिणाम के रूप में देखना होगा। वन और समाज के प्राचीन काल से चले आ रहे, सह अस्तित्व की अवधारणा को फिर से स्थापित करना होगा, तभी हम जंगल, जैव विविधता और पर्यावरण संरक्षण के विचार को जिंदा रख पाएंगे ।
नोट : लेख का महत्वपूर्ण अंश वनप्रेमी, और जंगल के मर्मज्ञ श्री विनोद पांडे जी की वार्ता पर केंद्रित है।