इंद्रेश मैखुरी
उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों की धूम है. एक चरण का चुनाव निपट चुका है और दूसरे चरण के चुनाव आज है.तीसरे चरण का चुनाव 16 अक्टूबर को होगा. इस बीच अलग-अलग जगहों से ये खबरें आती रही कि अमुक गांव,क्षेत्र या जिला पंचायत सीट पर प्रत्याशी,निर्विरोध निर्वाचित हो गया.निर्विरोध निर्वाचन के मामले में कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ आपसी विचार-विमर्श,समझ-बूझ से अपना प्रतिनिधि चुनने की परंपरा काफी पुरानी है. इसकी तारीफ उचित ही है.
कुछ जगह साम-दाम-दंड भेद के जरिये निर्विरोध निर्वाचन की खबरें भी हैं. ऐसे क्षेत्रों में चुनाव में भले ही एक के अतिरिक्त कोई दूसरा प्रत्याशी नहीं खड़ा हुआ,लेकिन इस निर्वाचन को निर्विरोध तो नहीं, अलबत्ता विरोध का मुंह बंद करके किया गया निर्वाचन कहना ज्यादा उचित होगा.
तीसरी श्रेणी का निर्विरोध निर्वाचन वहां हुआ,जहां नए पंचायत राज अधिनियम में चुनाव लड़ने के लिए निर्धारित अर्हताओं को पूरा करने वाले प्रत्याशी मिलना मुश्किल हो गया.फलतः जो मिला,वह निर्विरोध निर्वाचित हो गया.यह “रपट गए तो हर-हर गंगे” वाली अवस्था है.
इन सब के बीच हमारा गांव मैखुरा भी है. यहां कोई चुनाव निर्विरोध नहीं होता,हो ही नहीं सकता.ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि इस गांव में विविध राजनीतिक धाराओं और विचारों से जुड़े लोग हैं. किसी एक व्यक्ति के बहुत बड़ा हो कर यहां अपना या अपने राजनीतिक झंडे का एकछत्र वर्चस्व कायम करना लगभग नामुमकिन है.
कुछ लोगों के लिए यह मत भिन्नता एक नकारात्मक बात है. लेकिन असल में मतों की भिन्नता, विचारों की विविधता ही तो है, लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त है.मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना – लोकतंत्र इसी से तो बना.इस अर्थ में देखें तो मैखुरा एक लोकतांत्रिक गांव है.
और देखिये राजनीतिक रूप से एक-दूसरे को चुनौती देने वाले मैखुरा के लोग चुनाव लड़ने वालों के प्रति कितने संवेदनशील हैं ! चुनाव बड़ा हो या छोटा,अपने गांव का प्रत्याशी भी होगा पर लोग तब भी यह चिंता करेंगे कि भई चुनाव लड़ने वाले गांव से बाहर के प्रत्याशी का बक्सा खाली नहीं जाना चाहिए, कुछ वोट तो उसे भी पड़ने ही चाहिए.आखिर उसके प्रत्याशी होने का मान तो रखा ही जाना चाहिए.
मतभिन्नता खूब हो और मनमुटाव, द्वेष व ईर्ष्या कतई न हो,इस भावना का फलना-फूलना जरूरी है.
चुनाव का परिणाम जो भी हो लोकतंत्र और यह लोकतांत्रिक भावना निरंतर बढ़ती रहनी चाहिए.