मनमीत
पिछले दिनों अखबारों के पहले पेज पर एक खबर फड़फड़ा रही थी। देहरादून से टिहरी झील तक 35 किलोमीटर की सुरंग का निर्माण होगा। अभी अखबार की उस खबर की स्याही सूखी भी नहीं थी कि उस सुरंग से ऊपर जो नई नई ऑल वेदर सड़क बनाई गई, वो ही बेवक्त मर गई।
आज से लगभग छह साल पहले इस ऑल वेदर रोड की जब योजना बनाई गई थी तब भी अखबारों में खबर फड़फड़ा रही थी। सरकार ने दावा किया कि ये एक ऐसी सड़क होगी, जो 12 महीने जिंदा रहेगी। जलजला आ जाये या तुफान, बाढ़ आ जाये या चक्रवात। सबको ये सड़क झेल लेगी। खैर प्राकतिक आपदाओं को तो ये ऑल वेदर रोड नहीं झेल पाई, लेकिन देश के कुछ चुनिंदा ठेकेदारों, नेताओं और अधिकारियों की जिंदगी ऑल वेदर रॉड ने चकाचक बना डाली।
बहुत साल पहले, मुझे याद है जब हम देहरादून या ऋषिकेश में बस में बैठकर पुरानी टिहरी जाया करते थे। ऋषिकेश की तपती गर्मी से पहली राहत आगराखाल में सुर सुर बहती हवाओं से मिलती। ठसाठस भरी बस आगराखाल में किसी ढाबे के बाहर रूकती और कंडक्टर बोलता, यहां पर बस बीस मिनट रूकेगी। हम बच्चों को ये कंडक्टर का आदेश खुश कर देता। चाय पकोड़े खाने के बाद बस आगे चलती और धीरे धीरे गंतव्य में पांच घंटे में पहुंच जाती। फिर जब बढ़े हुये तो अपनी कार से इसी रास्ते से आगराखाल पहुंचते और भुटवा भात खाते। कभी कभी नागनी में साथ बहती गाड़ के सफेद पानी मे हाथ मुँह धो लेते तो कभी सड़क के दोनों और पेड़ों की छत पर सुस्ता लेते।
फिर एक दिन नेताजी को लगा कि हम खुश नही हैं। वो अपने साथ ऑल वेदर रोड को बनाने ठेकेदार और अधिकारी ले आये। सभी हाथ में बेलचा और सब्बल लेकर पहुंचे। उन्होंने हजारों पेड़ काट डाले और पहाड़ों को बेतरतीब छिलकर सड़क को चौड़ा कर दिया। उन्होंने हमें बताया कि अब तुम दून से फर्राटा भरकर अपने घर पहुंचोगे। हमने मान लिया। कुछ नहीं माने तो उन्हें हमने मनवा लिया। जो बिल्कुल भी नहीं माने उन्हें हमने विकास विरोधी का तमगा दिया। कई लोग चिल्लाये कि हिमालय पर ऐसे घाव मत करो। कुछ ने नाकभौं सिकुड़ी की ये सड़क नियमों को ताक पर रख बनाई जा रही है। लेकिन, कौन सुनने वाला था। सबको अपने घर जल्दी पहुंचना था।
फिर एक दिन सड़क बन गई। देहरादून से लोगों ने अपनी कार के एक्सलेरेटर पर पाँव रखा, लेकिन नरेंद्रनगर पहुंचते ही उनके उपर पत्थर गिरने लगे। किसी तरह बचते बचाते चंबा तक पहुंचे। चंबा पहुंचे तो पता चला कि एक कार बोल्डर के नीचे दब गई है। लेकिन फिर भी दिल को तसल्ली दी कि विकास अपनी कीमत मांगता है। अगली बार फिर से कार का एक्सलेरेटर दबाया तो आगराखाल के पास एक पत्थर कार के आगे शीशे पर गिरा और कार चला रहा चालक बदहवास होते होते खाई में जाते जाते बचा। लेकिन उसके पीछे वाला इतना किस्मत वाला नहीं था। उसने तत्काल विकास की कीमत चुका दी। धीरे धीरे दून से अपने घर जल्दी पहुंचने वाले नरेंद्रनगर पहुंचते ही कार के शीशे से आगे देखने के बजाये ऊपर खुरचे गये पहाड़ों पर लटकते बोल्डर देखते हुये टिहरी पहुंचने लगे।
जब कई हादसे हो गये तो फिर टिहरी जल्दी पहुंचने वाले लोगों ने अपनी आदतों में भारी बदलाव किया। मसलन, देहरादून से अपनी कार पर बैठने और एक्सलेरेटर पर पांव रखने से पहले वो अपनी बच्चों को जमकर चूमते, कि क्या पता फिर मुलाकात हो या नहीं।
मेरे घर से कुछ दूरी पर रहने वाला एक फौजी जब अपनी डयूटी कश्मीर जाता तो अपने बच्चों और पत्नी को टाटा बाय बोलकर निकलता। लेकिन इस बार उसे अपने गांव घनसाली अकेले जाना था तो अपने बच्चों और पत्नी से लिपटकर रोया।
खैर, मैं तो इतना डरपोक हूं कि एक बार मेरी कार के बोनट पर छोटा से कंकड़ ताछला पर गिरा तो उस दिन के बाद से मैंने टिहरी जाने के लिये अपना पारंपरिक मसूरी का रास्ता पकड़ लिया। हम टिहरी वालों को विकास की बड़ी कीमत देनी आती है। पहले घर खेत डुबा कर दी और अब अपनी सड़क डुबा कर भी दे देंगे। कौन सी बड़ी बात ठहरी।
35 किलोमीटर लंबी सुरंग कब तक बन जाएगी। मुझे देहरादून से शाम को टिहरी झील चाय पीकर लौटना भी है।